उपस्थित सभी वरिष्ठ महानुभाव, और उज्बेकिस्तान में भारत की महान परम्परा, संस्कृति और उज्बेकिस्तान की महान संस्कृति और परम्परा के बीच आदान-प्रदान करना, एक सेतु बनाना इसका जो अविरल प्रयास चल रहा है उसके साथ जुड़े हुए आप सभी महानुभावों का मुझे आज दर्शन करने का अवसर मिला है।
यहां पर जो सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया है उज्बेक की बेटियों ने, और मैं देख रहा था कि उन्होंने सिर्फ practice नहीं की है, एक प्रकार से साधना की है और उत्तम प्रदर्शन सिर्फ उनके हाथ-पैर नहीं हिल रहे थे उनका मन-मंदिर भी जुड़ रहा था, ऐसा मैं अनुभव कर रहा था।
कल मेरी प्रधानमंत्रीजी और राष्ट्रपतिजी के साथ बहुत विस्तार से बातचीत हुई है। कल जब हम रात को खाना खा रहे थे, वहां संगीत की योजना की गई थी instrumental तो सारे western थे लेकिन बहुत अच्छी प्रयत्न करके भारतीय गीतों को प्रस्तुत करने का बहुत ही सफल प्रयास किया। मैंने राष्ट्रपति जी को बधाई दी और मुझे आश्चर्य हुआ कि राष्ट्रपति जी को राजधानी के विषय में मालूम था, कौन सा गीत बजाया जाएगा वो पहले से बताते थे, फिर उन्होंने मुझे गर्व से कहा - और प्रधानमंत्री जी ने भी कहा - कि हम हमारे यहां सभी गांवों में संगीत स्कूल का आग्रह करते हैं। कुछ मात्रा में हमने पिछले पांच साल में संगीत स्कूल खोले हैं और आगे भी इन स्कूलों को बढ़ाना चाहते हैं और यह भी बताया कि भारतीय संगीत के प्रति सभी की रूचि बहुत बढ़ रही है, और संगीत के माध्यम से संस्कार करने का हम एक प्रयास कर रहे हैं। अगर युद्ध से मुक्ति चाहिए तो संगीत व्यक्ति को कभी भी हिंसा की ओर जाने नहीं देता है। ये बातें कल मुझे राष्ट्रपति जी ने सुनकर के बहुत ही आनन्द आया।
व्यक्तित्व के विकास के लिए अनेक पहलुओं की चर्चा हुई। Personality development में इन बातों को सिखाया जाता है। लेकिन मैं मानता हूं कि Personality के development में भाषा की बहुत बड़ी ताकत है। आपको किसी और देश का व्यक्ति मिल जाए, और आपकी भाषा में पहला शब्द अगर वह बोल दें तो आप देखेगें बिना कोई पहचान, बिना कोई जानकारी आप एकदम स्तब्ध हो जाते हैं, खुल जाते हैं - ये ताकत होती है भाषा में। अगर कोई विदेशी व्यक्ति हम भारतीयों को मिले तो नमस्ते बोल देंगे ऐसा लगता है कि हमें कोई अपना मिल गया।
भाषा को जो बचाता है, भाषा को संभालता है, भाषा का जो संबोधन करता है, वह देश अपने भविष्य को तो ताकतवर बनाता ही है, लेकिन वह अपने भव्य भाल से उसका essence लगातार लेता रहता है। भाषा ऐसी खिड़की है कि उस भाषा को अगर जानें तो फिर उस भाषा में उपलब्ध ज्ञान के सागर में डुबकी लगाने का अवसर मिलता है, आनन्द मिलता है।
हमारे यहां कहते हैं “पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा?” पानी को जिसके साथ मिलाओ उसका रंग वैसा ही हो जाता है। भाषा को भी हर पल एक नया संगी-साथी मिल जाता है। भाषा को मित्र बना कर देखिए। भाषा उस हवा के झोंके जैसा होता है जो जिस बगीचे से गुजरे जिन फूलों को स्पर्श करके वो हवा चले, तो हमें उसी की महक आती है।
भाषा जहां-जहां से गुजरती है वहां की महक अपने साथ ले चलती है। जिस युग से गुजरती है, उस युग की महक लेकर जाती है, जिस इलाके से गुजरती है उस इलाके की महक साथ ले जाती है। जिस परपंरा से गुजरती है परंपरा की महक साथ ले जाती है और हर महक एक प्रकार से जीवन के ऐसे बगीचे को सुंगधित कर देती है यह भाषा, जहां पर हर प्रकार की महक हम महसूस करते हैं।
भाषा का आर्थिक स्थिति के साथ सीधा-सीधा नाता है। जिनकी आर्थिक समृद्धि होती है, उनकी भाषा के पंख बड़े तेज उड़ते हैं। दुनिया के सारे लोग उस भाषा को जानना चाहते हैं, समझना चाहते हैं क्योंकि आर्थिक व्यापार के लिए सुविधा होती है। आर्थिक अनुष्ठान बन जाती है भाषा, और मैं देखता हूं कि आने वाले दिनों में हिन्दुस्तान की भाषाओं का महत्व बढ़ने वाला है क्योंकि भारत आर्थिक उन्नति पर जैसे-जैसे जाएगा दुनिया उससे जुड़ना चाहेगी।
भाषा अगर एक वस्तु होती, एक इकाई होती - और अगर मानो उसको डीएनए test किया जाता तो मैं यह मानता हूं कि ये सबसे बड़ी चीज हाथ लगती, कि भाषा का हृदय बड़ा विशाल होता है, उसके DNA से पता चलता। क्योंकि भाषा सबको अपने में समाहित कर लेती है। उसे कोई बंधन नहीं होता। न रंग का बंधन होता है, न काल का बंधन होता है, न क्षेत्र विशेष का बंधन होता है। इतना विशाल हृदय होता है भाषा का जो हर किसी को अपने में समाहित कर लेता है। Inclusive.
मैं एक बार रशिया के एक इलाके में गया था - अगर मैं “Tea” बोलूं तो उनको समझ में नहीं आता था, “चाय” बोलूं तो समझ आता था। “Door” बोलूं तो समझ नहीं आता था, “द्वार” बोलूं तो समझ आता था। इतने सारे... जैसे हमारे यहां तरबूज बोलते है, watermelon. वो भी तरबूज बोलते हैं। यानी की किस प्रकार से भाषा अपने आप में सबको समाविष्ट कर लेती है। आपके यहां भी अगर कोई “दुतार” बजाता है, तो हमारे यहाँ “सितार” बजाता है। आपके यहां कोई “तम्बूर” बजाता है, तो हमारे यहां “तानपूरा” बजाता है, आपके यहां कोई “नगारे” बजाता है तो हमारे यहां “नगाड़े” बजाता है। इतनी समानता है इसका कारण है कि भाषा का हृदय विशाल है, वो हर चीज को अपने में समाहित कर लेती है।
आप कितने ही बड़े विद्वान हो, कितने ही बड़े भाषा शास्त्री हों, लेकिन ईश्वर हमसे एक कदम आगे है। हम हर भाषा का post-mortem कर सकते हैं। उसकी रचना कैसी होती है, ग्रामर कैसा होता है, कौन-सा शब्द क्यों ऐसा दिखता है - सब कर सकते है। लेकिन मानव की मूल संपदा को प्रकट करने वाली दो चीजें हैं, जो ईश्वर ने दी है। दुनिया की किसी भी भूभाग, किसी भी रंग के व्यक्ति, किसी भी युग के व्यक्ति में, दो भाषाओं में समानता है। एक है “रोना”, दूसरा है “हँसना” - हर किसी की रोने की एक भाषा है, और हंसने की भी एक ही भाषा है। कोई फर्क नहीं है और अभी तक कोई पंडित उनका व्याकरण नहीं खोल पाया है।
आज के युग में दो राष्ट्रों के संबंध सिर्फ सरकारी व्यवस्थाओं के तहत सीमित नहीं है। दो राष्ट्रों के संबंधों की मजबूती के आधार people-to-people contact होता है। और people-to-people contact का आधार सांस्कृतिक आदान-प्रदान, एक-दूसरे की परम्पराओं को, इतिहास को, संस्कृति को जानना, जीना ये बहुत बड़ी ताकत होता है। आपका ये प्रयास भारत और उज्बेकिस्तान के साथ people-to-people contact बढ़ाने का एक बहुत बड़ा platform है, बहुत बड़ा प्रयास है। ये संबंध बड़े गहरे होते है और बड़े लम्बे अरसे तक रहते है। सरकारें बदलें व्यवस्थाएं बदलें, नेता बदले लेकिन ये नाता कभी बदलता नहीं है। जो नाता आप जोड़ रहे है, आपके प्रयासों से इसको मैं हृदय से अभिनंदन करता हूं।
Central Asia की पाँचों देशों की एक साथ यात्रा करने का सौभाग्य शायद ही... एक साथ यात्रा करने का सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिलता होगा। मुझे वो सौभाग्य मिला है और Central Asia की करीब 5 देशों की यात्रा, पहली उज्बेकिस्तान की यात्रा से प्रारम्भ हुआ। ये मेरा सार्वजनिक रूप से इस यात्रा का अंतिम कार्यक्रम है। मैं बड़े संतोष और गर्व के साथ कहता हूं कि यह यात्रा बहुत ही सफल रही है। लंबे अर्से तक सुफल देने वाली यात्रा रही है, और आने वाले दिनों में भारत और उज्बेकिस्तान के आर्थिक-सामूहिक संबंध और गहरे होते जाएंगे, जो दोनों देशों को ताकत देंगे, इस region को ताकत देंगे, और इस region के साथ भारत मिल करके मानवजात के कल्याण के लिए सामान्य मानव के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उत्तम से उत्तम काम करते रहेंगे। इस विश्वास के साथ मैं फिर एक बार उजबेक्सितान के राष्ट्रपति जी का, प्रधानमंत्री जी का, यहां की जनता-जनार्दन का और इस समारोह में इतना उत्तम कार्यक्रम बनाने के लिए मैं आप सबका अभिनंदन करता हूं और जो शब्दकोष का निर्माण हुआ है वो शब्दकोष आने वाले दिनों में नई पीढि़यों को काम आएगा।
आज technology का युग है। Internet के द्वारा online हम language सीख सकते है। हम सुन करके भी language सीख करते है, audio से भी सीख सकते है। एक प्रकार से आज अपनी हथेली में विश्व को जानने, समझने, पहचानने का आधार बन गया है। मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में हमारे ये जो सारे प्रयास चल रहे है इसमें technology भी जुड़ेगी और technology के माध्यम से हम खुद audio system से भी अपनी भाषाओं को कैसे सीखें - Audio हो, Visual हो, written text हो एक साथ सभी चीजें हो गई तो pick up करने में बड़ी सुविधा रहती है। उसकी दिशा में भी आवश्यक जो भी मदद भारत को करनी होगी, भारत अवश्य मदद करेगा।
फिर एक बार मैं आप सबका बहुत-बहुत अभिनंदन करता हूं, बहुत धन्यवाद करता हूं।

ऊं नम:, ऊं नम:, ऊं नम:!
परम श्रद्धेय आचार्य प्रज्ञ सागर महाराज जी, श्रावन बेलागोला के मठाधीश स्वामी चारूकीर्ति जी, मेरे सहयोगी गजेंद्र सिंह शेखावत जी, संसद में मेरे साथी भाई नवीन जैन जी, भगवान महावीर अहिंसा भारती ट्रस्ट के प्रेसिडेंट प्रियंक जैन जी, सेक्रेटरी ममता जैन जी, ट्रस्टी पीयूष जैन जी, अन्य सभी महानुभाव, संतजन, देवियों और सज्जनों, जय जिनेंद्र!
आज हम सब भारत की आध्यात्म परंपरा के एक महत्वपूर्ण अवसर के साक्षी बन रहे हैं। पूज्य आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज, उनकी जन्मशताब्दी का ये पुण्यपर्व, उनकी अमर प्रेरणाओं से ओतप्रोत ये कार्यक्रम, एक अभूतपूर्व प्रेरक वातावरण का निर्माण हम सबको प्रेरित कर रहा है। इस आयोजन में यहाँ उपस्थित लोगों के साथ ही, लाखों लोग ऑनलाइन व्यवस्था के जरिए भी हमारे साथ जुड़े हैं। मैं आप सभी का अभिनंदन करता हूं, मुझे यहां आने का अवसर देने के लिए आप सबका आभार व्यक्त करता हूं।
साथियों,
आज का ये दिन एक और वजह से बहुत विशेष है। 28 जून, यानी 1987 में आज की तारीख पर ही आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज को आचार्य पद की उपाधि प्राप्त हुई थी। और वो सिर्फ एक सम्मान नहीं था, बल्कि जैन परंपरा को विचार, संयम और करुणा से जोड़ने वाली एक पवित्र धारा प्रवाहित हुई। आज जब हम उनकी जन्म शताब्दी मना रहे हैं, तब ये तारीख हमें उस ऐतिहासिक क्षण की याद दिलाती है। मैं इस अवसर पर आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज के चरणों में नमन करता हूं। उनका आशीर्वाद हम सभी पर हमेशा बना रहे, ये प्रार्थना करता हूं।
साथियों,
श्री विद्यानंद जी मुनिराज की जन्म शताब्दी का ये आयोजन, ये कोई साधारण कार्यक्रम नहीं है। इसमें एक युग की स्मृति है, एक तपस्वी जीवन की गूंज है। आज इस ऐतिहासिक अवसर को अमर बनाने के लिए, विशेष स्मृति सिक्के, डाक टिकट जारी किए गए हैं। मैं इसके लिए भी सभी देशवासियों को अभिनंदन करता हूँ। मैं विशेष रूप से, आचार्य श्री प्रज्ञ सागर जी का अभिनंदन करता हूँ, उन्हें प्रणाम करता हूँ। आपके मार्गदर्शन में आज करोड़ों अनुयायी पूज्य गुरुदेव के बताए रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। आज इस अवसर पर आपने मुझे ‘धर्म चक्रवर्ती’ की उपाधि देने का जो निर्णय लिया है, मैं खुद को इसके योग्य नहीं समझता, लेकिन हमारा संस्कार है कि हमें संतों से जो कुछ मिलता है, उसे प्रसाद समझकर स्वीकार किया जाता हैं। और इसीलिए, मैं आपके इस प्रसाद को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ, और माँ भारती के चरणों में समर्पित करता हूँ।
साथियों,
जिस दिव्य आत्मा की वाणी को, उनके वचनों को, हम जीवन भर गुरु वाक्य मानकर उनसे सीखते हैं, जिनसे हमारे हृदय भावनात्मक रूप से जुड़ रहे हैं, उनके बारे में कुछ भी बोलना, हमें भावुक कर देता है। मैं अभी भी सोच रहा हूँ कि श्री विद्यानंद जी मुनिराज के बारे में बोलने की जगह काश हमें आज भी उन्हें सुनने का सौभाग्य मिलता। ऐसी महान विभूति की जीवन यात्रा को शब्दों में समेटना आसान नहीं है। 22 अप्रैल, 1925 को कर्नाटक की पुण्य भूमि पर उनका अवतरण हुआ। आध्यात्मिक नाम मिला विद्यानंद औऱ उनका जीवन, विद्या औऱ आनंद का अद्वितीय संगम रहा। उनकी वाणी में गंभीर ज्ञान था, लेकिन शब्द इतने सरल की हर कोई समझ सके। 150 से अधिक ग्रंथों का लेखन, हजारों किलोमीटर की पदयात्रा, लाखों युवाओं को संयम और संस्कृति से जोड़ने का महायज्ञ, आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज युगपुरुष थे, युगदृष्टा थे। ये मेरा सौभाग्य है कि, मुझे उनकी आध्यात्मिक आभा को प्रत्यक्ष अनुभव करने का अवसर मिलता रहा। समय-समय पर वो मुझे अपना मार्गदर्शन भी देते थे, और उनका आशीर्वाद हमेशा मुझ पर बना रहा। आज उनकी जन्मशताब्दी का ये मंच, मैं यहाँ भी उनके उसी प्रेम और अपनेपन को महसूस कर रहा हूँ।
साथियों,
हमारा भारत विश्व की सबसे प्राचीन जीवंत सभ्यता है। हम हजारों वर्षों से अमर हैं, क्योंकि हमारे विचार अमर हैं, हमारा चिंतन अमर है, हमारा दर्शन अमर है। और, इस दर्शन के स्रोत हैं- हमारे ऋषि, मुनि, महर्षि, संत और आचार्य! आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज भारत की इसी पुरातन परंपरा के आधुनिक प्रकाश स्तम्भ रहे हैं। कितने ही विषयों पर उनकी विशेषज्ञता थी। कितने ही क्षेत्रों में उन्हें दक्षता हासिल थी। उनकी आध्यात्मिक प्रखरता, उनका ज्ञान, कन्नड़, मराठी, संस्कृत और प्राकृत जैसी भाषाओं पर उनकी पकड़ और अभी जैसे पूज्य महाराज जी ने कहा, 18 भाषाओं का ज्ञान, उनके द्वारा की गई साहित्य और धर्म की सेवा, उनकी संगीत साधना, राष्ट्रसेवा के लिए उनका समर्पण, जीवन का ऐसा कौन सा आयाम है, जिसमें उन्होंने आदर्शों के शिखर न छुए हों! वो एक महान संगीतज्ञ भी थे, वो एक प्रखर राष्ट्रभक्त और स्वतन्त्रता सेनानी भी रहे और वो एक अखंड वीतराग दिगंबर मुनि भी थे। वो विद्या और ज्ञान के भंडार भी थे, और वो आध्यात्मिक आनंद के स्रोत भी थे। मैं मानता हूँ कि, माननीय सुरेंद्र उपाध्याय से आचार्य श्री विद्यानंद मुनिराज बनने की उनकी यात्रा, ये सामान्य मानव से महामानव बनने की यात्रा है। ये इस बात की प्रेरणा है कि, हमारा भविष्य हमारे वर्तमान जीवन की सीमाओं में बंधा नहीं होता। हमारा भविष्य इस बात से तय होता है कि, हमारी दिशा क्या है, हमारा लक्ष्य क्या है, और हमारे संकल्प क्या हैं।
साथियों,
आचार्य श्री विद्यानंद मुनिराज ने अपने जीवन को सिर्फ साधना तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने जीवन को समाज और संस्कृति के पुनर्निर्माण का माध्यम बना दिया। प्राकृत भवन और अनेक शोध संस्थानों की स्थापना करके उन्होंने ज्ञान की दीपशिखा को नई पीढ़ियों तक पहुँचाया। उन्होंने जैन इतिहास को भी उसकी सही पहचान दिलाई। ‘जैन दर्शन’ और ‘अनेकांतवाद’ जैसे मौलिक ग्रंथों की रचना कर उन्होंने विचारों को गहराई, व्यापकता और समरसता दी। मंदिरों के जीर्णोद्धार से लेकर गरीब बच्चों की शिक्षा और सामाजिक कल्याण तक, उनका हर प्रयास आत्मकल्याण से लेकर लोकमंगल तक जुड़ा रहा।
साथियों,
आचार्य विद्यानंद जी महाराज कहते थे- जीवन तभी धर्ममय हो सकता है जब जीवन स्वयं सेवा बन जाए। उनका ये विचार जैन दर्शन की मूल भावना से जुड़ा हुआ है। ये विचार भारत की चेतना से जुड़ा हुआ है। भारत सेवा प्रधान देश है। भारत मानवता प्रधान देश है। दुनिया में जब हजारों वर्षों तक हिंसा को हिंसा से शांत करने के प्रयास हो रहे थे, तब भारत ने दुनिया को अहिंसा की शक्ति का बोध कराया। हमने मानवता की सेवा की भावना को सर्वोपरि रखा।
साथियों,
हमारा सेवाभाव unconditional है, स्वार्थ से परे है और परमार्थ से प्रेरित है। इसी सिद्धान्त को लेकर आज हम देश में भी उन्हीं आदर्शों से प्रेरणा लेकर के, उन्हीं जीवनों से प्रेरणा लेकर के काम कर रहे हैं। पीएम आवास योजना हो, जल जीवन मिशन हो, आयुष्मान भारत योजना, जरूरतमंद लोगों को मुफ्त अनाज, ऐसी हर योजना में समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के प्रति सेवा भाव है। हम इन योजनाओं में सैचुरेशन तक पहुंचने की भावना से काम कर रहे हैं। यानी कोई भी पीछे ना छूटे, सब साथ चलें, सब मिलकर साथ आगे बढ़ें, यही आचार्य श्री विद्यानंद मुनिराज जी की प्रेरणा है और यही हमारा संकल्प है।
साथियों,
हमारे तीर्थंकरों की, हमारे मुनियों और आचार्यों की वाणी, उनकी शिक्षाएँ, हर काल में उतनी ही प्रासंगिक होती हैं। और खासकर, आज जैन धर्म के सिद्धान्त, पाँच महाव्रत, अणुव्रत, त्रिरत्न,षट आवश्यक, ये आज पहले से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। और हम जानते हैं, हर युग में शाश्वत शिक्षाओं को भी समय के साथ सामान्य मानवी के लिए सुलभ बनाने की जरूरत होती है। आचार्य श्री विद्यानंद मुनिराज का जीवन, उनका कार्य, इस दिशा में भी समर्पित रहे हैं। उन्होंने 'वचनामृत' आंदोलन चलाया, जिसमें जैन ग्रंथों को आम बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत किया गया। उन्होंने भजन संगीत के जरिए धर्म के गहरे विषयों को भी सरल से सरल भाषा में लोगों के लिए सुलभ बना दिया। अब हम अमर भये न मरेंगे, हम अमर भये न मरेंगे, तन कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे, आचार्य श्री के ऐसे कितने ही भजन हैं, जिसमें उन्होंने आध्यात्म के मोतियों को मिलाकर हम सबके लिए एक पुण्य माला बना दी है। अब हम अमर भये न मरेंगे, अमरता में ये सहज विश्वास, अनंत की ओर देखने का ये हौसला, यही भारतीय आध्यात्म और संस्कृति को इतना खास बनाती है।
साथियों,
आचार्य श्री विद्यानंद मुनिराज की जन्मशताब्दी का ये वर्ष, हमें निरंतर प्रेरणा देने वाला है। हमें आचार्य श्री के आध्यात्मिक वचनों को अपने जीवन में आत्मसात तो करना ही है, समाज और राष्ट्र के लिए उनके कार्यों को हम आगे बढ़ाएँ, ये भी तो हमारा दायित्व है। आप सब जानते हैं, आचार्य श्री विद्यानंद मुनिराज ने अपने साहित्य के जरिए, अपने भजनों के माध्यम से प्राचीन प्राकृत भाषा का कितना पुनरोद्धार किया। प्राकृत भारत की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है। ये भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा है। इसी भाषा में पूरा मूल ‘जैन आगम’ रचा गया। लेकिन, अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने वालों के कारण ये भाषा सामान्य प्रयोग से बाहर होने लगी थी। हमने आचार्य श्री जैसे संतों के प्रयासों को देश का प्रयास बनाया। पिछले साल अक्टूबर में हमारी सरकार ने प्राकृत को 'शास्त्रीय भाषा' का दर्जा दिया। और अभी कुछ आचार्य जी ने उसका जिक्र भी किया। हम भारत की प्राचीन पाण्डुलिपियों को digitize करने का अभियान भी चला रहे हैं। इसमें बहुत बड़ी मात्रा में जैन धर्मग्रन्थों और आचार्यों से जुड़ी पांडुलिपियाँ शामिल हैं। और अभी जैसे आपने कहा 50,000 से ज्यादा पांडुलिपियों के विषय में, हमारे सचिव महोदय यहां बैठे हैं, वो आपके पीछे पड़ जाएंगे। हम इस दिशा में आगे बढ़ना चाहते हैं। अब हम हायर एजुकेशन में भी मातृभाषा को बढ़ावा देते हैं। और इसीलिए, मैंने लाल किले से कहा है, हमें देश को गुलामी की मानसिकता से मुक्ति दिलानी है। हमें विकास और विरासत को एक साथ लेकर आगे बढ़ना है। इसी संकल्प को केंद्र में रखकर, हम भारत के सांस्कृतिक स्थलों का, तीर्थस्थानों का भी विकास कर रहे हैं। 2024 में हमारी सरकार ने भगवान महावीर के दो हजार पांच सौ पचासवें निर्वाण महोत्सव का व्यापक स्तर पर आयोजन किया था। इस आयोजन में आचार्य श्री विद्यानंद मुनि जी की प्रेरणा शामिल थी। इसमें आचार्य श्री प्रज्ञ सागर जी जैसे संतों का आशीर्वाद शामिल था। आने वाले समय में, हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर और उसे और समृद्ध बनाने के लिए ऐसे ही और बड़े कार्यक्रमों को निरंतर करते रहना है। इसी कार्यक्रम की तरह ही, हमारे ये सारे प्रयास जनभागीदारी की भावना से होंगे, ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास’ इस मंत्र से होंगे।
साथियों,
आज मैं आपके बीच आया हूं तो नवकार महामंत्र दिवस की स्मृति आना भी स्वभाविक है। उस दिन हमने 9 संकल्पों की भी बात की थी। मुझे खुशी है कि बड़ी संख्या में देशवासी उन संकल्पों को पूरा करने में लगे हैं। आचार्य श्री विद्यानंद मुनिराज से हमें जो मार्गदर्शन मिलता है, वो इन 9 संकल्पों को और मजबूती देते हैं। इसलिए, आज इस अवसर पर, मैं उन 9 संकल्पों को फिर से आपके साथ साझा करना चाहता हूं। पहला संकल्प, पानी बचाने का है। एक-एक बूंद पानी की कीमत समझनी है। ये हमारी जिम्मेदारी भी है और धरती माँ के प्रति फर्ज भी। दूसरा संकल्प, एक पेड़ माँ के नाम। हर कोई अपनी माँ के नाम एक पेड़ लगाए। उसे वैसे ही सींचे, जैसे माँ हमें सींचती रही हैं। हर पेड़ माँ का आशीर्वाद बने। तीसरा संकल्प, स्वच्छता का। साफ-सफाई सिर्फ दिखावे के लिए नहीं, ये भीतर की अहिंसा है। हर गली, हर मोहल्ला, हर शहर स्वच्छ हो, हर किसी को इस काम में जुटना है। चौथा संकल्प, वोकल फॉर लोकल। जिस चीज़ में किसी भी भारतीय का पसीना हो, जिसमें मिट्टी की खुशबू हो, वही खरीदनी है। और आपमें से ज्यादातर लोग व्यापार कारोबार में रहते हैं। आपसे मेरी विशेष अपेक्षा है। अगर हम व्यापार में हैं, तो हमें अपनों के बनाए सामान को ही प्राथमिकता से बेचना है। सिर्फ मुनाफा नहीं देखना है। और दूसरों को भी प्रेरित करना है। पाँचवाँ संकल्प देश का दर्शन। दुनिया देखनी है, ज़रूर देखिए। लेकिन अपने भारत को जानिए, समझिए, महसूस कीजिए। छठा संकल्प, नैचुरल फार्मिंग को अपनाने का। हमें धरती माँ को ज़हर से मुक्त करना है। खेती को रसायनों से दूर ले जाना है। गांव-गांव में प्राकृतिक खेती की बात पहुँचानी है। ये हमारे पूज्य महाराज साहब जूते न पहने, इतने से बात नहीं चलेगी, हमें भी तो धरती मां की रक्षा करनी होगी। सातवाँ संकल्प, हेल्दी लाइफस्टाइल का। जो खाएं, सोचकर खाएं। भारत की पारंपरिक थाली में श्रीअन्न हो, हमें भोजन में कम से कम 10 प्रतिशत तेल भी कम करना है। इससे मोटापा भी जाएगा और जीवन में ऊर्जा भी आएगी। आठवाँ संकल्प, योग और खेल का। खेल और योग, दोनों को दैनिक जीवन का हिस्सा बनाना है। नवां संकल्प, गरीब की मदद का। किसी गरीब की हैंड होल्डिंग करना, उसे गरीबी से निकलने में मदद करना, यही असली सेवा है। मुझे विश्वास है, हम इन 9 संकल्पों पर काम करेंगे, तो आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज जी को और उनकी शिक्षाओं को भी ज्यादा सशक्त करेंगे।
साथियों,
भारत की चेतना को, हमारे संतों के अनुभवों को लेकर हमने देश के लिए अमृतकाल का विज़न सामने रखा है। आज 140 करोड़ देशवासी देश के अमृत संकल्पों को पूरा करते हुए विकसित भारत के निर्माण में जुटे हैं। विकसित भारत के इस सपने का मतलब है- हर देशवासी के सपनों को पूरा करना! यही आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज जी ने हमें प्रेरणा दी है। उनके दिखाये प्रेरणापथ पर चलना, उनकी शिक्षाओं को आत्मसात करना, राष्ट्र निर्माण को अपने जीवन का पहला ध्येय बना लेना, ये हम सबकी ज़िम्मेदारी है। मुझे विश्वास है, आज इस पवित्र अवसर की ऊर्जा हमारे इन संकल्पों को सशक्त बनाएगी। और अभी प्रज्ञ सागर महाराज साहब ने कहा कि जो हमें छेड़ेगा, अरे मैं जैनियों के कार्यक्रम में हूं, अहिंसावादियों के बीच हूं और अभी तो आधा वाक्य बोला हूं और आपने पूरा कर दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि भले शब्दों में नहीं कहा, शायद आप ऑपरेशन सिंदूर को आशीर्वाद दे रहे थे। आप सबका प्यार, आप सबके आशीर्वाद, इन भावनाओं के साथ, मैं एक बार फिर आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज को श्रद्धापूर्वक नमन करता हूं। आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद। जय जिनेंद्र !!!