आज जो अपने जीवन की नई शुरूआत कर रहे हैं ऐसे सारे विद्यार्थी मित्रों और उपस्थित सज्‍जनों,

मैंने विशेष मेहमान कहा, कुछ बच्‍चों को आपने देखा होगा। मैंने एक आग्रह रखा है कि जहां भी Convocation होता है वहां पर उस शहर के 20-25 स्‍कूलों से और वो भी गरीब बच्‍चे जहां पढ़ते हो दो दो बच्‍चों को इस Convocation पर विशेष रूप से निमंत्रित करके बुलाना चाहिए। जब यह बालक इस समारोह को देखते हैं, यह वेशभूषा, यह सब, तो उनके मन में एक संस्‍कार भी जगते हैं और सहज रूप से एक inspiration सा जगता है, उनके मन में भी होता है कि काश मेरे जीवन में भी ऐसा अवसर आए और इसलिए मेरा आग्रह रहता है कि हर University में एक Convocation हो तो गरीब परिवार के 50 बालक....40-50 स्कूलों में से एक-एक दो-दो को जरूर बुलाना चाहिए। उनको यह समारोह में शरीक करना चाहिए। उसमें से एक नई प्रेरणा मिलती है और मैं भी चाहूंगा कि आज जो उर्तीण हुए हैं वो बाद में जरूर पांच मिनट उन बच्‍चों से बात करें। उसने चर्चा करें, अपने अनुभव share करें। आप देखिए आपके माध्‍यम से कितना बड़ा काम हो जाएगा।

आज मुझे कुछ पूर्व Directors का सम्‍मान करने का अवसर मिला। अनेक व्‍यक्ति अपना जीवन जब खपा देते हैं, तब ऐसी संस्‍थाएं विकसित होती हैं। ऐसी व्‍यवस्‍थाएं विकसित होती हैं। पूर्व के जितने भी लोग थे और वर्तमान जितने भी लोग हैं उन सबके प्रयत्‍नों से इस संस्‍था ने एक अंतर्राष्‍ट्रीय अपना स्‍थान बनाया है। मैं उन सबका हृदय से अभिनंदन करता हूं और जिनका स्‍वागत करने का मुझे अवसर मिला मैं अपने आप में गौरव की अनुभूति करता हूं।

मित्रों मेरे मन में एक प्रश्‍न है कि अगर आपने दिमाग लगाया होता तो शायद इस Profession में नहीं आते। यहां आने से पहले आपने दिमाग से नहीं सोचा होगा यह मेरा पूरा विश्‍वास है। फिर आए क्यों? आए इसलिए हैं कि आपने दिमाग से नहीं दिल से सोचा है। काम तो दिमाग का है, लेकिन दिमाग से होने वाला नहीं है। आपने एक ऐसे Profession को तैयार किया है जिसमें दिल से ही आप Patient को ठीक कर पाते हैं, दिमाग से नहीं कर पाते और उस पर मैं कहता हूं कि आपने, आपके दिल ने आपको इस Profession में आने के लिए मजबूर किया है, अपने आपको प्रेरित किया है, आपके भीतर से वो आवाज़ उठी है और आपको लगा है कि भई यह समाज में ये लोग.. कोई तो इनकी सेवा करें और मैं जातना हूं कि यह कठिन काम है।

आप जब पहली बार अस्‍पताल में डिग्री धारण करने के बाद जाएंगे तो Patient तालिया बजाएंगे कि चलो एक और आ गया। उनको तो यही लगेगा कि हमारे जैसा ही कोई आया है, फिर उसके साथ बात करना, समय बिताना, उसको समझना और फिर उसमें विश्‍वास जगाना.. बीमारी दूर करने से पहले विश्‍वास जगाना। एक ऐसा कठिन काम आपने लिया है। लेकिन मुझे विश्‍वास है कि आप, यहां जो आपको शिक्षा-दीक्षा मिली हैं, उस बदौलत और आपके दिल में जो दर्द है उसकी बदौलत आप अवश्‍य इस क्षेत्र में बहुत उत्‍तम प्रकार की सेवा कर पाएंगे।

हमारे देश में Mental Health का जब Symptom दिखने लग जाते हैं, परिवार को लगता है कि यह क्‍या odd कर रहा है, तो सबसे पहले वो मंत्र तंत्र में लग जाते हैं कोई धूपधाप करता हैं, उनको लगता है कि हां यह ठीक हो जाएगा और वहीं से बर्बादी की शुरूआत हो जाती है। अंतस्‍था मरीज को और तबाह कर देती है और परिवार वालों को लगता है हां ऐसा ही कुछ हुआ है, किसी ने कुछ कर दिया है और उसी में उसकी जिंदगी तबाह होना शुरू हो जाती है। आप कल्‍पना कर सकते हैं कि मानसिक बीमारी के प्रति देखने का समाज का रवैया कैसा है और उसमें से बदलाव लाना है और ये health related विषय है, ये physical problem है, इसके solution उस रूप से निकल सकते हैं। और बीमारियों को जैसे treat किया जा सकता है, इसे भी किया जा सकता है। यह उसके दिमाग में भरना, उस परिवार के दिमाग में भरना यह भी काफी कठिन होता है।

कुछ ऐसे परिवार होंगे… तो क्या होता होगा...वो नहीं चाहेंगे कि किसी को पता चले कि इसको ऐसी बीमारी है। छुपाते है, डरते हैं, क्‍यों कि समाज में अगर पता चल जाए कि इनके परिवार में एक का दिमाग ऐसा है तो बाकी सोचते है फिर तो सब item ऐसी ही होगी। इस पेड़ पर ऐसे ही फल आए होंगे और इसलिए बाकी कितना ही तंदरूस्‍त क्‍या न हो अच्‍छा डॉक्‍टर बना हो, फिर भी कोई बेटी देने से पचास बार सोचता है कि भई उसका एक भाई तो गड़बड़ है, इसको दे या न दें। यानी सामाजिक दृष्टि से भी एक ऐसी बीमारी है जो एक व्‍यक्ति को नहीं, पूरे परिवार को समाज की नजरों में गिरा देती है। कभी-कभार तो बाबा के समय कुछ हुआ हो grand-father, great grand-father.. और रिश्‍तेदारों को पता हो कि उनके भई एक दादा थे 55-60 साल की आयु में ऐसा हो गया था, तो भी उस परिवार के बच्‍चों को चार-चार पीढ़ी तक यह सुनते रहना पड़ता है...कुछ यार गड़बड़ है। कोई स्‍क्रू ढीला लगता है।

यानी यह एक ऐसा patient है जिसके प्रति अज्ञान, अंधश्रद्धा और जागरूकता यह सारी चीजों ने घेर लिया है और उसमें से हमें एक वैज्ञानिक तरीके से एक patient मानकर, उसकी care करने के लिए समाज के अवरोधों के खिलाफ भी काम करना पड़ता है। बाद में स्थिति ऐसी आती है अगर कोई संभावना वाला व्‍यक्ति हो, थोड़ा समझदार हो, थोड़ा जानता हो चीजें तो फिर वो depression की दवाएं लेना शुरू कर देता है और उसका कोई end नहीं होता, doze बढ़ता ही जाता है और depression भी बढ़ता ही जाता है। यानी व्‍यक्ति स्‍वयं थोड़ा depress हो तो भी इस दिशा में जाता है और ऐसी स्थिति में जब आपके profession को काम करना हो तब वैज्ञानिक तरीकों के साथ-साथ मैंने प्रारंभ में कहा, यह दिल से ही दवाई होती है और इसलिए सामान्‍य डॉक्‍टर से भी ज्‍यादा मान्‍यवीय संवेदनाएं, सामान्‍य डॉक्‍टर से ज्‍यादा patient के प्रति sympathy, इस profession में आवश्‍यक होती है। सिर्फ ज्ञान और अनुभव, इतने से इसमें काम नहीं होता है और उस अर्थ में यहां जो आपको शिक्षा-दीक्षा मिली है। मुझे विश्‍वास है कि आप सफलतापूर्वक आगे बढ़ोगे।

एक स्थिति आपके जीवन में भी ऐसी आएगी.. मैं नहीं चाहता हूं कि आए.. लेकिन आएगी, हंसी-मजाक के तौर पर आएगी लेकिन आएगी। आपकी शादी हो जाएगी और दो-चार, पांच साल के बाद जब पति या पत्‍नी रूठे हुए होंगे तो आपसे क्‍या कहेंगे? आप भी patient जैसे हो हो गए हो। इन patients के साथ रहते रहते आपका भी ऐसा ही हो गया है। यानी ऐसी अवस्‍था में आपको भी काम करना है। आपने यहां शिक्षा-दीक्षा ली है, डॉक्‍टर बनकर के आप समाज में स्‍थान प्राप्‍त करने वाले हैं। आपके मां-बाप ने कितने अरमानों के साथ आपको यहां भेजा होगा, कितनी अपेक्षाओं के साथ भेजा होगा, कितनी कठिनाईयों को झेलते हुए आपको भेजा होगा। मैं आपसे आग्रह करूंगा आपने जो कुछ भी पाया है, आपकी मेहनत तो है ही है। यहां पर शिक्षा-दीक्षा देने वालों की मेहनत भी है, आपके यार-दोस्‍तों का भी कोई न कोई योगदान है। लेकिन उन परिवारजनों ने जिन्‍होंने बड़े आशा, अरमानों के साथ आपको यहां भेजा है। अब तक तो आप विद्यार्थी थे और इसलिए वो भी सोचते थे कि मुझे देना है, लेकिन अब कल से वो भी आपकी तरफ दूसरे नजरिए से देखेंगे। अब तो भई मेरे से हुआ जो हुआ, मैंने तुम्‍हें पढ़ाया, कर्ज करके पढ़ा दिया, सब कर लिया अब तो तुम तुम्‍हारा करो कुछ.. अपेक्षाएं एक नया रूप लेंगी। मैं आशा करता हूं कि आप अपने सामर्थ्‍य से आगे बढ़ करके, अपने माता-पिता की जो आशाएं, आकांक्षाएं, अपेक्षाएं हैं आपके प्रति उसे पूरा करने की ईश्‍वर आपको पूरी ताकत दें और बिना समय बीते, वे गर्व से जी सकें इस प्रकार से आपका जीवन व्‍यवहार, आपके जीवन की सिद्धियां.. उनके जीवन के उस आधार को और अधिक जीने योग्‍य बना दें ऐसी मेरी आप सबको बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

कभी-कभार हमें यह भी लगता है कि हम यहां पहुंचे, बेंगलुरू तक आ गए.. दो किलोमीटर दूर से, पांच सौ किलोमीटर दूर से, हजार किलोमीटर दूर से पढ़ाई के लिए आ गए। पैसे थे, admission मिल गया था, अच्‍छे marks थे, पढ़ रहा हूं, परमात्‍मा ने दिमाग ठीक दिया है तो अच्‍छी तरह पढ़ लेता हूं। क्‍या कभी सोचा है क्‍या सिर्फ इन कारणों से आप इस जगह पर पहुंचे हैं। अगर आप सोचेंगे तो पता चलेगा कि नहीं। इसका तो स्‍थान बहुत कम है। आपके पैसे, आपका समय, आपकी बुद्धि, आपके परिवार का योगदान, आपके शिक्षकों का योगदान यह कहां जाता है। लेकिन आपको यहां तक पहुंचाने के लिए जिन-जिन लोगों ने योगदान दिया है कभी उनको भी याद कीजिए और जीवन में हर पल याद कीजिए। फिर आपको जीवन कैसे जीना चाहिए, यह सीखने के लिए किसी महापुरूष को याद नहीं करना पड़ेगा, किसी किताब का reference नहीं देखना पड़ेगा। अपने जीवन की ही घटनाएं, आपके जीवन की प्रेरणा बन सकती है। याद कीजिए जिस दिन पहली बार आप बेंगलुरू आए होंगे और कोई ऑटो रिक्‍शा वाला आपको यहां तक ले आया होगा, जरा उसका चेहरा याद कीजिए और यह सोचिए कि आप तो नये आए थे, लेकिन इसने आपसे अधिक पैसे नहीं मांगे थे, उतने ही पैसे लिए थे जितना कि यहां पहुंचने का किराया होता था। आपको याद आएगा कि देखों भई मेरी जिंदगी की शुरूआत जब मैं बेंगलुरू पहली बार आया था, लेकिन एक ऑटो रिक्‍शा वाला था जो मुझे समय जगह पर, सही समय पर पहुंचाया था। क्‍या आपका यहां तक पहुंचने में उसका कोई योगदान नहीं है, अगर उसका योगदान है तो क्‍या मेरी जिंदगी में उस कर्ज को चुकाने का योगदान होना चाहिए कि नहीं? और मैं मानता हूं जिंदगी को आगे बढ़ाने का तरीका यही होता है। हम किस के कारण कहां-कहां पहुंचे हैं। कभी यहां भी पढतें होंगे, कभी थकान भी महसूस होती होगी, exam के दिन होंगे और मन कर गया होगा कि रात को 12 बजे जाकर के कहीं चाय पीएं और hostel से बाहर निकल कर किसी पेड़ के नीचे चाय बेचने वाला बैठा होगा, बिचारा सोया होगा, आपने उसे जगाया होगा कि यार कल exam है जरा चाय पिला दो न और उसने अपनी नींद छोड़कर के आपके लिए चाय बनाई होगी। और वो चाय पीकर के आपने रात को फिर दो घंटा पढ़ा होगा और सुबह आपका पेपर बहुत अच्‍छा गया होगा। क्‍या उस चाय वाले का आपके जीवन में कोई योगदान है कि नहीं है?

मैंने कहने का तात्‍पर्य यह है कि हम जीवन में आगे बढ़ते हैं अपने कारण नहीं अपनों के कारण भी नहीं, अनगिनत लोगों के कारण आगे बढ़ते हैं और जो भी समाज या आखिरी छोर पर बैठे हुए लोगों के कारण बनते हैं और इसलिए जीवन जीते समय, क्‍योंकि दीक्षांत समारोह है, आज अपनी शिक्षा-दीक्षा के साथ आज समाज के उच्‍च स्‍थान पर विराजित होने वाले हैं, तब जिनके कारण हम यहां पहुंचें हैं उनको जीवन में कतई नहीं भूलेंगे। उनके लिए जीने का कुछ पल तो हम प्रयास करेंगे। मुझे विश्‍वास है कि तब जीवन बहुत धन्‍य हो जाता है।

आखिरकार धनी से धनी व्‍यक्ति.. आप जिस profession में हैं ऐसे लोग आपको मिलेंगे, पैसों का ढेर होगा, बच्‍चे होंगे, गाड़ी होगी, बंगला होगा, सब होगा और आपको आकर के कहेंगे कि यार डॉक्‍टर साहब रात को नींद नहीं आती है, पता नहीं क्‍या तकलीफ है। बहुत विचार मंथन चला रहता है, मन शांत नहीं रहता। ऐसे patient आएंगे आपके पास। सब कुछ है धन है, दौलत है, वैभव है, पैसे हैं, सब है.. मतलब यह हुआ इन चीजों से जीवन में सुख नहीं मिलता है, सुख कहीं और से मिलता है और इसलिए स्‍वांत: सुखाय मेरे भीतर के मन को आनंद दें इस प्रकार की जिंदगी जीने का प्रयास मुझे जो ईश्‍वर ने कार्य क्षेत्र दिया है उस कार्य क्षेत्र जिसको मैंने चुना है, और जिन लोगों के लिए मैं जी रहा हूं मेरे लिए यही स्‍वांत: सुखाय है। आप देखिए जिंदगी में कैसे नया रंग भर जाता है। और इसलिए उस उमंग और उत्‍साह के साथ अपने जीवन को आगे बढ़ाने का प्रयास अगर हम निरंतर करते रहेंगे, मैं विश्‍वास से कहता हूं कि आप जिस क्षेत्र में आए हैं उस क्षेत्र से आप समाज को अवश्‍य कुछ न कुछ दे सकते हैं।

Patient... हमारे यहां तो कहा है... नर सेवा और नारायण सेवा....सेवा परमोधर्म यहा कहा गया है। और medical profession ऐसा है कि जिसके कार्य को ही सेवा माना गया है। वो पैसे लेकर के करे तो भी पैसे न लेकर के करे तो भी उस काम को सेवा माना गया है। बहुत कम लोग होते हैं जिनको जीवन में सेवा ही सेवा या अवसर मिलता है। आप वो बिरादरी के लोग हैं जिनका जीवन का हर कार्य सेवा माना जाएगा और जब जैसे मंदिर में पूजा करने वाले के लिए कि परमात्‍मा को पूजा करना व्‍यवसाय नहीं है, वो पुजारी की खुद की चेतना जगाने का कार्य होता है, वैसे ही सेवा परमोधर्म है, इस प्रकार से जो patient के प्रति भाव रखता है तो उसके जीवन में उस प्रकार के आनंद की अनुभूति होती है, वो आनंद की अनुभूति आपको भी मिलती रहेगी। मुझे विश्‍वास है कि आपके जीवन में कभी भी थकान महसूस नहीं होगी, कभी रूकावाट नहीं महसूस होगी। कभी यह नहीं लगेगा काश यह न होता तो अच्‍छा होता, जहां होंगे वहीं अच्‍छे की अनुभूति होगी और वही तो जीवन का आनंद होता है।

आप यहां से जाएंगे, समाज आपको देखेगा, सिर्फ patient ही आपको देखेगा ऐसा नहीं समाज भी देखेगा। समाज के कारण हम पहुंचे हैं, उस समाज के लिए हम कुछ न कुछ तो करेंगे। जी-जान से करेंगे, जी-भरकर करेंगे। अगर यह मन का भाव रहा तो हमारा जीवन सफल हो जाता है।

आज मैं इन सभी जो award winners है, जिन्‍होंने विशेष अंक प्राप्‍त किए है उनको भी हृदय से बधाई देता हूं और आज उर्तीण होकर के एक नये जीवन की शुरूआत कर रहे हैं, उनको भी मेरी बहुत-बहुत शुभकामना देता हूं। मुझे आज यहां आने का अवसर मिला, इसलिए मैं आप सबका बहुत आभारी हूं।

धन्‍यवाद।

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'Vande Mataram' rekindled an idea deeply rooted in India for thousands of years: PM Modi in Lok Sabha
December 08, 2025
Vande Mataram energised our freedom movement: PM
It is a matter of pride for all of us that we are witnessing 150 years of Vande Mataram: PM
Vande Mataram is the force that drives us to achieve the dreams our freedom fighters envisioned: PM
Vande Mataram rekindled an idea deeply rooted in India for thousands of years: PM
Vande Mataram also contained the cultural energy of thousands of years, it also had the fervor for freedom and the vision of an independent India: PM
The deep connection of Vande Mataram with the people reflects the journey of our freedom movement: PM
Vande Mataram gave strength and direction to our freedom movement: PM
Vande Mataram was the all-encompassing mantra that inspired freedom, sacrifice, strength, purity, dedication, and resilience: PM

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आपका और सदन के सभी माननीय सदस्यों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं कि हमने इस महत्वपूर्ण अवसर पर एक सामूहिक चर्चा का रास्ता चुना है, जिस मंत्र ने, जिस जय घोष ने देश की आजादी के आंदोलन को ऊर्जा दी थी, प्रेरणा दी थी, त्याग और तपस्या का मार्ग दिखाया था, उस वंदे मातरम का पुण्य स्मरण करना, इस सदन में हम सब का यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। और हमारे लिए गर्व की बात है कि वंदे मातरम के 150 वर्ष निमित्त, इस ऐतिहासिक अवसर के हम साक्षी बना रहे हैं। एक ऐसा कालखंड, जो हमारे सामने इतिहास के अनगिनत घटनाओं को अपने सामने लेकर के आता है। यह चर्चा सदन की प्रतिबद्धता को तो प्रकट करेगी ही, लेकिन आने वाली पीढियां के लिए भी, दर पीढ़ी के लिए भी यह शिक्षा का कारण बन सकती है, अगर हम सब मिलकर के इसका सदुपयोग करें तो।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह एक ऐसा कालखंड है, जब इतिहास के कई प्रेरक अध्याय फिर से हमारे सामने उजागर हुए हैं। अभी-अभी हमने हमारे संविधान के 75 वर्ष गौरवपूर्व मनाए हैं। आज देश सरदार वल्लभ भाई पटेल की और भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती भी मना रहा है और अभी-अभी हमने गुरु तेग बहादुर जी का 350वां बलिदान दिवस भी बनाया है और आज हम वंदे मातरम की 150 वर्ष निमित्त सदन की एक सामूहिक ऊर्जा को, उसकी अनुभूति करने का प्रयास कर रहे हैं। वंदे मातरम 150 वर्ष की यह यात्रा अनेक पड़ावों से गुजरी है।

लेकिन आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम को जब 50 वर्ष हुए, तब देश गुलामी में जीने के लिए मजबूर था और वंदे मातरम के 100 साल हुए, तब देश आपातकाल की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। जब वंदे मातरम 100 साल के अत्यंत उत्तम पर्व था, तब भारत के संविधान का गला घोट दिया गया था। जब वंदे मातरम 100 साल का हुआ, तब देशभक्ति के लिए जीने-मरने वाले लोगों को जेल के सलाखों के पीछे बंद कर दिया गया था। जिस वंदे मातरम के गीत ने देश को आजादी की ऊर्जा दी थी, उसके जब 100 साल हुए, तो दुर्भाग्य से एक काला कालखंड हमारे इतिहास में उजागर हो गया। हम लोकतंत्र के (अस्पष्ट) गिरोह में थे।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

150 वर्ष उस महान अध्याय को, उस गौरव को पुनः स्थापित करने का अवसर है और मैं मानता हूं, सदन ने भी और देश ने भी इस अवसर को जाने नहीं देना चाहिए। यही वंदे मातरम है, जिसने 1947 में देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता संग्राम का भावनात्मक नेतृत्व इस वंदे मातरम के जयघोष में था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

आपके समक्ष आज जब मैं वंदे मातरम 150 निमित्त चर्चा के लिए आरंभ करने खड़ा हुआ हूं। यहां कोई पक्ष प्रतिपक्ष नहीं है, क्योंकि हम सब यहां जो बैठे हैं, एक्चुअली हमारे लिए ऋण स्वीकार करने का अवसर है कि जिस वंदे मातरम के कारण लक्ष्यावादी लोग आजादी का आंदोलन चला रहे थे और उसी का परिणाम है कि आज हम सब यहां बैठे हैं और इसलिए हम सभी सांसदों के लिए, हम सभी जनप्रतिनिधियों के लिए वंदे मातरम के ऋण स्वीकार करने का यह पावन पर्व है। और इससे हम प्रेरणा लेकर के वंदे मातरम की जिस भावना ने देश की आजादी का जंग लड़ा, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम पूरा देश एक स्वर से वंदे मातरम बोलकर आगे बढ़ा, फिर से एक बार अवसर है कि आओ, हम सब मिलकर चलें, देश को साथ लेकर चलें, आजादी का दीवानों ने जो सपने देखे थे, उन सपनों को पूरा करने के लिए वंदे मातरम 150 हम सब की प्रेरणा बने, हम सब की ऊर्जा बने और देश आत्मनिर्भर बने, 2047 में विकसित भारत बनाकर के हम रहें, इस संकल्प को दोहराने के लिए यह वंदे मातरम हमारे लिए एक बहुत बड़ा अवसर है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

दादा तबीयत तो ठीक है ना! नहीं कभी-कभी इस उम्र में हो जाता है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम की इस यात्रा की शुरुआत बंकिम चंद्र जी ने 1875 में की थी और गीत ऐसे समय लिखा गया था, जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज सल्तनत बौखलाई हुई थी। भारत पर भांति-भांति के दबाव डाल रहे थी, भांति-भांति के ज़ुल्म कर रही थी और भारत के लोगों को मजबूर किया जा रहा था अंग्रेजों के द्वारा और उस समय उनका जो राष्ट्रीय गीत था, God Save The Queen, इसको भारत में घर-घर पहुंचाने का एक षड्यंत्र चल रहा था। ऐसे समय बंकिम दा ने चुनौती दी और ईट का जवाब पत्थर से दिया और उसमें से वंदे मातरम का जन्म हुआ। इसके कुछ वर्ष बाद, 1882 में जब उन्होंने आनंद मठ लिखा, तो उस गीत का उसमें समावेश किया गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने उस विचार को पुनर्जीवित किया था, जो हजारों वर्ष से भारत की रग-रग में रचा-बसा था। उसी भाव को, उसी संस्कारों को, उसी संस्कृति को, उसी परंपरा को उन्होंने बहुत ही उत्तम शब्दों में, उत्तम भाव के साथ, वंदे मातरम के रूप में हम सबको बहुत बड़ी सौगात दी थी। वंदे मातरम, यह सिर्फ केवल राजनीतिक आजादी की लड़ाई का मंत्र नहीं था, सिर्फ हम अंग्रेज जाएं और हम खड़े हो जाएं, अपनी राह पर चलें, इतनी मात्र तक वंदे मातरम प्रेरित नहीं करता था, वो उससे कहीं आगे था। आजादी की लड़ाई इस मातृभूमि को मुक्त कराने का भी जंग था। अपनी मां भारती को उन बेड़ियों से मुक्ति दिलाने का एक पवित्र जंग था और वंदे मातरम की पृष्ठभूमि हम देखें, उसके संस्कार सरिता देखें, तो हमारे यहां वेद काल से एक बात बार-बार हमारे सामने आई है। जब वंदे मातरम कहते हैं, तो वही वेद काल की बात हमें याद आती है। वेद काल से कहा गया है "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" अर्थात यह भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यही वह विचार है, जिसको प्रभु श्री राम ने भी लंका के वैभव को छोड़ते हुए कहा था "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। वंदे मातरम, यही महान सांस्कृतिक परंपरा का एक आधुनिक अवतार है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंकिम दा ने जब वंदे मातरम की रचना की, तो स्वाभाविक ही वह स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर बन गया। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण वंदे, मातरम हर भारतीय का संकल्प बन गया। इसलिए वंदे मातरम की स्‍तुति में लिखा गया था, “मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, स्वार्थ का बलिदान है, ये शब्द हैं वंदे मातरम, है सजीवन मंत्र भी, यह विश्व विजयी मंत्र भी, शक्ति का आह्वान है, यह शब्द वंदे मातरम। उष्ण शोणित से लिखो, वक्‍तस्‍थलि को चीरकर वीर का अभिमान है, यह शब्द वंदे मातरम।”

आदरणीय अध्यक्ष जी,

कुछ दिन पूर्व, जब वंदे मातरम 150 का आरंभ हो रहा था, तो मैंने उस आयोजन में कहा था, वंदे मातरम हजारों वर्ष की सांस्‍कृतिक ऊर्जा भी थी। उसमें आजादी का जज्बा भी था और आजाद भारत का विजन भी था। अंग्रेजों के उस दौर में एक फैशन हो गई थी, भारत को कमजोर, निकम्मा, आलसी, कर्महीन इस प्रकार भारत को जितना नीचा दिखा सकें, ऐसी एक फैशन बन गई थी और उसमें हमारे यहां भी जिन्होंने तैयार किए थे, वह लोग भी वही भाषा बोलते थे। तब बंकिम दा ने उस हीन भावना को भी झंकझोरने के लिए और सामर्थ्य का परिचय कराने के लिए, वंदे मातरम के भारत के सामर्थ्यशाली रूप को प्रकट करते हुए, आपने लिखा था, त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,कमला कमलदलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी। नमामि त्वां नमामि कमलाम्, अमलाम् अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥ अर्थात भारत माता ज्ञान और समृद्धि की देवी भी हैं और दुश्मनों के सामने अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली चंडी भी हैं।

अध्यक्ष जी,

यह शब्द, यह भाव, यह प्रेरणा, गुलामी की हताशा में हम भारतीयों को हौसला देने वाले थे। इन वाक्यों ने तब करोड़ों देशवासियों को यह एहसास कराया की लड़ाई किसी जमीन के टुकड़े के लिए नहीं है, यह लड़ाई सिर्फ सत्ता के सिंहासन को कब्जा करने के लिए नहीं है, यह गुलामी की बेड़ियों को मुक्त कर हजारों साल की महान जो परंपराएं थी, महान संस्कृति, जो गौरवपूर्ण इतिहास था, उसको फिर से पुनर्जन्म कराने का संकल्प इसमें है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम, इसका जो जन-जन से जुड़ाव था, यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के एक लंबी गाथा अभिव्यक्त होती है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

जब भी जैसे किसी नदी की चर्चा होती है, चाहे सिंधु हो, सरस्वती हो, कावेरी हो, गोदावरी हो, गंगा हो, यमुना हो, उस नदी के साथ एक सांस्कृतिक धारा प्रवाह, एक विकास यात्रा का धारा प्रवाह, एक जन-जीवन की यात्रा का प्रवाह, उसके साथ जुड़ जाता है। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि आजादी जंग के हर पड़ाव, वो पूरी यात्रा वंदे मातरम की भावनाओं से गुजरता था। उसके तट पर पल्लवित होता था, ऐसा भाव काव्य शायद दुनिया में कभी उपलब्ध नहीं होगा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

अंग्रेज समझ चुके थे कि 1857 के बाद लंबे समय तक भारत में टिकना उनके लिए मुश्किल लग रहा था और जिस प्रकार से वह अपने सपने लेकर के आए थे, तब उनको लगा कि जब तक, जब तक भारत को बाटेंगे नहीं, जब तक भारत को टुकडों में नहीं बाटेंगे, भारत में ही लोगों को एक-दूसरे से लड़ाएंगे नहीं, तब तक यहां राज करना मुश्किल है और अंग्रेजों ने बाटों और राज करो, इस रास्ते को चुना और उन्होंने बंगाल को इसकी प्रयोगशाला बनाया क्यूंकि अंग्रेज़ भी जानते थे, वह एक वक्त था जब बंगाल का बौद्धिक सामर्थ्‍य देश को दिशा देता था, देश को ताकत देता था, देश को प्रेरणा देता था और इसलिए अंग्रेज भी चाहते थे कि बंगाल का यह जो सामर्थ्‍य है, वह पूरे देश की शक्ति का एक प्रकार से केंद्र बिंदु है। और इसलिए अंग्रेजों ने सबसे पहले बंगाल के टुकड़े करने की दिशा में काम किया। और अंग्रेजों का मानना था कि एक बार बंगाल टूट गया, तो यह देश भी टूट जाएगा और वो यावच चन्द्र-दिवाकरौ राज करते रहेंगे, यह उनकी सोच थी। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, लेकिन जब अंग्रेजों ने 1905 में यह पाप किया, तो वंदे मातरम चट्टान की तरह खड़ा रहा। बंगाल की एकता के लिए वंदे मातरम गली-गली का नाद बन गया था और वही नारा प्रेरणा देता था। अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन के साथ ही भारत को कमजोर करने के बीज और अधिक बोने की दिशा पकड़ ली थी, लेकिन वंदे मातरम एक स्वर, एक सूत्र के रूप में अंग्रेजों के लिए चुनौती बनता गया और देश के लिए चट्टान बनता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंगाल का विभाजन तो हुआ, लेकिन एक बहुत बड़ा स्वदेशी आंदोलन खड़ा हुआ और तब वंदे मातरम हर तरफ गूंज रहा था। अंग्रेज समझ गए थे कि बंगाल की धरती से निकला, बंकिम दा का यह भाव सूत्र, बंकित बाबू बोलें अच्छा थैंक यू थैंक यू थैंक यू आपकी भावनाओं का मैं आदर करता हूं। बंकिम बाबू ने, बंकिम बाबू ने थैंक यू दादा थैंक यू, आपको तो दादा कह सकता हूं ना, वरना उसमें भी आपको ऐतराज हो जाएगा। बंकिम बाबू ने यह जो भाव विश्व तैयार किया था, उनके भाव गीत के द्वारा, उन्होंने अंग्रेजों को हिला दिया और अंग्रेजों ने देखिए कितनी कमजोरी होगी और इस गीत की ताकत कितनी होगी, अंग्रेजों ने उसको कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। गाने पर सजा, छापने पर सजा, इतना ही नहीं, वंदे मातरम शब्द बोलने पर भी सजा, इतने कठोर कानून लागू कर दिए गए थे। हमारे देश की आजादी के आंदोलन में सैकड़ों महिलाओं ने नेतृत्व किया, लक्ष्यावधि महिलाओं ने योगदान दिया। एक घटना का मैं जिक्र करना चाहता हूं, बारीसाल, बारीसाल में वंदे मातरम गाने पर सर्वाधिक जुल्म हुए थे। वो बारीसाल आज भारत का हिस्सा नहीं रहा है और उस समय बारीसाल के हमारे माताएं, बहने, बच्चे मैदान उतरे थे, वंदे मातरम के स्वाभिमान के लिए, इस प्रतिबंध के विरोध में लड़ाई के मैदान में उतरी थी और तब बारीसाल कि यह वीरांगना श्रीमती सरोजिनी घोष, जिन्होंने उस जमाने में वहां की भावनाओं को देखिए और उन्होंने कहा था की वंदे मातरम यह जो प्रतिबंध लगा है, जब तक यह प्रतिबंध नहीं हटता है, मैं अपनी चूड़ियां जो पहनती हूं, वो निकाल दूंगी। भारत में वह एक जमाना था, चूड़ी निकालना यानी महिला के जीवन की एक बहुत बड़ी घटना हुआ करती थी, लेकिन उनके लिए वंदे मातरम वह भावना थी, उन्होंने अपनी सोने की चूड़ियां, जब तक वंदे मातरम प्रतिबंध नहीं हटेगा, मैं दोबारा नहीं धारण करूंगी, ऐसा बड़ा व्रत ले लिया था। हमारे देश के बालक भी पीछे नहीं रहे थे, उनको कोड़े की सजा होती थी, छोटी-छोटी उम्र में उनको जेल में बंद कर दिया जाता था और उन दिनों खास करके बंगाल की गलियों में लगातार वंदे मातरम के लिए प्रभात फेरियां निकलती थी। अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था और उस समय एक गीत गूंजता था बंगाल में जाए जाबे जीवोनो चोले, जाए जाबे जीवोनो चोले, जोगोतो माझे तोमार काँधे वन्दे मातरम बोले (In Bengali) अर्थात हे मां संसार में तुम्हारा काम करते और वंदे मातरम कहते जीवन भी चला जाए, तो वह जीवन भी धन्य है, यह बंगाल की गलियों में बच्चे कह रहे थे। यह गीत उन बच्चों की हिम्मत का स्वर था और उन बच्चों की हिम्मत ने देश को हिम्मत दी थी। बंगाल की गलियों से निकली आवाज देश की आवाज बन गई थी। 1905 में हरितपुर के एक गांव में बहुत छोटी-छोटी उम्र के बच्चे, जब वंदे मातरम के नारे लगा रहे थे, अंग्रेजों ने बेरहमी से उन पर कोड़े मारे थे। हर एक प्रकार से जीवन और मृत्यु के बीच लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। इतना अत्याचार हुआ था। 1906 में नागपुर में नील सिटी हाई स्कूल के उन बच्चों पर भी अंग्रेजों ने ऐसे ही जुल्म किए थे। गुनाह यही था कि वह एक स्वर से वंदे मातरम बोल करके खड़े हो गए थे। उन्होंने वंदे मातरम के लिए, मंत्र का महात्म्य अपनी ताकत से सिद्ध करने का प्रयास किया था। हमारे जांबाज सपूत बिना किसी डर के फांसी के तख्त पर चढ़ते थे और आखिरी सांस तक वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम, यही उनका भाव घोष रहता था। खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामकृष्ण विश्वास अनगिनत जिन्होंने वंदे मातरम कहते-कहते फांसी के फंदे को अपने गले पर लगाया था। लेकिन देखिए यह अलग-अलग जेलों में होता था, अलग-अलग इलाकों में होता था। प्रक्रिया करने वाले चेहरे अलग थे, लोग अलग थे। जिन पर जुल्म हो रहा था, उनकी भाषा भी अलग थी, लेकिन एक भारत, श्रेष्ठ भारत, इन सबका मंत्र एक ही था, वंदे मातरम। चटगांव की स्वराज क्रांति जिन युवाओं ने अंग्रेजों को चुनौती दी, वह भी इतिहास के चमकते हुए नाम हैं। हरगोपाल कौल, पुलिन विकाश घोष, त्रिपुर सेन इन सबने देश के लिए अपना बलिदान दिया। मास्टर सूर्य सेन को 1934 में जब फांसी दी गई, तब उन्होंने अपने साथियों को एक पत्र लिखा और पत्र में एक ही शब्द की गूंज थी और वह शब्द था वंदे मातरम।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

हम देशवासियों को गर्व होना चाहिए, दुनिया के इतिहास में कहीं पर भी ऐसा कोई काव्य नहीं हो सकता, ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो सदियों तक एक लक्ष्य के लिए कोटि-कोटि जनों को प्रेरित करता हो और जीवन आहूत करने के लिए निकल पड़ते हों, दुनिया में ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो वंदे मातरम है। पूरे विश्व को पता होना चाहिए कि गुलामी के कालखंड में भी ऐसे लोग हमारे यहां पैदा होते थे, जो इस प्रकार के भाव गीत की रचना कर सकते थे। यह विश्व के लिए अजूबा है, हमें गर्व से कहना चाहिए, तो दुनिया भी मनाना शुरू करेगी। यह हमारी स्वतंत्रता का मंत्र था, यह बलिदान का मंत्र था, यह ऊर्जा का मंत्र था, यह सात्विकता का मंत्र था, यह समर्पण का मंत्र था, यह त्याग और तपस्या का मंत्र था, संकटों को सहने का सामर्थ्य देने का यह मंत्र था और वह मंत्र वंदे मातरम था। और इसलिए गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, उन्होंने लिखा था, एक कार्ये सोंपियाछि सहस्र जीवन—वन्दे मातरम् (In Bengali) अर्थात एक सूत्र में बंधे हुए सहस्त्र मन, एक ही कार्य में अर्पित सहस्त्र जीवन, वंदे मातरम। यह रविंद्रनाथ टैगोर जी ने लिखा था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

उसी कालखंड में वंदे मातरम की रिकॉर्डिंग दुनिया के अलग-अलग भागों में पहुंची और लंदन में जो क्रांतिकारियों की एक प्रकार से तीर्थ भूमि बन गया था, वह लंदन का इंडिया हाउस वीर सावरकर जी ने वहां वंदे मातरम गीत गाया और वहां यह गीत बार-बार गूंजता था। देश के लिए जीने-मरने वालों के लिए वह एक बहुत बड़ा प्रेरणा का अवसर रहता था। उसी समय विपिन चंद्र पाल और महर्षि अरविंद घोष, उन्होंने अखबार निकालें, उस अखबार का नाम भी उन्होंने वंदे मातरम रखा। यानी डगर-डगर पर अंग्रेजों के नींद हराम करने के लिए वंदे मातरम काफी हो जाता था और इसलिए उन्होंने इस नाम को रखा। अंग्रेजों ने अखबारों पर रोक लगा दी, तो मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में एक अखबार निकाला और उसका नाम उन्होंने वंदे मातरम रखा!

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने भारत को स्वावलंबन का रास्ता भी दिखाया। उस समय माचिस के डिबिया, मैच बॉक्स, वहां से लेकर के बड़े-बड़े शिप उस पर भी वंदे मातरम लिखने की परंपरा बन गई और बाहरी कंपनियों को चुनौती देने का एक माध्यम बन गया, स्वदेशी का एक मंत्र बन गया। आजादी का मंत्र स्वदेशी के मंत्र की तरह विस्तार होता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

मैं एक और घटना का जिक्र भी करना चाहता हूं। 1907 में जब वी ओ चिदंबरम पिल्लई, उन्होंने स्वदेशी कंपनी का जहाज बनाया, तो उस पर भी लिखा था वंदेमातरम। राष्ट्रकवि सुब्रमण्यम भारती ने वंदे मातरम को तमिल में अनुवाद किया, स्तुति गीत लिखे। उनके कई तमिल देशभक्ति गीतों में वंदे मातरम की श्रद्धा साफ-साफ नजर आती है। शायद सभी लोगों को लगता है, तमिलनाडु के लोगों को पता हो, लेकिन सभी लोगों को यह बात का पता ना हो कि भारत का ध्वज गीत वी सुब्रमण्यम भारती ने ही लिखा था। उस ध्वज गीत का वर्णन जिस पर वंदे मातरम लिखा हुआ था, तमिल में इस ध्वज गीत का शीर्षक था। Thayin manikodi pareer, thazhndu panintu Pukazhnthida Vareer! (In Tamil) अर्थात देश प्रेमियों दर्शन कर लो, सविनय अभिनंदन कर लो, मेरी मां की दिव्य ध्वजा का वंदन कर लो।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आज इस सदन में वंदे मातरम पर महात्मा गांधी की भावनाएं क्या थी, वह भी रखना चाहता हूं। दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी, इंडियन ओपिनियन और और इस इंडियन ओपिनियन में महात्मा गांधी ने 2 दिसंबर 1905 जो लिखा था, उसको मैं कोट कर रहा हूं। उन्होंने लिखा था, महात्मा गांधी ने लिखा था, “गीत वंदे मातरम जिसे बंकिम चंद्र ने रचा है, पूरे बंगाल में अत्यंत लोकप्रिय हो गया है, स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल में विशाल सभाएं हुईं, जहां लाखों लोग इकट्ठा हुए और बंकिम का यह गीत गाया।” गांधी जी आगे लिखते हैंं, यह बहुत महत्वपूर्ण है, वह लिखते हैं यह 1905 की बात है। उन्होंने लिखा, “यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया है, जैसे यह हमारा नेशनल एंथम बन गया है। इसकी भावनाएं महान हैं और यह अन्य राष्ट्रों के गीतों से अधिक मधुर है। इसका एकमात्र उद्देश्य हम में देशभक्ति की भावना जगाना है। यह भारत को मां के रूप में देखता है और उसकी स्तुति करता है।”

अध्यक्ष जी,

जो वंदे मातरम 1905 में महात्मा गांधी को नेशनल एंथम के रूप में दिखता था, देश के हर कोने में, हर व्यक्ति के जीवन में, जो भी देश के लिए जीता-जागता, जिस देश के लिए जागता था, उन सबके लिए वंदे मातरम की ताकत बहुत बड़ी थी। वंदे मातरम इतना महान था, जिसकी भावना इतनी महान थी, तो फिर पिछली सदी में इसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों हुआ? वंदे मातरम के साथ विश्वासघात क्यों हुआ? यह अन्याय क्यों हुआ? वह कौन सी ताकत थी, जिसकी इच्छा खुद पूज्‍य बापू की भावनाओं पर भी भारी पड़ गई? जिसने वंदे मातरम जैसी पवित्र भावना को भी विवादों में घसीट दिया। मैं समझता हूं कि आज जब हम वंदे मातरम के 150 वर्ष का पर्व बना रहे हैं, यह चर्चा कर रहे हैं, तो हमें उन परिस्थितियों को भी हमारी नई पीडिया को जरूर बताना हमारा दायित्व है। जिसकी वजह से वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया गया। वंदे मातरम के प्रति मुस्लिम लीग की विरोध की राजनीति तेज होती जा रही थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने लखनऊ से 15 अक्टूबर 1937 को वंदे मातरम के विरुद्ध का नारा बुलंद किया। फिर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को अपना सिंहासन डोलता दिखा। बजाय कि नेहरू जी मुस्लिम लीग के आधारहीन बयानों को तगड़ा जवाब देते, करारा जवाब देते, मुस्लिम लीग के बयानों की निंदा करते और वंदे मातरम के प्रति खुद की भी और कांग्रेस पार्टी की भी निष्ठा को प्रकट करते, लेकिन उल्टा हुआ। वो ऐसा क्यों कर रहे हैं, वह तो पूछा ही नहीं, न जाना, लेकिन उन्होंने वंदे मातरम की ही पड़ताल शुरू कर दी। जिन्ना के विरोध के 5 दिन बाद ही 20 अक्टूबर को नेहरू जी ने नेताजी सुभाष बाबू को चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी में जिन्ना की भावना से नेहरू जी अपनी सहमति जताते हुए कि वंदे मातरम भी यह जो उन्होंने सुभाष बाबू को लिखा है, वंदे मातरम की आनंद मठ वाली पृष्ठभूमि मुसलमानों को इरिटेट कर सकती है। मैं नेहरू जी का क्वोट पढ़ता हूं, नेहरू जी कहते हैं “मैंने वंदे मातरम गीत का बैकग्राउंड पड़ा है।” नेहरू जी फिर लिखते हैं, “मुझे लगता है कि यह जो बैकग्राउंड है, इससे मुस्लिम भड़केंगे।”

साथियों,

इसके बाद कांग्रेस की तरफ से बयान आया कि 26 अक्टूबर से कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक कोलकाता में होगी, जिसमें वंदे मातरम के उपयोग की समीक्षा की जाएगी। बंकिम बाबू का बंगाल, बंकिम बाबू का कोलकाता और उसको चुना गया और वहां पर समीक्षा करना तय किया। पूरा देश हतप्रभ था, पूरा देश हैरान था, पूरे देश में देशभक्तों ने इस प्रस्ताव के विरोध में देश के कोने-कोने में प्रभात फेरियां निकालीं, वंदे मातरम गीत गाया लेकिन देश का दुर्भाग्य कि 26 अक्टूबर को कांग्रेस ने वंदे मातरम पर समझौता कर लिया। वंदे मातरम के टुकड़े करने के फैसले में वंदे मातरम के टुकड़े कर दिए। उस फैसले के पीछे नकाब ये पहना गया, चोला ये पहना गया, यह तो सामाजिक सद्भाव का काम है। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए और मुस्लिम लीग के दबाव में किया और कांग्रेस का यह तुष्टीकरण की राजनीति को साधने का एक तरीका था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

तुष्टीकरण की राजनीति के दबाव में कांग्रेस वंदे मातरम के बंटवारे के लिए झुकी, इसलिए कांग्रेस को एक दिन भारत के बंटवारे के लिए झुकना पड़ा। मुझे लगता है, कांग्रेस ने आउटसोर्स कर दिया है। दुर्भाग्य से कांग्रेस के नीतियां वैसी की वैसी ही हैं और इतना ही नहीं INC चलते-चलते MMC हो गया है। आज भी कांग्रेस और उसके साथी और जिन-जिन के नाम के साथ कांग्रेस जुड़ा हुआ है सब, वंदे मातरम पर विवाद खड़ा करने की कोशिश करते हैं।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके जीवटता उसके अच्छे कालखंड से ज्यादा, जब चुनौतियों का कालखंड होता है, जब संकटों का कालखंड होता है, तब प्रकट होती हैं, उजागर होती हैं और सच्‍चे अर्थ में कसौटी से कसी जाती हैं। जब कसौटी का काल आता है, तब ही यह सिद्ध होता है कि हम कितने दृढ़ हैं, कितने सशक्त हैं, कितने सामर्थ्यवान हैं। 1947 में देश आजाद होने के बाद देश की चुनौतियां बदली, देश के प्राथमिकताएं बदली, लेकिन देश का चरित्र, देश की जीवटता, वही रही, वही प्रेरणा मिलती रही। भारत पर जब-जब संकट आए, देश हर बार वंदे मातरम की भावना के साथ आगे बढ़ा। बीच का कालखंड कैसा गया, जाने दो। लेकिन आज भी 15 अगस्त, 26 जनवरी की जब बात आती है, हर घर तिरंगा की बात आती है, चारों तरफ वो भाव दिखता है। तिरंगे झंडे फहरते हैं। एक जमाना था, जब देश में खाद्य का संकट आया, वही वंदे मातरम का भाव था, मेरे देश के किसानों के अन्‍न के भंडार भर दिए और उसके पीछे भाव वही है वंदे मातरम। जब देश की आजादी को कुचलना की कोशिश हुए, संविधान की पीठ पर छुरा घोप दिया गया, आपातकाल थोप दिया गया, यही वंदे मातरम की ताकत थी कि देश खड़ा हुआ और परास्त करके रहा। देश पर जब भी युद्ध थोपे गए, देश को जब भी संघर्ष की नौबत आई, यही वंद मातरम का भाव था, देश का जवान सीमाओं पर अड़ गया और मां भारती का झंडा लहराता रहा, विजय श्री प्राप्त करता रहा। कोरोना जैसा वैश्विक महासंकट आया, यही देश उसी भाव से खड़ा हुआ, उसको भी परास्त करके आगे बढ़ा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह राष्ट्र की शक्ति है, यह राष्ट्र को भावनाओं से जोड़ने वाला सामर्थ्‍यवान एक ऊर्जा प्रवाह है। यह चेतना परवाह है, यह संस्कृति की अविरल धारा का प्रतिबिंब है, उसका प्रकटीकरण है। यह वंदे मातरम हमारे लिए सिर्फ स्मरण करने का काल नहीं, एक नई ऊर्जा, नई प्रेरणा का लेने का काल बन जाए और हम उसके प्रति समर्पित होते चलें और मैंने पहले कहा हम लोगों पर तो कर्ज है वंदे मातरम का, वही वंदे मातरम है, जिसने वह रास्ता बनाया, जिस रास्ते से हम यहां पहुंचे हैं और इसलिए हमारा कर्ज बनता है। भारत हर चुनौतियों को पार करने में सामर्थ्‍य है। वंदे मातरम के भाव की वो ताकत है। वंदे मातरम यह सिर्फ गीत या भाव गीत नहीं, यह हमारे लिए प्रेरणा है, राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के लिए हमें झकझोरने वाला काम है और इसलिए हमें निरंतर इसको करते रहना होगा। हम आत्मनिर्भर भारत का सपना लेकर के चल रहे हैं, उसको पूरा करना है। वंदे मातरम हमारी प्रेरणा है। हम स्वदेशी आंदोलन को ताकत देना चाहते हैं, समय बदला होगा, रूप बदले होंगे, लेकिन पूज्य गांधी ने जो भाव व्यक्त किया था, उस भाव की ताकत आज भी हमें मौजूद है और वंदे मातरम हमें जोड़ता है। देश के महापुरुषों का सपना था स्वतंत्र भारत का, देश की आज की पीढ़ी का सपना है समृद्ध भारत का, आजाद भारत के सपने को सींचा था वंदे भारत की भावना ने, वंदे भारत की भावना ने, समृद्ध भारत के सपने को सींचेगा वंदे मातरम के भवना, उसी भावनाओं को लेकर के हमें आगे चलना है। और हमें आत्मनिर्भर भारत बनाना, 2047 में देश विकसित भारत बन कर रहे। अगर आजादी के 50 साल पहले कोई आजाद भारत का सपना देख सकता था, तो 25 साल पहले हम भी तो समृद्ध भारत का सपना देख सकते हैं, विकसित भारत का सपना देख सकते हैं और इस सपने के लिए अपने आप को खपा भी सकते हैं। इसी मंत्र और इसी संकल्प के साथ वंदे मातरम हमें प्रेरणा देता रहे, वंदे मातरम का हम ऋण स्वीकार करें, वंदे मातरम की भावनाओं को लेकर के चलें, देशवासियों को साथ लेकर के चलें, हम सब मिलकर के चलें, इस सपने को पूरा करें, इस एक भाव के साथ यह चर्चा का आज आरंभ हो रहा है। मुझे पूरा विश्वास है कि दोनों सदनों में देश के अंदर वह भाव भरने वाला कारण बनेगा, देश को प्रेरित करने वाला कारण बनेगा, देश की नई पीढ़ी को ऊर्जा देने का कारण बनेगा, इन्हीं शब्दों के साथ आपने मुझे अवसर दिया, मैं आपका बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूं। बहुत-बहुत धन्यवाद!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!