भाईयों और बहनों,

आप सबका स्‍वागत है। दो दिन बड़ी विस्‍तार से चर्चा होने वाली है। इस मंथन में से कई महत्‍वपूर्ण बाते उभरकर के आएगी जो आगे चलकर के नीति या नियम का रूप ले सकती है और इसलिए हम जितना ज्‍यादा एक लम्‍बे विजन के साथ इन चर्चाओं में अपना योगदान देंगे तो यह दो दिवसीय सम्‍मेलन अधिक सार्थक होगा। इस विषय में कुछ बातें बताने का आज मन करता है मेरा। Climate के संबंध में या Environment के संबंध में प्रारंभ से कुछ हमारी गलत अभिव्‍यक्ति रही है और हम ऐसे जैसे अपनी बात को दुनिया के आगे प्रस्‍तुत किया कि ऐसा लगने लगा कि जैसे हमें न Climate की परवाह है न Environment की परवाह है। और सारी दुनिया हमारी इस अभिव्‍यक्ति की गलती के कारण यह मानकार के बैठी कि विश्‍व तो Environment conscious हो रहा है। विश्‍व climate की चिंता कर रहा है कि यह देश है जो कोई अडंगे डाल रहा है और इसका मूल कारण यह नहीं है कि हमने environment को बिगाड़ने में कोई अहम भूमिका निभाई है। climate को बर्बाद करने में हमारी या हमारे पूर्वजों की कोई भूमिका रही है। हकीकत तो उल्‍टी है। हम उस परंपरा में पले है, उन नीति, नियम और बंधनों में पले-बढ़े लोग हैं, जहां प्रकृति को परमेश्‍वर के रूप माना गया है, जहां पर प्रकृति की पूजा को सार्थक माना गया है और जहां पर प्रकृति की रक्षा को मानवीय संवेदनाओं के साथ जोड़ा गया है। लेकिन हम अपनी बात किसी न किसी कारण से, एक तो हम कई वर्षों से गुलाम रहे, सदियों से गुलाम रहने के कारण एक हमारी मानसिकता भी बनी हुई है कि अपनी बात दुनिया के सामने रखते हुए हम बहुत संकोच करते हैं। ऐसा लगता है कि यार कहीं यह आगे बढ़ा हुआ विश्‍व हम Third country के लोग। हमारी बात मजाक तो नहीं बन जाएगी। जब तक हमारे भीतर एक confidence नहीं आता है, शायद इस विषय पर हम ठीक से deal नहीं कर पाएंगे।

और मैं आज इस सभागृह में उपस्थित सभी महानुभावों से आग्रहपूर्वक कहना चाहता हूं हम जितने प्रकृति के विषय में संवेदनशील है। दुनिया हमारे लिए सवालिया निशान खड़ा नहीं कर सकती है। आज भी प्रति व्‍यक्ति अगर carbon emission में contribution किसी का होगा तो कम से कम contribution वालों में हम है। लेकिन उसके बाद भी आवश्‍यकता यह थी कि विश्‍व में जब climate विषय में एक चिंता शुरू हुई, भारत ने सबसे पहले इसका नेतृत्‍व करना चाहिए था। क्‍योंकि दुनिया में अधिकतम वर्ग यह है कि जो climate की चिंता औरों पर restriction की दिशा में करता रहता है, जबकि हम लोग सदियों से प्रकृति की रक्षा करते-करते जीवन विकास की यात्रा में आगे बढ़ने के पक्षकार रहे हैं। दुनिया जो आज climate के संकट से गुजर रही है, Global Warming के संकट से गुजर रही है, उसको अभी भी रास्‍ता नहीं मिल रहा है कि कैसे बचा जाए, क्‍योंकि वो बाहरी प्रयास कर रहे हैं। और मैंने कई बार कहा कि इन समस्‍या की जड़ में हम carbon emission को रोकने के लिए जो सारे नीति-नियम बना रहे हैं, विश्‍व के अंदर एक बंधनों की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन हम कोई अपनी Life Style बदलने के लिए तैयार नहीं है। समस्‍या की जड़ में मानवजात जो कि उपभोग की तरफ आगे बढ़ती चली गई है और जहां ज्‍यादा उपभोग की परंपरा है, वहां सबसे ज्‍यादा प्रकृति का नुकसान होता है, जहां पर उपभोग की प्रवृति कम है, वहां प्रकृति का शोषण भी कम होता है और इसलिए हम जब तक अपने life style के संबंध में focus नहीं करेंगे और दुनिया में इस एक बात को केंद्र बिंदु में नहीं लाएंगे हम शायद बाकी सारे प्रयासों के बावजूद भी, लेकिन यह जो बहुत आगे बढ़ चुके देश है, उनके गले उतारना जरा कठिन है। वो माने न माने हम तो इन्‍हीं बातों में पले-बढ़े लोग हैं। हमें फिर से अगर वो चीजें भूला दी गई है, तो हमें उस पर सोचना चाहिए। मैं उदाहरण के तौर पर कहता हूं आजकल दुनिया में Recycle की बडी चर्चा है और माना जाता है कि यह दुनिया में कोई नया विज्ञान आया है, नई व्‍यवस्‍था आई है। जरा हमारे यहां देखों Recycle, reuse और कम से कम उपयोग करने की हमारी प्रकृति कैसी रही है। पुराना जमाना की जरा अपने घर में दादी मां उनके जीवन को देखिए। घर में कपड़े अगर पुराने हो गए होंगे, तो उसमें से रात को बिछाने के लिए गद्दी बना देंगे। वो अब उपयोगी नहीं रही तो उसमें से भी झाडू-पौचे के लिए उस जगह का उपयोग करेंगे। यानी एक चीज को recycle कैसे करना घर में हर चीज का वो हमारे यहां सहज परंपरा थी। सहज प्रकृति थी।

मैंने देखा है गुजरात के लोग आम खाते हैं, लेकिन आम को भी इतना Recycle करते हैं, Reuse करते हैं शायद कोई बाहर सोच नहीं सकता है। कहने का तात्‍पर्य है कि कोई बाहर से borrow की हुई चीज नहीं है। लेकिन हमने दुनिया समझे उस terminology में उन चीजों को आग्रहपूर्वक रखा नहीं। विश्‍व के सामने हम अपनी बातों को ढंग से रख नहीं पाए। हमारे यहां पौधे में परमात्‍मा है। जगदीश चंद्र बोस ने विज्ञान के माध्‍यम से जब Laboratory में जब सिद्ध किया कि पौधे में जीव होता है, उसके बाद ही हमने जीव है ऐसा मानना तय किया, ऐसा नहीं है। हम सहस्‍त्रों वर्ष से गीता का उल्‍लेख करे, महाभारत का उल्‍लेख करे हमें तभी से मानते हुए आए हैं कि पौधे में परमात्‍मा होता है। और इसलिए पौधे की पूजा, पौधे की रक्षा यह सारी चीजें हमें परंपराओं से सिखाई गई थी। लेकिन काल क्रम में हमने ही अपने आप को कुछ और तरीके से रास्‍ते खोजने के प्रयास किए। कभी-कभी मुझे लगता है.. यहां urban secretaries बहुत बड़ी संख्‍या में है हम परंपरागत रूप से चीजों को कैसे कर सकते हैं। मैं जानता हूं मैं जो बातें बताऊंगा, ये जो so called अंग्रेजीयत वाले लोग हैं, वो उसका मजाक उड़ाएंगे 48 घंटे तक। बड़ा मजाक उड़ाएंगे, आपको भी बड़ा मनोरंजन मिलेगा टीवी पर, क्‍योंकि एक अलग सोच के लोग हैं। जैसे मैं आपको एक बात बताऊं। आपको मालूम होगा यहां से जिनका गांव के साथ जीवन रहा होगा। गांव में एक परंपरा हुआ करती थी कि जब full moon होता था, तो दादी मां बच्‍चों को चांदनी की रोशनी में सुई के अंदर धागा पिरोने के लिए प्रयास करते थे, क्‍यों eye sight तो थी, लेकिन उस चांदनी की रोशनी की अनुभूति कराते थे।

आज शायद नई पीढ़ी को पूछा जाए कि आपने चांदनी की रोशनी देखी है क्‍या? क्‍या पूर्णिमा की रात को बाहर निकले हो क्‍या? अब हम प्रकृति से इतने कट गए हैं।

अगर हमारी urban body यह तय करे, लोगों को विश्‍वास में लेकर के करें कि भई हम पूर्णिमा की रात को street light नहीं जलाएंगे। इतना ही नहीं उस दिन festival मनाएंगे पूरे शहर में, सब मोहल्‍ले में लोग स्‍पर्धा करेंगे, सुई में धागा डालने की। एक community event हो जाएगा, एक आनंद उत्‍सव हो जाएगा और पर्यावरण की रक्षा भी होगी। चीज छोटी होती है। आप कल्‍पना कर सकते हैं कि सभी Urban Body में महीने में एक बार इस चांदनी रात का उपयोग करते हुए अगर street light बंद की जाए तो कितनी ऊर्जा बचेगी? कितनी ऊर्जा बचेगी तो कितना emission हम कम करेंगे? लेकिन यही चीज इस carbon emission के हिसाब से रखोगे, तो यह जो so called अपने आप को पढ़ा-लिखा मानता हैं, वो कहे वाह नया idea है, लेकिन वही चींज हमारी गांव की दादी मां कहती वो सुई और धागे की कथा कहकर के कहेंगे, अरे क्‍या यह पुराने लोग हैं इनको कोई समझ नहीं है, देश बदल चुका है। क्‍या यह हम हमारे युवा को प्रेरित कर सकते हैं कि भई Sunday हो, Sunday on cycle मान लीजिए, हो सकता है कोई यह भी कह दें कि मोदी अब cycle कपंनियों के agent बन गया हैं। यह बड़ा दुर्भाग्‍य है देश का। पता नहीं कौन क्‍या हर चीज का अर्थ निकालता है। जरूरी नहीं कि हर कोई लोग cycle खरीदने जाए, तय करे कि भई मैं सप्‍ताह में एक दिन ऊर्जा से उपयोग में आने वाले साधनों का उपयोग में नहीं करूंगा। अपनी अनुकूलता है।

समाज मैं जो life style की बात करता हूं हम पर्यावरण की रक्षा में इतना बड़ा योगदान दें सकते हैं। सहज रूप से दे सकते हैं और थोड़ा सा प्रयास करना पड़ता है। एक शिक्षक के जीवन को मैं बराबर जानता हूं। मैं जब गुजरात में मुख्‍यमंत्री था तो उन पिछड़े इलाकों में चला जाता था, जून महीने में कि जहां पर girl child education बहुत कम हो। 40-44 डिग्री Temperature रहा करता था जून महीने में और मैं ऐसे गांव में जाकर तीन दिन रहता था। जब तक मैं मुख्‍यमंत्री रहा वो काम regularly करता था। एक बार मैं समुद्री तट के एक गांव में गया। एक भी पेड़ नहीं था, पूरे गावं में कहीं पर नहीं, लेकिन जो स्‍कूल था, वो घने जंगलों में जैसे कोई छोटी झोपड़ी वाली स्‍कूल हो, ऐसा माहौल था। तो मेरे लिए आश्‍चर्य था। मैंने कहा कि यार कहीं एक पेड़ नहीं दिखता, लेकिन स्‍कूल बड़ी green है, क्‍या कारण है। तो वहां एक teacher था, उस teacher का initiative इतना unique initiative था, उसने क्‍या किया – कहीं से भी bisleri की बोतल मिलती थी खाली, उठाकर ले आता था, पेट्रोल पम्‍प पर oil के जो टीन खाली होते थे वो उठाकर ले आता था और लाकर के students को एक-एक देता था, साफ करके खुद और उनको कहता था कि आपकी माताजी जो kitchen में बर्तन साफ करके kitchen का जो पानी होता है, वो पानी इस बोतल में भरकर के रोज जब स्‍कूल में आओगे तो साथ लेकर के आओ। और हमें भी हैरानी थी कि सारे बच्‍चे हाथ में यह गंदा दिखने वाला पानी भरकर के क्‍यों आते हैं। उसने हर बच्‍चे को पेड़ दे दिया था और कह दिया था कि इस बोतल से daily तुम्‍हें पानी डालना है। Fertilizer भी मिल जाता था। एक व्‍यक्ति के अभिरत प्रयास का परिणाम था कि वो पूरा स्‍कूल का campus एकदम से हरा-भरा था। कहना का तात्‍पर्य है कि इन चीजों के लिए समाज का जो सहज स्‍वभाव है, उन सहज स्‍वभाव को हम कितना ज्‍यादा प्रेरित कर सकते हैं, करना चाहिए।

मैं एक बार इस्राइल गया था, इस्राइल में रेगिस्‍तान में कम से कम बारिश, एक-एक बूंद पानी का कैसे उपयोग हो, पानी का recycle कैसे हो, समुद्री की पानी से कैसे sweet water बनाया जाए, इन सारे विषयों में काफी उन्‍होंने काम किया है। काफी प्रगति की है। इस्राइल तो इस समय एक अभी भी रेगिस्‍तान है जहां हरा-भरा होना बाकी है और एक है पूर्णतय: उन्‍होंने रेगिस्‍तान को हरा-भरा बना दिया है।

बेन गुरियन जो इस्राइल के राष्‍ट्रपिता के रूप में माने जाते हैं, तो मैं जब इस्राइल गया था तो मेरा मन कर गया कि उनका जो निवासा स्‍थान है वो मुझे देखना है, उनकी समाधि पर जाना है। तो मैंने वहां की सरकार को request की थी बहुत साल पहले की बात है। तो मैं गया, उनका घर उस रेगिस्‍तान वाले इलाके में ही था, वहीं रहते थे वो। और दो चीजें मेरे मन को छू गई – एक उनके bedroom में महात्‍मा गांधी की तस्‍वीर थी। वे सुबह उठते ही पहले उनको प्रणाम करते थे और दूसरी विशेषता यह थी कि उनकी जो समाधि थी, उन समाधि के पास एक टोकरी में पत्‍थर रखे हुए थे। सामान्‍य रूप से इतने बड़े महापुरूष के वहां जाएंगे तो मन करता है कि फूल रखें वहां, नमन करे। लेकिन चूंकि उनको green protection करना है, greenery की रक्षा करनी है। फूल-फल इसको नष्‍ट नहीं करना, यह संस्‍कार बढ़ाने के लिए बेन बुरियन की समाधि पर अगर आपको आदर करना है तो क्‍या करना होता था उस टोकरी में से एक पत्‍थर उठाना और पत्‍थर रखना और शाम को वो क्‍या करते थे सारे पत्‍थर इकट्ठे करके के फिर टोकरी में रख देते थे। अब देखिए environment की protection के लिए किस प्रकार की व्‍यवस्‍थाओं को लोग विकसित करते हैं। हम अपने आपसे बाकी सारी बातों के साथ-साथ हम अपने जीवन में इन चीजों को कैसे लाए उसके आधार पर हम इसको बढ़ावा दे सकते हैं। हमारे स्‍कूलों में, इन सब में किस प्रकार से एक माहौल बनाया जाए प्रकृति रक्षा, प्रकृति पूजा, प्रकृति संरक्षण यह सहज मानव प्रकृति का हिस्‍सा कैसे बने, उस दिशा में हमको जाना होगा। और हम वो लोग है जिनका व्‍येन तक्‍तेन मुंजिता। यही जिनके जीवन का आदर्श रहा है। जहां व्‍येन तक्‍तेन मुंजिता का आदर्श रहा हो, वहां पर हमें प्रकृति का शोषण करने का अधिकार नहीं है। हमें प्रकृति का दोहन करने से अधिक प्रकृति को उपयोग, दुरूपयोग करने का हक नहीं मिलता है। दुनिया में प्रकृत‍ि का शोषण ही प्रवृति है, भारत में प्रकृति को दोहन एक संस्‍कार है। शोषण ही हमारी प्रवृति नहीं है और इसलिए विश्‍व इस संकट से जो गुजर रहा है, मैं अभी भी मानता हूं कि दुनिया को इस क्षेत्र में बचाने के लिए नेतृत्‍व भारत ने करना चाहिए। और उस दिमाग से भारत ने अपनी योजनाएं बनानी चाहिए। दुनिया climate change के लिए हमें guide करे और हम दुनिया को follow करें। दुनिया parameter तय करे और हम दुनिया को follow करे, ऐसा नहीं है। सचमुच में इस विषय में हमारी हजारों साल से वो विरासत है, हम विश्‍व का नेतृत्‍व कर सकते हैं, हम विश्‍व का मार्गदर्शन कर सकते हैं और विश्‍व को इस संकट से बचाने के लिए भारत रास्‍ता प्रशस्‍त कर सकता है। इस विश्‍वास के साथ इस conference से हम निकल सकते हैं। हम दुनिया की बहुत बड़ी सेवा करेंगे। उस विजन के साथ हम अपनी व्‍यवस्‍थाओं के प्रति जो भी समयानुकूल हम बदलाव लाना है, हम बदलाव लाए। जैसे अभी अब यह तो हम नहीं कहेंगे..

अच्‍छा, कुछ लोगों ने मान लिया कि पर्यावरण की रक्षा और विकास दोनों कोई आमने-सामने है। यह सोच मूलभूत गलत है। दोनों को साथ-साथ चलाया जा सकता है। दोनों को साथ-साथ आगे बढ़ाया जा सकता है। कुछ do’s and don’ts होते हैं, इसका पालन होना चाहिए। अगर वो पालन होता है तो हम उसकी रखवाली भी करते हैं और उसके लिए कोई चीजें, जैसे अभी हमने कोयले की खदानें उसकी नीलामी की, लेकिन उसके साथ-साथ उनसे जो पहले राशि ली जाती थी environment protection के लिए वो चार गुना बढ़ा दी, क्‍योंकि वो एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा है। आवश्‍यक है तो वो भी बदलाव किया। हमारी यह कोशिश रहनी चाहिए कि हम इस प्रकार से बदलाव लाने की दिशा में कैसे प्रयास करे और अगर हम प्रयास करते तो परिणाम मिल सकता है। दूसरी बात है, ज्‍यादातर भ्रम हमारे यहां बहुत फैलाया जाता है। अभी Land Acquisition Bill की चर्चा हुई है। इस Land Acquisition Bill में कहीं पर भी एक भी शब्‍द वनवासियों की जमीन के संबंध में नहीं है, आदिवासियों की जमीन के संबंध में नहीं है, Forest Land के संबंध में नहीं है। वो जमीन, उसके मालिक, Land Acquisition bill के दायरे में आते ही नहीं है, लेकिन उसके बावजूद भी जिनको इन सारी चीजों की समझ नहीं है। वो चौबीसों घंटे चलाते रहते हैं। पता ही नहीं उनको कहीं उल्‍लेख तक नहीं है। उनको भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है। मैं समझता हूं कि समाज का गुमराह करने का इस प्रकार का प्रयास आपके लिए कोई छोटी बात होगी, आपके राजनीतिक उसूल होंगे लेकिन उसके कारण देश को कितना नुकसान होता है और कृपा करके ऐसे भ्रम फैलाना बंद होना चाहिए, सच्‍चाई की धरा पर पूरी debate होनी चाहिए। उसमें पक्ष विपक्ष हो सकता है, उसमें कुछ बुरा नहीं है, लोकतंत्र है। लेकिन आप जो सत्‍य कहना चाहते हो, उसमें दम नहीं है, इसलिए झूठ कहते रहो। इससे देश नहीं चलता है और इसलिए मैं विशेष रूप से वन विभाग से जुड़े हुए मंत्री और अधिकारी यहां उपस्थित हैं तो विशेष रूप से इस बात का उल्‍लेख करना चाहता हूं कि Land Acquisition Act के अंदर कहीं पर जंगल की जमीन, आदिवासियों की जमीन उसका कोई संबंध नहीं है। उस दायरे में वो आता नहीं है, हम सबको मालूम है कि उसका एक अलग कानून है, वो अलग कानूनों से protected है। इस कानून का उसके साथ कोई संबंध नहीं है, लेकिन झूठ फैलाया जा रहा है और इसलिए मैं चाहूंगा कि कम से कम और ऐसे मित्रों से प्रार्थना करूंगा कि देशहित में कम से कम ऐसे झूठ को बढ़ावा देने में आप शिकार न हो जाएं यह मेरा आग्रह रहेगा।

आज यह भी यहां बताया गया कि Tiger की संख्‍या बढ़ी है। करीब 40% वृद्धि हुई है। अच्‍छा लगता है सुनकर के वरना दुनिया में Tiger की संख्‍या कम होती जा रही है और दो-तिहाई संख्‍या हमारे पास ही है तो एक हमारा बहुत बड़ा गौरव है और यह गौरव मानवीय संस्‍कृति का भी द्योतक होता है। इन दोनों को जोड़कर हमें इस चीज का गौरव करना चाहिए। और विश्‍व को इस बात का परिचय होना चाहिए कि हम किस प्रकार की मानवीय संस्‍कृतियों को लेकर के जीते हैं कि जहां पर इतनी तेज गति से tiger की जनसंख्‍या का विकास हो रहा है। हमारे पूरब के इलाके में खासकर के हाथी को लेकर के रोज नई खबरें आती है। हा‍थी को लेकर के परेशानियां आती है। अभी मैं कोई एक science magazine पढ़ रहा था। बड़ी interesting चीज मैंने पहली बार पढ़ी, आप लोग तो शायद उसके जानकारी होगी। जब खेत में हाथियों का झुंड आ जाता है, तो बड़ी परेशानी रहती कैसे निकालना है, यह forest department के लोग भांति-भांति के सशत्र लेकर पहुंच जाते हैं और दो-दो दिन तक हो हल्‍ला हो जाता है। मैंने एक science magazine पढ़ा, कहीं पर लोगों ने प्रयोग किया है बड़ा ही Interesting प्रयोग लगा मुझे। वे अपने खेत के बाढ़ पर या पैड है उस पर Honey Bee को भी Developed करते हैं मधुमक्‍खी को रखते हैं और जब हाथी के झुंड आते हैं तो मधुमक्‍खी एक Special प्रकार की आवाज करती है और हाथी भाग जाता है। अब ये चीजे जो हैं कहीं न कहीं सफल हुई हैं आज भी शायद हमारे यहां हो सकता है कुछ इलाकों में करते भी होंगे। हमें इस प्रकार की व्‍यवस्‍थाओं को भी समझना होगा ताकि हमें हाथियों से संघर्ष करना पड़ सके। मानव और हाथी के बीच जो संघर्ष के जो समाचार आते हैं, उससे हम कैसे बचें। हम हाथी की भी देखभाल करें, अपने खेत की भी देखभाल कर सकें। अगर ऐसे सामान्‍य व्‍यवस्‍थाएं विकसित हो सकती है और अगर यह सत्‍य है तो मैंने कहीं पढ़ा था, लेकिन किसी प्रत्‍यक्ष मेरी किसान से बात हुई नहीं है लेकिन मैं कभी असम की तरफ जाऊंगा तो पूछूंगा सबसे बात करूंगा कि क्‍या है जानकारी लाने का प्रयास करूंगा मैं, लेकिन आपसे में उस दिशा में काम करने वाले जहां हाथी की जनसंख्‍या हैं और गांवों में कभी-कभी चली आती हैं तो उनके लिए शायद हो सकता है कि ये अगर इस प्रकार का प्रयोग हुआ हो तो यह काम आ सकता है। मेरा कहने का तात्‍पर्य यह है कि यह जगत सब समस्‍याओं से जुड़ा हुआ होगा हम ही पहली बार गुजर रहे हैं ऐसा थोड़ी है और हरेक ने अपने-अपने तरीके से उसके उपाय खोजे होंगे। उनको फिर से एक बार वैज्ञानिक तरीके से वैज्ञानिक तराजू से देखा जाए कि हम इन चीजों को कैसे फिर से एक बार प्रयोग में ला सकते हैं। थोड़ा उसे Modify करके उसे प्रयोग में ला सकते हैं। इन दिनों जब पर्यावरण की रक्षा की बात आती है, तो ज्‍यादातर कारखानें और ऊर्जा उसके आस-पास चर्चा रहती है। भारत उस अर्थ में ईश्‍वर की कृपा वाला राष्‍ट्र रहा है कि जिसके पास Maximum solar Radiation वाली संभावना वाला देश है। इसका हमें Maximum उपयोग कैसे करना है और इसलिए सरकार ने Initiative लिया है कि हम Solar Energy हम Wind Energy Biomass Energy उस पर कितना ज्‍यादा बल दें ताकि हम जो विश्‍व की चिंता है उसमें हम मशरूफ हों। लेकिन मजा देखिए, जो दुनिया Climate के लिए Lead करती है, दुनिया को पाठ पढ़ाती है अगर हम उनको कहें कि हम Nuclear Energy में आगे जाना चाहते हैं कि Nuclear Energy Environment protection का एक अच्‍छा रास्‍ता है और हम उनको जब कहते हैं कि Nuclear Energy के लिए आवश्‍यक Fuel दो तो मना कर देते हैं यानी हम दुनिया की इतनी बड़ी सेवा करना चाहते हैं लेकिन आप सेवा करों यह नियम पालन करो व‍ह नियम पालन करो। मैं दुनिया के सभी उस देशवासियों से यह निवेदन करना चाहूंगा कि भारत जैसा देश जिस प्रकार से नेतृत्‍व करने के लिए तैयार है Environment protection के लिए Civil Nuclear की तरफ हमारा बल है। हम Nuclear Energy पर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं, हम उसे करने के लिए तैयार हैं क्‍योंकि हमें पता है कि पर्यावरण की रक्षा में अच्‍छे सा अच्‍छा रास्‍तों में महत्‍वपूर्ण है। लेकिन वही लोग जो हमें Environment के लिए भाषण देते हैं वो Nuclear के लिए Fuel देने के लिए तैयार नहीं है। ये दो तराजू से दुनिया नहीं चल सकती है और इसलिए विश्‍व पर हमें भी यह दबाव पैदा करना पड़ेगा और मुझे विश्‍वास है कि आने वाले दिनों में यह दबाव दिखने वाला है, लोग अनुभव करेंगे हम Solar Energy की तरफ जा रहे हैं। Biomass की तरफ जा रहे हैं। लेकिन मैं Urban Bodies को कहना चाहूंगा अगर हम स्‍वच्‍छ भारत की चर्चा करें तो भी और अगर हम Environment की चर्चा करें तो भी। Waste Water & Solid waste Management की दिशा में हम लोंगों को आग्रहपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। Public Private Partnership Model को लेकर आगे बढ़ना चाहिए। Solid Waste Management की ओर हमने पूरा ध्‍यान देना चाहिए। और आज Waste Wealth का एक सबसे बड़ा Business है। Waste में से Wealth create करना एक बहुत बड़ा Entrepreneurship शुरू हुआ है। हम अपने Urban Bodies में इसको कैसे जोड़े। Urban Bodies में Waste में से Wealth को create पैदा करने में स्‍पेशल फोकस करें। और आप देखिए कि बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। एक छोटा सा प्रयोग है मैं Urban Bodies से आग्रह करूंगा मान लीजिए हम हिंदुस्‍तान में पांच सौ शहर पकड़े, जहां एक लाख से ज्‍यादा आबादी है और वहां पर हम तय करें अब देखिए आज जो शहर का कूड़ा-कचरा फेंकने के लिए जो जगह जमीन की जो जरूरत है हजारों एकड़ भूमि की जरूरत पड़ेगी अगर ये कचरों के ढेर करने हैं तो अब गमिल लाओंगे कहां से और अब जमीन नहीं हैं तो क्‍या मतलब है कि कूड़ा-कचरा पड़ा रहेगा क्‍या और इसलिए हमारे लिए उस पर Process करना Recycle करना Waste Management करना यह अनिवार्य हो गया है। अब वैज्ञानिक के तरीके उपलब्‍ध हैं अगर हम Urban Body Waste Water Treatment करें और पानी को ठीक करके अगर किसानों को वापिस दे वरना एक समय ऐसा आएगा शहर और गांव के बीच संघर्ष होगा पानी के लिए। गांव कहेगा कि मैं शहर को पानी नहीं देने दूंगा और शहर बिना पानी मरेगा। लेकिन जो अगर शहर पानी प्रयोग करता है उसको Recycle करके गांव को वापस दे देता है खेतों में तो यह संघर्ष की नौबत नहीं आएगी और एक प्रकार से Treated Water होगा तो Fertilizer की दृष्टि से उपयोग इस प्रकार से पानी को इस प्रकार से बनाकर दिया जा सकता है। और Urban Body जो होता है उसके गांव जो होते हैं वो ज्‍यादातर सब्‍जी की खेती करते हैं और वही सब्‍जी उनके शहर के अंदर बिकने के लिए आती हैं रोजमर्रा की उनकी आजीविका उससे चलती है। हम इन्‍हीं को Solid Waste Management करके Solid Waste में से हम मानव Fertilizer बनाएं और वो Fertilizer हम उनको दें तो Organic सब्‍जी शहर में आएगी कि नहीं आएगी। इतनी बड़ी मात्रा में अगर हम Fertilizer देते हैं शहरों के कूड़े-कचरों से बनाया हुआ तो अच्‍छी Quality का विपुल मात्रा में सब्‍जी शहर में आएगी तो सस्‍ती सब्‍जी मिलेगी या नहीं मिलेगी? सस्‍ती सब्‍जी गरीब से गरीब व्‍यक्ति खाएगा तो Nutrition के Problem का Solution होगा कि नहीं होगा। Vegetable Sufficient खाएगा तो Health सेक्‍टर का बजट कम होगा कि नहीं होगा। एक प्रयास कितने ओर चीजों पर इफैक्‍ट कर सकता है इसका अगर हम एक Integrated approach करें तो हम हमारे गांवों को भी बचा सकते हैं हमारे शहरों को भी बचा सकते हैं। कभी-कभार अज्ञान का भी कारण होता है। हमारे यहां देखा है कि फसल होने के बाद अब जैसे Cotton है Cotton लेने के बाद बाकी जो है उसको जला देते हैं। लेकिन उसी को अगर टुकड़े कर करके खेत में डाल दें तो वहीं चीज Nutrition के रूप में काम आती है Fertilizer के रूप में काम आती है। मैंने एक प्रयोग देखा था केले की खेती हमारे यहां हो रही थी तब केला उतारे के बाद केला देने की क्षमता जब कम हो जाती है तो वो जो पेड़ का हिस्‍सा होता है उसके टुकड़े कर कर के उन्‍हें जमीन में डाले और मैंने अनुभव किया कि उसके अंदर इतना Water Content होता है केले के Waste Part में कि 90 दिन तक आपको फसल को पानी नहीं देना पड़ता है वो उसी में से फसल पानी ले लेती है। अब हम थोड़ा सा इनका प्रयोग चीजों को सीखें, समझें। इसको अगर Popular करें तो हम पानी को भी बचा सकते हैं, फसल को भी बचा सकते हैं। हम चीजों को किस प्रकार से और इसके लिए बहुत बड़ा आधुनिक से आधुनिक बड़ा विज्ञान की जरूरत होती है ऐसा नहीं है। सहज समझ का विषय होता है इनको हम जितना आगे बढ़ाएंगे हम इन चीजों को कर सकते हैं। Urban Body आग्रहपूर्वक Public Private Partnership Model उसमें Vibrating Gap funding का भी रास्‍ता निकल सकता है। आप जो इन Waste खेतों के किसानों को उसके कारण अगर Chemical Fertilizer का उपयोग कम होता है तो Chemical Fertilizer में से जो सब्सिडी बचेगी मैं आपको विश्‍वास दिलाता हूं वो सब्सिडी जो बचेगी वो Vibrating Gap Funding के लिए शहरों को दे देंगे, यानी आपके देश में से Wealth Create होगी और जो आप खाद्य तैयार करोगे वो खाद्य उपयोग करने के कारण Chemical Fertilizer की सब्सिडी बचेगी वो आपको मिलेगी। आप गैस पैदा करोगे, गैस दोगो तो जितनी मात्रा में गैसा पैदा करोगे जो गैस सिलेंडर की जो सब्सिडी है वो बचेगी तो वो सब्सिडी हम आपको Transfer करेंगे आपके Vibrating Gap Funding में काम आएगी। हम एक उसका Finance का Model कर सकते हैं, लेकिन भारत सरकार, राज्‍य सरकार और Local Self Government ये तीनों मिल करके हम Environment को Priority देते हुए हमारे नगरों को स्‍वच्‍छ रखते हुए, वहां के कूड़े-कचरे को Waste में Wealth Create करें और बहुत Entrepreneur मिले हैं। उनको हम कैसे प्रयोग में हम करें मैंने एक जगह देखा है जहां पर Waste में से ईंटे बना रहे हैं और इतनी बढि़या ईंटे मजबूत बन रही हैं कि बहुत काम आ रही है। आपने देखा होगा पहले जहां पर बिजली के थर्मल प्‍लांट हुआ करते थे वहां पर बाहर कोयले की Ash जो होता है उसके ढेर लगे रहते थे। आज Recycle और Chemical में से ईंटे बनने के कारण सीमेंट में उपयोग आने के कारण वो निकलते ही Contract हो जाता है और दो-दो साल का Contract और निकलते ही हम उठाएंगे यानी कि जो किसी पर्यावरण को बिगाड़ने के लिए संकट था वो ही आज Property में Convert हो गया है हम थोड़ा इस दिशा में प्रयास करें, initiative लें, हम इसमें काफी मदद कर सकते हैं और मेरा सबसे आग्रह है कि हम इन चीजों को बल मानते हुए आने वाले दिशों में दो दिन जब आप चर्चा करेंगे। गंगा की सफाई उसके साथ जुड़ा हुआ है गंगा के किनारे पर रहने वाले, गंगा किनारे के गांव और शहर मैं उन संबंधित राज्‍य सरकारों से आग्रह करूंगा इसमें कोई Comprise मत कीजिए। बैंकों से हम आग्रह करेंगे उनको हम कम दर से लोन दें। लेकिन Approved Plant उनमें वो लगाये जाएं Sewerage Treatment plant किये जाएं। एक बार हमने सफलतापूर्वक ढाई हजार किलोमीटर लम्‍बी गंगा के अंदर जाने वाले प्रदूषण को रोक लिया पूरे दुनिया के सामने और पूरे हिंदुस्‍तान के सामने एक नया विश्‍वास पैदा कर सकता है कि हम सामान्‍य अपने तौर तरीकों से पर्यावरण की सुरक्षा कर सकते हैं। यह विश्‍वास पैदा करने के लिए Model की तरह इस काम को खड़ा करना और ये एक बार काम खड़ा हो गया तो और काम अपने आप खड़े हो जाएंगे। एक विश्‍वास पैदा करने की आवश्‍यकता है और किया जा सकता है। एक बार हम किसी चीज को हाथ लगाएं पीछे लग जाएं परिणाम मिल सकता है और मैं चाहूंगा ज्‍यादातर इन पांच राज्‍यों से कि जो गंगा के किनारे की उनकी जिम्‍मेवारी है छह हजार के करीब गांव है, एक सौ 18000 किलोमीटर हैं कोई आठ सौ के करीब Industries हैं जो Pollution के लिए तैयार है इसको Target करते हुए एक बार गंगा के किनारे पर हम तय कर ले वहां से कोई भी दूषित पानी या कूड़ा-कचरा गंगा में जाने नहीं देंगे। आप देखिए अपने आप में बदलाव शुरू हो जाएगा। फिर तो गंगा की अपनी ताकत भी है खुद को साफ रखने की। और वो हमने आगे निकल जाएगी लेकिन हम तय करे कि हम गंदा नहीं करेंगे तो गंगा को साफ करने के लिए तो हमें गंदा नहीं करना पड़ेगा गंगा अपना खुद कर सकती है। लेकिन हम गंदा न करे इतना तो संकल्‍प करना पड़ेगा और उस काम को ले करके आप जब यहां पर बैठे है जो गंगा किनारे को जो इस विभाग के मंत्री हैं वो विशेष रूप से आधा-पौना घंटा बैठ करके उन चीजों को कैसे आगे बढ़ाया जाए। विशेष रूप से चर्चा करें मेरा आग्रह रहेगा फिर एक बार मैं इस प्रयास का स्‍वागत करता हूं और मुझे विश्‍वास है कि इस सपने के साथ फिर एक बार मैं दोहराता हूं ये एक ऐसा विषय है जो हमारी बपौती है, हमारा डीएनए है। हमारे पूर्वजों ने इन मानव जाति की बहुत बड़ी सेवा की है। विश्‍व का नेतृत्‍व हमारे पास ही होना चाहिए Climate के मुद्दे पर ये मिजाज होना चाहिए। पूरे विश्‍व को हम दिखा सकते हैं कि यह हमारा विषय है। हमारी परंपरा है। दुनिया को हम सीखा सकते हैं इतनी ताकत के साथ हम यहां से निकले यही अपेक्षा के साथ बहुत-बहुत शुभकामनाएं धन्‍यवाद।

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वंदेमातरम् ने उस विचार को पुनर्जीवित किया, जो हजारों वर्षों से भारतवर्ष की रग-रग में रचा-बसा था:लोकसभा में पीएम मोदी
December 08, 2025
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल दिया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होते देखना हम सभी के लिए गर्व की बात है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम वह शक्ति है जो हमें, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित करती है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने भारत में हजारों वर्षों से गहराई से जड़ें जमाए विचार को फिर से जागृत किया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम में हजारों वर्षों की सांस्कृतिक ऊर्जा भी समाहित होने के साथ-साथ स्वतंत्रता का उत्साह और स्वतंत्र भारत का दृष्टिकोण भी शामिल था
प्रधानमंत्री ने कहा- लोगों के साथ वंदे मातरम का गहरा सम्‍बंध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की यात्रा को दर्शाता है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल और दिशा दी
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के सर्वव्यापी मंत्र ने स्वतंत्रता, त्याग, शक्ति, पवित्रता, समर्पण और लचीलेपन को प्रेरित किया

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आपका और सदन के सभी माननीय सदस्यों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं कि हमने इस महत्वपूर्ण अवसर पर एक सामूहिक चर्चा का रास्ता चुना है, जिस मंत्र ने, जिस जय घोष ने देश की आजादी के आंदोलन को ऊर्जा दी थी, प्रेरणा दी थी, त्याग और तपस्या का मार्ग दिखाया था, उस वंदे मातरम का पुण्य स्मरण करना, इस सदन में हम सब का यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। और हमारे लिए गर्व की बात है कि वंदे मातरम के 150 वर्ष निमित्त, इस ऐतिहासिक अवसर के हम साक्षी बना रहे हैं। एक ऐसा कालखंड, जो हमारे सामने इतिहास के अनगिनत घटनाओं को अपने सामने लेकर के आता है। यह चर्चा सदन की प्रतिबद्धता को तो प्रकट करेगी ही, लेकिन आने वाली पीढियां के लिए भी, दर पीढ़ी के लिए भी यह शिक्षा का कारण बन सकती है, अगर हम सब मिलकर के इसका सदुपयोग करें तो।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह एक ऐसा कालखंड है, जब इतिहास के कई प्रेरक अध्याय फिर से हमारे सामने उजागर हुए हैं। अभी-अभी हमने हमारे संविधान के 75 वर्ष गौरवपूर्व मनाए हैं। आज देश सरदार वल्लभ भाई पटेल की और भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती भी मना रहा है और अभी-अभी हमने गुरु तेग बहादुर जी का 350वां बलिदान दिवस भी बनाया है और आज हम वंदे मातरम की 150 वर्ष निमित्त सदन की एक सामूहिक ऊर्जा को, उसकी अनुभूति करने का प्रयास कर रहे हैं। वंदे मातरम 150 वर्ष की यह यात्रा अनेक पड़ावों से गुजरी है।

लेकिन आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम को जब 50 वर्ष हुए, तब देश गुलामी में जीने के लिए मजबूर था और वंदे मातरम के 100 साल हुए, तब देश आपातकाल की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। जब वंदे मातरम 100 साल के अत्यंत उत्तम पर्व था, तब भारत के संविधान का गला घोट दिया गया था। जब वंदे मातरम 100 साल का हुआ, तब देशभक्ति के लिए जीने-मरने वाले लोगों को जेल के सलाखों के पीछे बंद कर दिया गया था। जिस वंदे मातरम के गीत ने देश को आजादी की ऊर्जा दी थी, उसके जब 100 साल हुए, तो दुर्भाग्य से एक काला कालखंड हमारे इतिहास में उजागर हो गया। हम लोकतंत्र के (अस्पष्ट) गिरोह में थे।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

150 वर्ष उस महान अध्याय को, उस गौरव को पुनः स्थापित करने का अवसर है और मैं मानता हूं, सदन ने भी और देश ने भी इस अवसर को जाने नहीं देना चाहिए। यही वंदे मातरम है, जिसने 1947 में देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता संग्राम का भावनात्मक नेतृत्व इस वंदे मातरम के जयघोष में था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

आपके समक्ष आज जब मैं वंदे मातरम 150 निमित्त चर्चा के लिए आरंभ करने खड़ा हुआ हूं। यहां कोई पक्ष प्रतिपक्ष नहीं है, क्योंकि हम सब यहां जो बैठे हैं, एक्चुअली हमारे लिए ऋण स्वीकार करने का अवसर है कि जिस वंदे मातरम के कारण लक्ष्यावादी लोग आजादी का आंदोलन चला रहे थे और उसी का परिणाम है कि आज हम सब यहां बैठे हैं और इसलिए हम सभी सांसदों के लिए, हम सभी जनप्रतिनिधियों के लिए वंदे मातरम के ऋण स्वीकार करने का यह पावन पर्व है। और इससे हम प्रेरणा लेकर के वंदे मातरम की जिस भावना ने देश की आजादी का जंग लड़ा, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम पूरा देश एक स्वर से वंदे मातरम बोलकर आगे बढ़ा, फिर से एक बार अवसर है कि आओ, हम सब मिलकर चलें, देश को साथ लेकर चलें, आजादी का दीवानों ने जो सपने देखे थे, उन सपनों को पूरा करने के लिए वंदे मातरम 150 हम सब की प्रेरणा बने, हम सब की ऊर्जा बने और देश आत्मनिर्भर बने, 2047 में विकसित भारत बनाकर के हम रहें, इस संकल्प को दोहराने के लिए यह वंदे मातरम हमारे लिए एक बहुत बड़ा अवसर है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

दादा तबीयत तो ठीक है ना! नहीं कभी-कभी इस उम्र में हो जाता है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम की इस यात्रा की शुरुआत बंकिम चंद्र जी ने 1875 में की थी और गीत ऐसे समय लिखा गया था, जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज सल्तनत बौखलाई हुई थी। भारत पर भांति-भांति के दबाव डाल रहे थी, भांति-भांति के ज़ुल्म कर रही थी और भारत के लोगों को मजबूर किया जा रहा था अंग्रेजों के द्वारा और उस समय उनका जो राष्ट्रीय गीत था, God Save The Queen, इसको भारत में घर-घर पहुंचाने का एक षड्यंत्र चल रहा था। ऐसे समय बंकिम दा ने चुनौती दी और ईट का जवाब पत्थर से दिया और उसमें से वंदे मातरम का जन्म हुआ। इसके कुछ वर्ष बाद, 1882 में जब उन्होंने आनंद मठ लिखा, तो उस गीत का उसमें समावेश किया गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने उस विचार को पुनर्जीवित किया था, जो हजारों वर्ष से भारत की रग-रग में रचा-बसा था। उसी भाव को, उसी संस्कारों को, उसी संस्कृति को, उसी परंपरा को उन्होंने बहुत ही उत्तम शब्दों में, उत्तम भाव के साथ, वंदे मातरम के रूप में हम सबको बहुत बड़ी सौगात दी थी। वंदे मातरम, यह सिर्फ केवल राजनीतिक आजादी की लड़ाई का मंत्र नहीं था, सिर्फ हम अंग्रेज जाएं और हम खड़े हो जाएं, अपनी राह पर चलें, इतनी मात्र तक वंदे मातरम प्रेरित नहीं करता था, वो उससे कहीं आगे था। आजादी की लड़ाई इस मातृभूमि को मुक्त कराने का भी जंग था। अपनी मां भारती को उन बेड़ियों से मुक्ति दिलाने का एक पवित्र जंग था और वंदे मातरम की पृष्ठभूमि हम देखें, उसके संस्कार सरिता देखें, तो हमारे यहां वेद काल से एक बात बार-बार हमारे सामने आई है। जब वंदे मातरम कहते हैं, तो वही वेद काल की बात हमें याद आती है। वेद काल से कहा गया है "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" अर्थात यह भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यही वह विचार है, जिसको प्रभु श्री राम ने भी लंका के वैभव को छोड़ते हुए कहा था "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। वंदे मातरम, यही महान सांस्कृतिक परंपरा का एक आधुनिक अवतार है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंकिम दा ने जब वंदे मातरम की रचना की, तो स्वाभाविक ही वह स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर बन गया। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण वंदे, मातरम हर भारतीय का संकल्प बन गया। इसलिए वंदे मातरम की स्‍तुति में लिखा गया था, “मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, स्वार्थ का बलिदान है, ये शब्द हैं वंदे मातरम, है सजीवन मंत्र भी, यह विश्व विजयी मंत्र भी, शक्ति का आह्वान है, यह शब्द वंदे मातरम। उष्ण शोणित से लिखो, वक्‍तस्‍थलि को चीरकर वीर का अभिमान है, यह शब्द वंदे मातरम।”

आदरणीय अध्यक्ष जी,

कुछ दिन पूर्व, जब वंदे मातरम 150 का आरंभ हो रहा था, तो मैंने उस आयोजन में कहा था, वंदे मातरम हजारों वर्ष की सांस्‍कृतिक ऊर्जा भी थी। उसमें आजादी का जज्बा भी था और आजाद भारत का विजन भी था। अंग्रेजों के उस दौर में एक फैशन हो गई थी, भारत को कमजोर, निकम्मा, आलसी, कर्महीन इस प्रकार भारत को जितना नीचा दिखा सकें, ऐसी एक फैशन बन गई थी और उसमें हमारे यहां भी जिन्होंने तैयार किए थे, वह लोग भी वही भाषा बोलते थे। तब बंकिम दा ने उस हीन भावना को भी झंकझोरने के लिए और सामर्थ्य का परिचय कराने के लिए, वंदे मातरम के भारत के सामर्थ्यशाली रूप को प्रकट करते हुए, आपने लिखा था, त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,कमला कमलदलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी। नमामि त्वां नमामि कमलाम्, अमलाम् अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥ अर्थात भारत माता ज्ञान और समृद्धि की देवी भी हैं और दुश्मनों के सामने अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली चंडी भी हैं।

अध्यक्ष जी,

यह शब्द, यह भाव, यह प्रेरणा, गुलामी की हताशा में हम भारतीयों को हौसला देने वाले थे। इन वाक्यों ने तब करोड़ों देशवासियों को यह एहसास कराया की लड़ाई किसी जमीन के टुकड़े के लिए नहीं है, यह लड़ाई सिर्फ सत्ता के सिंहासन को कब्जा करने के लिए नहीं है, यह गुलामी की बेड़ियों को मुक्त कर हजारों साल की महान जो परंपराएं थी, महान संस्कृति, जो गौरवपूर्ण इतिहास था, उसको फिर से पुनर्जन्म कराने का संकल्प इसमें है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम, इसका जो जन-जन से जुड़ाव था, यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के एक लंबी गाथा अभिव्यक्त होती है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

जब भी जैसे किसी नदी की चर्चा होती है, चाहे सिंधु हो, सरस्वती हो, कावेरी हो, गोदावरी हो, गंगा हो, यमुना हो, उस नदी के साथ एक सांस्कृतिक धारा प्रवाह, एक विकास यात्रा का धारा प्रवाह, एक जन-जीवन की यात्रा का प्रवाह, उसके साथ जुड़ जाता है। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि आजादी जंग के हर पड़ाव, वो पूरी यात्रा वंदे मातरम की भावनाओं से गुजरता था। उसके तट पर पल्लवित होता था, ऐसा भाव काव्य शायद दुनिया में कभी उपलब्ध नहीं होगा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

अंग्रेज समझ चुके थे कि 1857 के बाद लंबे समय तक भारत में टिकना उनके लिए मुश्किल लग रहा था और जिस प्रकार से वह अपने सपने लेकर के आए थे, तब उनको लगा कि जब तक, जब तक भारत को बाटेंगे नहीं, जब तक भारत को टुकडों में नहीं बाटेंगे, भारत में ही लोगों को एक-दूसरे से लड़ाएंगे नहीं, तब तक यहां राज करना मुश्किल है और अंग्रेजों ने बाटों और राज करो, इस रास्ते को चुना और उन्होंने बंगाल को इसकी प्रयोगशाला बनाया क्यूंकि अंग्रेज़ भी जानते थे, वह एक वक्त था जब बंगाल का बौद्धिक सामर्थ्‍य देश को दिशा देता था, देश को ताकत देता था, देश को प्रेरणा देता था और इसलिए अंग्रेज भी चाहते थे कि बंगाल का यह जो सामर्थ्‍य है, वह पूरे देश की शक्ति का एक प्रकार से केंद्र बिंदु है। और इसलिए अंग्रेजों ने सबसे पहले बंगाल के टुकड़े करने की दिशा में काम किया। और अंग्रेजों का मानना था कि एक बार बंगाल टूट गया, तो यह देश भी टूट जाएगा और वो यावच चन्द्र-दिवाकरौ राज करते रहेंगे, यह उनकी सोच थी। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, लेकिन जब अंग्रेजों ने 1905 में यह पाप किया, तो वंदे मातरम चट्टान की तरह खड़ा रहा। बंगाल की एकता के लिए वंदे मातरम गली-गली का नाद बन गया था और वही नारा प्रेरणा देता था। अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन के साथ ही भारत को कमजोर करने के बीज और अधिक बोने की दिशा पकड़ ली थी, लेकिन वंदे मातरम एक स्वर, एक सूत्र के रूप में अंग्रेजों के लिए चुनौती बनता गया और देश के लिए चट्टान बनता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंगाल का विभाजन तो हुआ, लेकिन एक बहुत बड़ा स्वदेशी आंदोलन खड़ा हुआ और तब वंदे मातरम हर तरफ गूंज रहा था। अंग्रेज समझ गए थे कि बंगाल की धरती से निकला, बंकिम दा का यह भाव सूत्र, बंकित बाबू बोलें अच्छा थैंक यू थैंक यू थैंक यू आपकी भावनाओं का मैं आदर करता हूं। बंकिम बाबू ने, बंकिम बाबू ने थैंक यू दादा थैंक यू, आपको तो दादा कह सकता हूं ना, वरना उसमें भी आपको ऐतराज हो जाएगा। बंकिम बाबू ने यह जो भाव विश्व तैयार किया था, उनके भाव गीत के द्वारा, उन्होंने अंग्रेजों को हिला दिया और अंग्रेजों ने देखिए कितनी कमजोरी होगी और इस गीत की ताकत कितनी होगी, अंग्रेजों ने उसको कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। गाने पर सजा, छापने पर सजा, इतना ही नहीं, वंदे मातरम शब्द बोलने पर भी सजा, इतने कठोर कानून लागू कर दिए गए थे। हमारे देश की आजादी के आंदोलन में सैकड़ों महिलाओं ने नेतृत्व किया, लक्ष्यावधि महिलाओं ने योगदान दिया। एक घटना का मैं जिक्र करना चाहता हूं, बारीसाल, बारीसाल में वंदे मातरम गाने पर सर्वाधिक जुल्म हुए थे। वो बारीसाल आज भारत का हिस्सा नहीं रहा है और उस समय बारीसाल के हमारे माताएं, बहने, बच्चे मैदान उतरे थे, वंदे मातरम के स्वाभिमान के लिए, इस प्रतिबंध के विरोध में लड़ाई के मैदान में उतरी थी और तब बारीसाल कि यह वीरांगना श्रीमती सरोजिनी घोष, जिन्होंने उस जमाने में वहां की भावनाओं को देखिए और उन्होंने कहा था की वंदे मातरम यह जो प्रतिबंध लगा है, जब तक यह प्रतिबंध नहीं हटता है, मैं अपनी चूड़ियां जो पहनती हूं, वो निकाल दूंगी। भारत में वह एक जमाना था, चूड़ी निकालना यानी महिला के जीवन की एक बहुत बड़ी घटना हुआ करती थी, लेकिन उनके लिए वंदे मातरम वह भावना थी, उन्होंने अपनी सोने की चूड़ियां, जब तक वंदे मातरम प्रतिबंध नहीं हटेगा, मैं दोबारा नहीं धारण करूंगी, ऐसा बड़ा व्रत ले लिया था। हमारे देश के बालक भी पीछे नहीं रहे थे, उनको कोड़े की सजा होती थी, छोटी-छोटी उम्र में उनको जेल में बंद कर दिया जाता था और उन दिनों खास करके बंगाल की गलियों में लगातार वंदे मातरम के लिए प्रभात फेरियां निकलती थी। अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था और उस समय एक गीत गूंजता था बंगाल में जाए जाबे जीवोनो चोले, जाए जाबे जीवोनो चोले, जोगोतो माझे तोमार काँधे वन्दे मातरम बोले (In Bengali) अर्थात हे मां संसार में तुम्हारा काम करते और वंदे मातरम कहते जीवन भी चला जाए, तो वह जीवन भी धन्य है, यह बंगाल की गलियों में बच्चे कह रहे थे। यह गीत उन बच्चों की हिम्मत का स्वर था और उन बच्चों की हिम्मत ने देश को हिम्मत दी थी। बंगाल की गलियों से निकली आवाज देश की आवाज बन गई थी। 1905 में हरितपुर के एक गांव में बहुत छोटी-छोटी उम्र के बच्चे, जब वंदे मातरम के नारे लगा रहे थे, अंग्रेजों ने बेरहमी से उन पर कोड़े मारे थे। हर एक प्रकार से जीवन और मृत्यु के बीच लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। इतना अत्याचार हुआ था। 1906 में नागपुर में नील सिटी हाई स्कूल के उन बच्चों पर भी अंग्रेजों ने ऐसे ही जुल्म किए थे। गुनाह यही था कि वह एक स्वर से वंदे मातरम बोल करके खड़े हो गए थे। उन्होंने वंदे मातरम के लिए, मंत्र का महात्म्य अपनी ताकत से सिद्ध करने का प्रयास किया था। हमारे जांबाज सपूत बिना किसी डर के फांसी के तख्त पर चढ़ते थे और आखिरी सांस तक वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम, यही उनका भाव घोष रहता था। खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामकृष्ण विश्वास अनगिनत जिन्होंने वंदे मातरम कहते-कहते फांसी के फंदे को अपने गले पर लगाया था। लेकिन देखिए यह अलग-अलग जेलों में होता था, अलग-अलग इलाकों में होता था। प्रक्रिया करने वाले चेहरे अलग थे, लोग अलग थे। जिन पर जुल्म हो रहा था, उनकी भाषा भी अलग थी, लेकिन एक भारत, श्रेष्ठ भारत, इन सबका मंत्र एक ही था, वंदे मातरम। चटगांव की स्वराज क्रांति जिन युवाओं ने अंग्रेजों को चुनौती दी, वह भी इतिहास के चमकते हुए नाम हैं। हरगोपाल कौल, पुलिन विकाश घोष, त्रिपुर सेन इन सबने देश के लिए अपना बलिदान दिया। मास्टर सूर्य सेन को 1934 में जब फांसी दी गई, तब उन्होंने अपने साथियों को एक पत्र लिखा और पत्र में एक ही शब्द की गूंज थी और वह शब्द था वंदे मातरम।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

हम देशवासियों को गर्व होना चाहिए, दुनिया के इतिहास में कहीं पर भी ऐसा कोई काव्य नहीं हो सकता, ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो सदियों तक एक लक्ष्य के लिए कोटि-कोटि जनों को प्रेरित करता हो और जीवन आहूत करने के लिए निकल पड़ते हों, दुनिया में ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो वंदे मातरम है। पूरे विश्व को पता होना चाहिए कि गुलामी के कालखंड में भी ऐसे लोग हमारे यहां पैदा होते थे, जो इस प्रकार के भाव गीत की रचना कर सकते थे। यह विश्व के लिए अजूबा है, हमें गर्व से कहना चाहिए, तो दुनिया भी मनाना शुरू करेगी। यह हमारी स्वतंत्रता का मंत्र था, यह बलिदान का मंत्र था, यह ऊर्जा का मंत्र था, यह सात्विकता का मंत्र था, यह समर्पण का मंत्र था, यह त्याग और तपस्या का मंत्र था, संकटों को सहने का सामर्थ्य देने का यह मंत्र था और वह मंत्र वंदे मातरम था। और इसलिए गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, उन्होंने लिखा था, एक कार्ये सोंपियाछि सहस्र जीवन—वन्दे मातरम् (In Bengali) अर्थात एक सूत्र में बंधे हुए सहस्त्र मन, एक ही कार्य में अर्पित सहस्त्र जीवन, वंदे मातरम। यह रविंद्रनाथ टैगोर जी ने लिखा था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

उसी कालखंड में वंदे मातरम की रिकॉर्डिंग दुनिया के अलग-अलग भागों में पहुंची और लंदन में जो क्रांतिकारियों की एक प्रकार से तीर्थ भूमि बन गया था, वह लंदन का इंडिया हाउस वीर सावरकर जी ने वहां वंदे मातरम गीत गाया और वहां यह गीत बार-बार गूंजता था। देश के लिए जीने-मरने वालों के लिए वह एक बहुत बड़ा प्रेरणा का अवसर रहता था। उसी समय विपिन चंद्र पाल और महर्षि अरविंद घोष, उन्होंने अखबार निकालें, उस अखबार का नाम भी उन्होंने वंदे मातरम रखा। यानी डगर-डगर पर अंग्रेजों के नींद हराम करने के लिए वंदे मातरम काफी हो जाता था और इसलिए उन्होंने इस नाम को रखा। अंग्रेजों ने अखबारों पर रोक लगा दी, तो मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में एक अखबार निकाला और उसका नाम उन्होंने वंदे मातरम रखा!

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने भारत को स्वावलंबन का रास्ता भी दिखाया। उस समय माचिस के डिबिया, मैच बॉक्स, वहां से लेकर के बड़े-बड़े शिप उस पर भी वंदे मातरम लिखने की परंपरा बन गई और बाहरी कंपनियों को चुनौती देने का एक माध्यम बन गया, स्वदेशी का एक मंत्र बन गया। आजादी का मंत्र स्वदेशी के मंत्र की तरह विस्तार होता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

मैं एक और घटना का जिक्र भी करना चाहता हूं। 1907 में जब वी ओ चिदंबरम पिल्लई, उन्होंने स्वदेशी कंपनी का जहाज बनाया, तो उस पर भी लिखा था वंदेमातरम। राष्ट्रकवि सुब्रमण्यम भारती ने वंदे मातरम को तमिल में अनुवाद किया, स्तुति गीत लिखे। उनके कई तमिल देशभक्ति गीतों में वंदे मातरम की श्रद्धा साफ-साफ नजर आती है। शायद सभी लोगों को लगता है, तमिलनाडु के लोगों को पता हो, लेकिन सभी लोगों को यह बात का पता ना हो कि भारत का ध्वज गीत वी सुब्रमण्यम भारती ने ही लिखा था। उस ध्वज गीत का वर्णन जिस पर वंदे मातरम लिखा हुआ था, तमिल में इस ध्वज गीत का शीर्षक था। Thayin manikodi pareer, thazhndu panintu Pukazhnthida Vareer! (In Tamil) अर्थात देश प्रेमियों दर्शन कर लो, सविनय अभिनंदन कर लो, मेरी मां की दिव्य ध्वजा का वंदन कर लो।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आज इस सदन में वंदे मातरम पर महात्मा गांधी की भावनाएं क्या थी, वह भी रखना चाहता हूं। दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी, इंडियन ओपिनियन और और इस इंडियन ओपिनियन में महात्मा गांधी ने 2 दिसंबर 1905 जो लिखा था, उसको मैं कोट कर रहा हूं। उन्होंने लिखा था, महात्मा गांधी ने लिखा था, “गीत वंदे मातरम जिसे बंकिम चंद्र ने रचा है, पूरे बंगाल में अत्यंत लोकप्रिय हो गया है, स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल में विशाल सभाएं हुईं, जहां लाखों लोग इकट्ठा हुए और बंकिम का यह गीत गाया।” गांधी जी आगे लिखते हैंं, यह बहुत महत्वपूर्ण है, वह लिखते हैं यह 1905 की बात है। उन्होंने लिखा, “यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया है, जैसे यह हमारा नेशनल एंथम बन गया है। इसकी भावनाएं महान हैं और यह अन्य राष्ट्रों के गीतों से अधिक मधुर है। इसका एकमात्र उद्देश्य हम में देशभक्ति की भावना जगाना है। यह भारत को मां के रूप में देखता है और उसकी स्तुति करता है।”

अध्यक्ष जी,

जो वंदे मातरम 1905 में महात्मा गांधी को नेशनल एंथम के रूप में दिखता था, देश के हर कोने में, हर व्यक्ति के जीवन में, जो भी देश के लिए जीता-जागता, जिस देश के लिए जागता था, उन सबके लिए वंदे मातरम की ताकत बहुत बड़ी थी। वंदे मातरम इतना महान था, जिसकी भावना इतनी महान थी, तो फिर पिछली सदी में इसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों हुआ? वंदे मातरम के साथ विश्वासघात क्यों हुआ? यह अन्याय क्यों हुआ? वह कौन सी ताकत थी, जिसकी इच्छा खुद पूज्‍य बापू की भावनाओं पर भी भारी पड़ गई? जिसने वंदे मातरम जैसी पवित्र भावना को भी विवादों में घसीट दिया। मैं समझता हूं कि आज जब हम वंदे मातरम के 150 वर्ष का पर्व बना रहे हैं, यह चर्चा कर रहे हैं, तो हमें उन परिस्थितियों को भी हमारी नई पीडिया को जरूर बताना हमारा दायित्व है। जिसकी वजह से वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया गया। वंदे मातरम के प्रति मुस्लिम लीग की विरोध की राजनीति तेज होती जा रही थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने लखनऊ से 15 अक्टूबर 1937 को वंदे मातरम के विरुद्ध का नारा बुलंद किया। फिर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को अपना सिंहासन डोलता दिखा। बजाय कि नेहरू जी मुस्लिम लीग के आधारहीन बयानों को तगड़ा जवाब देते, करारा जवाब देते, मुस्लिम लीग के बयानों की निंदा करते और वंदे मातरम के प्रति खुद की भी और कांग्रेस पार्टी की भी निष्ठा को प्रकट करते, लेकिन उल्टा हुआ। वो ऐसा क्यों कर रहे हैं, वह तो पूछा ही नहीं, न जाना, लेकिन उन्होंने वंदे मातरम की ही पड़ताल शुरू कर दी। जिन्ना के विरोध के 5 दिन बाद ही 20 अक्टूबर को नेहरू जी ने नेताजी सुभाष बाबू को चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी में जिन्ना की भावना से नेहरू जी अपनी सहमति जताते हुए कि वंदे मातरम भी यह जो उन्होंने सुभाष बाबू को लिखा है, वंदे मातरम की आनंद मठ वाली पृष्ठभूमि मुसलमानों को इरिटेट कर सकती है। मैं नेहरू जी का क्वोट पढ़ता हूं, नेहरू जी कहते हैं “मैंने वंदे मातरम गीत का बैकग्राउंड पड़ा है।” नेहरू जी फिर लिखते हैं, “मुझे लगता है कि यह जो बैकग्राउंड है, इससे मुस्लिम भड़केंगे।”

साथियों,

इसके बाद कांग्रेस की तरफ से बयान आया कि 26 अक्टूबर से कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक कोलकाता में होगी, जिसमें वंदे मातरम के उपयोग की समीक्षा की जाएगी। बंकिम बाबू का बंगाल, बंकिम बाबू का कोलकाता और उसको चुना गया और वहां पर समीक्षा करना तय किया। पूरा देश हतप्रभ था, पूरा देश हैरान था, पूरे देश में देशभक्तों ने इस प्रस्ताव के विरोध में देश के कोने-कोने में प्रभात फेरियां निकालीं, वंदे मातरम गीत गाया लेकिन देश का दुर्भाग्य कि 26 अक्टूबर को कांग्रेस ने वंदे मातरम पर समझौता कर लिया। वंदे मातरम के टुकड़े करने के फैसले में वंदे मातरम के टुकड़े कर दिए। उस फैसले के पीछे नकाब ये पहना गया, चोला ये पहना गया, यह तो सामाजिक सद्भाव का काम है। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए और मुस्लिम लीग के दबाव में किया और कांग्रेस का यह तुष्टीकरण की राजनीति को साधने का एक तरीका था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

तुष्टीकरण की राजनीति के दबाव में कांग्रेस वंदे मातरम के बंटवारे के लिए झुकी, इसलिए कांग्रेस को एक दिन भारत के बंटवारे के लिए झुकना पड़ा। मुझे लगता है, कांग्रेस ने आउटसोर्स कर दिया है। दुर्भाग्य से कांग्रेस के नीतियां वैसी की वैसी ही हैं और इतना ही नहीं INC चलते-चलते MMC हो गया है। आज भी कांग्रेस और उसके साथी और जिन-जिन के नाम के साथ कांग्रेस जुड़ा हुआ है सब, वंदे मातरम पर विवाद खड़ा करने की कोशिश करते हैं।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके जीवटता उसके अच्छे कालखंड से ज्यादा, जब चुनौतियों का कालखंड होता है, जब संकटों का कालखंड होता है, तब प्रकट होती हैं, उजागर होती हैं और सच्‍चे अर्थ में कसौटी से कसी जाती हैं। जब कसौटी का काल आता है, तब ही यह सिद्ध होता है कि हम कितने दृढ़ हैं, कितने सशक्त हैं, कितने सामर्थ्यवान हैं। 1947 में देश आजाद होने के बाद देश की चुनौतियां बदली, देश के प्राथमिकताएं बदली, लेकिन देश का चरित्र, देश की जीवटता, वही रही, वही प्रेरणा मिलती रही। भारत पर जब-जब संकट आए, देश हर बार वंदे मातरम की भावना के साथ आगे बढ़ा। बीच का कालखंड कैसा गया, जाने दो। लेकिन आज भी 15 अगस्त, 26 जनवरी की जब बात आती है, हर घर तिरंगा की बात आती है, चारों तरफ वो भाव दिखता है। तिरंगे झंडे फहरते हैं। एक जमाना था, जब देश में खाद्य का संकट आया, वही वंदे मातरम का भाव था, मेरे देश के किसानों के अन्‍न के भंडार भर दिए और उसके पीछे भाव वही है वंदे मातरम। जब देश की आजादी को कुचलना की कोशिश हुए, संविधान की पीठ पर छुरा घोप दिया गया, आपातकाल थोप दिया गया, यही वंदे मातरम की ताकत थी कि देश खड़ा हुआ और परास्त करके रहा। देश पर जब भी युद्ध थोपे गए, देश को जब भी संघर्ष की नौबत आई, यही वंद मातरम का भाव था, देश का जवान सीमाओं पर अड़ गया और मां भारती का झंडा लहराता रहा, विजय श्री प्राप्त करता रहा। कोरोना जैसा वैश्विक महासंकट आया, यही देश उसी भाव से खड़ा हुआ, उसको भी परास्त करके आगे बढ़ा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह राष्ट्र की शक्ति है, यह राष्ट्र को भावनाओं से जोड़ने वाला सामर्थ्‍यवान एक ऊर्जा प्रवाह है। यह चेतना परवाह है, यह संस्कृति की अविरल धारा का प्रतिबिंब है, उसका प्रकटीकरण है। यह वंदे मातरम हमारे लिए सिर्फ स्मरण करने का काल नहीं, एक नई ऊर्जा, नई प्रेरणा का लेने का काल बन जाए और हम उसके प्रति समर्पित होते चलें और मैंने पहले कहा हम लोगों पर तो कर्ज है वंदे मातरम का, वही वंदे मातरम है, जिसने वह रास्ता बनाया, जिस रास्ते से हम यहां पहुंचे हैं और इसलिए हमारा कर्ज बनता है। भारत हर चुनौतियों को पार करने में सामर्थ्‍य है। वंदे मातरम के भाव की वो ताकत है। वंदे मातरम यह सिर्फ गीत या भाव गीत नहीं, यह हमारे लिए प्रेरणा है, राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के लिए हमें झकझोरने वाला काम है और इसलिए हमें निरंतर इसको करते रहना होगा। हम आत्मनिर्भर भारत का सपना लेकर के चल रहे हैं, उसको पूरा करना है। वंदे मातरम हमारी प्रेरणा है। हम स्वदेशी आंदोलन को ताकत देना चाहते हैं, समय बदला होगा, रूप बदले होंगे, लेकिन पूज्य गांधी ने जो भाव व्यक्त किया था, उस भाव की ताकत आज भी हमें मौजूद है और वंदे मातरम हमें जोड़ता है। देश के महापुरुषों का सपना था स्वतंत्र भारत का, देश की आज की पीढ़ी का सपना है समृद्ध भारत का, आजाद भारत के सपने को सींचा था वंदे भारत की भावना ने, वंदे भारत की भावना ने, समृद्ध भारत के सपने को सींचेगा वंदे मातरम के भवना, उसी भावनाओं को लेकर के हमें आगे चलना है। और हमें आत्मनिर्भर भारत बनाना, 2047 में देश विकसित भारत बन कर रहे। अगर आजादी के 50 साल पहले कोई आजाद भारत का सपना देख सकता था, तो 25 साल पहले हम भी तो समृद्ध भारत का सपना देख सकते हैं, विकसित भारत का सपना देख सकते हैं और इस सपने के लिए अपने आप को खपा भी सकते हैं। इसी मंत्र और इसी संकल्प के साथ वंदे मातरम हमें प्रेरणा देता रहे, वंदे मातरम का हम ऋण स्वीकार करें, वंदे मातरम की भावनाओं को लेकर के चलें, देशवासियों को साथ लेकर के चलें, हम सब मिलकर के चलें, इस सपने को पूरा करें, इस एक भाव के साथ यह चर्चा का आज आरंभ हो रहा है। मुझे पूरा विश्वास है कि दोनों सदनों में देश के अंदर वह भाव भरने वाला कारण बनेगा, देश को प्रेरित करने वाला कारण बनेगा, देश की नई पीढ़ी को ऊर्जा देने का कारण बनेगा, इन्हीं शब्दों के साथ आपने मुझे अवसर दिया, मैं आपका बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूं। बहुत-बहुत धन्यवाद!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!