उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री, श्रीमान अहमद हसन जी उत्तर प्रदेश के मंत्री और इसी इलाके के प्रतिनिधि श्रीमान सुरेंद्र सिंह जी, हमारे एमएलसी श्रीमान केदारनाथ श्रीजी, ग्राम के प्रधान, आदरणीय बहन दुर्गा देवी जी, श्री अरविन्द जी और विशाल संख्या में पधारे हुए जयापुर के प्यारे भाईयों और बहनों

भारत सरकार ने एक सांसद आदर्श ग्राम योजना की कल्पना की है। अब मुझे भी एक सांसद के नाते इस आदर्श ग्राम योजना की जिम्मेवारी लेनी थी। मैं पिछले दिनों अखबार में भांति-भांति की कल्पना कथाएं पढ़ रहा था। कोई कहता है जयापुर इस कारण से लिया है, कोई कहता है जयापुर उस कारण से लिया है, किसी ने कहा जयापुर ऐसे लिया है, जयापुर में ऐसा है, जयापुर में वैसा है, पता नहीं इतनी कथाएं मैं पिछले दिनों पढ़ रहा हूं कि मैं हैरान हूं, लेकिन इतना Fertile दिमाग लोगों का रहता है .. मैंने इस गांव में क्यों आना पसंद किया, जो मैं पढ़ रहा हूं, ऐसी किसी बात का मुझे पता नहीं है। मैंने पसंद किया उसका एक बहुत छोटा सा कारण है और छोटा कारण यह है कि जब भारतीय जनता पार्टी ने मुझे बनारस से पार्लियामेंट का चुनाव लड़ने के लिए घोषित किया, उसके कुछ ही समय के बाद मुझे जानकारी मिली की जयापुर में आग लगने के कारण 5 लोगों की मृत्यु हो गई और बहुत बड़ा हादसा हुआ। बनारस लोकसभा क्षेत्र में किसी एक गांव का सबसे पहले मैंने नाम सुना तो जयापुर का सुना था। वो भी एक संकट की घड़ी में सुना था। मैंने.. मैं एमपी तो था नहीं, सरकार भी हमारी यहां नहीं थी लेकिन मैंने सरकारी अधिकारियों को फोन किए, हमारे कार्यकर्ताओं को फोन किए और सब लोग यहां मदद के लिए पहुंचे थे। तो ये एक कारण था, जिसके कारण मेरे दिल दिमाग में जयापुर ने जगह ले ली थी। जिस संबंध का प्रारंभ संकट की घड़ी से होता है, वो संबंध चिरंजीवी बन जाता है। यही एक छोटा सा कारण है कि मेरा जयापुर से जुड़ने का एक सौभाग्य बन गया। बाकि जिन्होंने जितनी कथा चलाई है, सब गलत है, सब बेकार है। मैं खुद उन कथाओं को नहीं जानता हूं।

अब कुछ लोगों ने लिखा कि प्रधानमंत्री ने एक गांव को गोद लिया है। ये सांसद आदर्श ग्राम योजना ऐसी है कि हकीकत में कोई सांसद गांव को गोद नहीं ले रहा है, गांव सांसद को गोद ले रहा है। क्योंकि हम सांसद बन जाएं, हम मंत्री बन जाएं, मुख्यमंत्री बन जाएं, प्रधानमंत्री बन जाएं, हम कहीं पर भी पहु्ंचें लेकिन गांव के लोगों से जो सीखने को मिलता है वो कहीं और नहीं मिलता। अगर मुझे अच्छा जन-प्रतिनिधि बनना है, अगर मुझे अच्छे जन-प्रतिनिधि रूप में लोगों को समझना है, समस्याओं को समझना है, कुछ सीखना है तो मैं बाबुओं के बीच बैठ करके नहीं सीख सकता, अफसरों के बीच बैठ करके नहीं सीख सकता। ये मुझे शिक्षा-दीक्षा मिल सकती है गांव के अनुभवी लोगों के पास। उनके पास स्कूल-कॉलेज की डिग्री हो या न हो, लेकिन उनका अनुभव, उनका तर्जुबा इतना होता है.. समस्याओं के बीच रास्ते खोजने को जो उनका तरीका होता है, उनकी कल्पना शक्ति को समझने का जो अवसर मिलता है वो जन-प्रतिनिधियों के लिए भी एक उत्तम शिक्षा का अवसर होता है, इसलिए जयापुर को मैंने गोद नहीं लिया है, मैं जयापुर को प्रार्थना करने आया हूं कि आप अपने सांसद को गोद लीजिए और आपके सांसद को सिखाईये कि भई गांव की समस्याओं का समाधान कैसे होता है। आजादी के इतने बाद भी, कितने वर्ष बीत गए हमारे गांव की हालत ऐसी क्यों रही? वो सही में रास्ता बताएगा की देखिए आपने दिल्ली में, लखनऊ में बैठ करके जो योजनाएं बनाई हैं, 60 साल तक बनाई हैं, अरबों-खरबों रुपया खर्च किया है अब कुछ हमारी सुनो और जो हम कहें वो करो।

ये एक मैंने रास्ता उल्टा करने का प्रयास किया है और मेरा विश्वास है कि 60 साल तक हम एक ही बात को ले करके चले.. क्योंकि जब आजादी की लड़ाई लड़ते थे, तबसे एक बात हमारे मन में एक बात बैठ गई कि एक बार आजादी आ जाएगी, बस फिर कुछ नहीं करना है फिर सब अपने आप हो जाएगा, इसी इंतजार में रहे। फिर समय आया, हमें लगने लगा कि सरकार ये नहीं करती, सरकार वो नहीं करती, बाबू ये नहीं करता, टीचर वो नहीं करता, क्यों नहीं करता, तो समाज और सरकार अलग-अलग होने लग गईं। सरकार एक जगह पे, समाज दूसरी जगह पे। एक बहुत बड़ी खाई हो गई। इसका मतलब ये हुआ कि 60 साल तक हमने जो तौर-तरीके अपनाये, जो रास्ते अपनाएं वे ऐसे रास्ते हैं, जिनमें कुछ न कुछ कमी नजर आती है। सब कुछ गलत नहीं होगा, सब कुछ बुरा भी नहीं होगा, लेकिन कुछ न कुछ कमी नजर आती है। क्या इस कमी को हम भर सकते है? और ये कमी इस बात की है कि ये देश हमारा है, ये गांव हमारा है, ये मोहल्ला हमारा है, क्या हमें अपना गांव, अपना मोहल्ला, सबने मिल करके अच्छा बनाना चाहिए कि नहीं बनाना चाहिए? कहीं एक गड्ढा हो गया हो, तो हम किराया खर्च के लखनऊ जाएंगे, लखनऊ जा करके मेमोरेंडम देगें कि हमारे गांव का गड्ढा भर दो। उसमें हम सैकड़ों रुपया खर्च कर देंगे लेकिन मिल करके तय करें कि गड्ढा भर देना है तो गड्ढा भर जाता है।

इसलिए आदर्श ग्राम योजना.. मैं देख रहा हूं कि कुछ गांवों में स्पर्धा चल पड़ी है कि हमारा गांव आदर्श गांव बने, सांसद हमारा गांव ले। ये गलती इसलिए हो रही है कि लोगों के मन ये भ्रम है कि सांसद अगर ग्राम ले लेगा, तो उसके कारण पैसे आने वाले हैं। इस योजना में पैसे है ही नहीं। ये योजना पैसों वाली है ही नहीं क्योंकि पैसे हो तो फिर कोई खाने वाला भी निकल आएगा न। ये योजना ऐसी है कि सरकार की इतनी योजनाएं चल रही है, इतने रुपये खर्च हो रहे है, गांव के जीवन में बदलाव क्यों नहीं आ रहा, क्या कारण है?

मैने अभी, भारत सरकार के सबसे बड़े जो बाबू हैं, जो देश का एक प्रकार से कारोबार चलाते हैं, उनको दिवाली के निमित्त मेरे यहां चाय के लिए बुलाया था। सब बहुत बड़े-बड़े अफसर हैं, बहुत बड़े-बड़े बाबू हैं उनको मिलना भी सामान्य नागरिक के लिए बहुत मुश्किल होता है, इतने बड़े लोग हैं। मैंने उनको चाय पे बुलाया था, मैंने उनको एक काम कहा, मैंने कहा कि देखिए आप इतने बड़े अफसर बन गए हैं, लेकिन जब पहली बार आईएएस अफसर बन करके आए होंगे तो पहली नौकरी जहां लगी होगी और जहां आपने कम से कम सालभर काम किया होगा, मैंने कहा कि आने वाले दिनों में आप लोग जहां आपने नौकरी की शुरुआत की थी उस गांव में जाओ और अपने बच्चों के साथ जाओ, परिवार को ले करके जाओ, उनको दिखाओ कि आप जब छोटे थे, नए-नए आए थे, शादी नहीं हुई थी, नौकरी की शुरुआत थी, कहाँ रहते थे, किस दफ्तर में बैठते थे, कैसी गाड़ी में घुमते थे, उस समय कौन पहचान वाले लोग थे जब आप परिचय कराओ परिवारजनों से और फिर रात को वहां रूको। कम से कम तीन दिन रूको और रात को सोते समय सोचों कि 30 साल पहले, 25 साल पहले यहां पर आपने नौकरी की होगी, ये गांव आप जैसा छोड़ गए थे, उसमें कुछ बदलाव आया है क्या 30-40 साल में? आप तो यहां से यहां पहुंच गए, लेकिन गांव वहां का वहां रहा गया। आप खुद जा करके देखिए। मैंने उनको कहा है कि खुद जा करके देखिए और अपने परिवार को भी दिखाइए मैं एक ऐसी जागृति लाना चाहता हूं, ऐसी संवेदना पैदा करना चाहता हूं कि हम सोचें। हम भले ही कितने आगे चले जाएं, लेकिन जिन्होंने हमें आगे भेजा है, उनको तो कोई आगे ले जाने का प्रबंध हो और इसलिए ये मेरी कोशिश है कि हम लोगों के बीच जा करके, लोगों के साथ मिल करके, सरकार की वर्तमान जो योजनाएं हैं, उन योजनाओं को लागू करवा के अपनी आंखों के सामने वो सब देखें कि वे योजनाएं शत-प्रतिशत लागू होती हैं कि नहीं होती। देखिए, गांव में परिवर्तन आता है कि नहीं आता है। उन योजनाओं के लागू करने में कठिनाई आ रही है तो नीतिगत परिवर्तन लाने की जरूरत है तो वो परिवर्तन क्या लाना है। एक बार, एक गांव भी अगर सांसद इस प्रकार से बना देगा न, अपने आप और गांव को उस दिशा में काम करने के लिए सभी सरकार को, बाबुओं को आदत लग जाएगी।

मुझे एक ऐसा माहौल बनाना है कि जयापुर में भी, क्या जयापुर के लोग इतना फैसला कर सकते हैं? मैं कुछ दिनों से टीवी पर देख रहा हूं, जयापुर चमक रहा है टीवी पर। सरकारी लोग भी आए हैं, सफाई कर रहे थे, रास्ते ठीक कर रहे थे। क्यों? तो बोले मोदी जी आने वाले हैं और गांव वाले भी कहते हैं कि मोदी जी हर बार आ जाए तो अच्छा होगा, गांव साफ हो जाएगा। क्या ये सोच सही है क्या? क्या हम नहीं तय कर सकते कि चलो भई इस निमित्त अब गांव साफ हो गया है। अब मेरा जयापुर गांव का एक-एक नागरिक तय करें, हम हमारे गांव को गंदा नहीं होने देंगे। ये आदर्श ग्राम की शुरूआत हुई कि नहीं हुई? हुई कि नहीं हुई? करेंगे? आप मुझे बताईये मैं जयापुर के लोगों को पूंछू- कि हमारे इस गांव में सबसे पुराना, सबसे बड़ी उम्र का वृक्ष कौन सा है? कौन सा है जो सबसे पुराना है, सबसे बूढ़ा है? कभी सोचा है गांव वालों ने? नहीं सोचा होगा। क्या कभी स्कूल के मास्टर जी को लगा कि चलो भई हम स्कूल के सभी बच्चों को ले करके उस पेड़ के पास ले जाएं और उनको कहें कि देखिए ये पेड़ 150 साल पुराना है, 200 साल पुराना है और उसको कहें कि तुम्हारे दादा के दादा थे न, वो भी इस पर खेला करते थे, तुम्हारे परिवार के लोग थे न, वो भी यहां आते थे। उस पेड़ के साथ उसका लगाव होगा। आज किसी गांव को मालूम नहीं होगा कि हमारे गांव का सबसे पुरातन पेड़ कौन सा है। कौन सा वृक्ष सबसे पुरातन है। क्यों? हमें इन चीजों से लगाव नहीं है। हमारे गांव में 100 साल से ऊपर के लोग कितने हैं? 75 साल से ऊपर लोग कितने हैं? वयोवृद्ध लोग कितने हैं? क्या कभी हमारे गांव के बालकों को इन वृद्ध परिवारों के साथ बिठा करके उनके साथ कोई संवाद का कार्यक्रम किया क्या कि आप छोटे थे तब क्या करते थे? तब स्कूल था क्या? टीचर आता था क्या? तब खाना-पीना कैसे होता था? उस समय ठंड कैसी रहती थी? गर्मी कैसी थी? कभी किया है ये जो सहज रूप से एक गांव का अपनापन का माहौल होता है वो धीरे धीरे धीरे सिकुड़ता चला जा रहा है। क्या हम मिल करके इस माहौल को बदलने की शुरूआत कर सकते हैं क्या?

मुझे बताइए, ये अपना जयापुर गांव, उसका जन्मदिन क्या है? मालूम है क्या? नहीं है। कोई तो होगा इसका जन्मदिन। कभी न कभी तो इस गांव का जन्म हुआ होगा, अगर हमें मालूम नहीं है तो हम जरा खोजें, सरकारी दफ्तरों में कि भई ये जयापुर गांव सरकारी रिकॉर्ड पर कब आया, ढूंढें, अगर नहीं मिलता है तो हम सब गांव वाले मिल करके तय करें कि भई फलानी तारीख को हर वर्ष हम गांव का जन्मदिन मनाएंगे, हम अपना तो जन्मदिन मनाते हैं, कभी ये मेरा गांव, जहां मैं पैदा हुआ हूं मैं बड़ा हुआ हूं.. हम मिल करके गांव का जन्मदिन मनाये। उस दिन इस गांव से पढ़-लिखकर बाहर गए है, रोजी-रोटी कमाने बाहर गए है, उन सबको भी रहना चाहिए कि अपने गांव का जन्मदिन है, उस दिन तो गांव जाना ही पड़ेगा। सारे गांव से जो बाहर गए हैं, उन सबको उस दिन आना ही पड़ेगा और उस दिन हमारे जो 75-80-90 की उम्र के जो गांव के एकदम वृद्ध लोग हैं उनका सम्मान किया जाए। आप मुझे बताइए जब गांव अपना जन्मदिन मनाएगा तो गांव में सफाई गांव के लोग करेंगे कि नहीं करेंगे? गांव में बदलाव आएगा कि नहीं आएगा? हमारे शहर में रहने वाले लोग हैं जो कोई अगर धनी हो गया, पैसे वाला हो गया वो गांव में आएगा और उसको अगर पता चलेगा कि भई गांव के अंदर स्कूल में एक पंखा लगाने की जरूरत है तो पंखा दान में दे के जाएगा कि नहीं जाएगा?

देखिए, बिना सरकार समाज की शक्ति जागृति करके हम एक आदर्श गांव की दिशा में कैसे आगे बढ़ें। अगर हम तय करें कि हमारे गांव में एक भी बच्चा ऐसा नहीं होगा जो खाना खाने से पहले हाथ नहीं धोया होगा। खाना खाने से पहले हमारे गांव का हर बच्चा हाथ धोकर ही खाना खाएगा। मुझे बताइए इस काम के लिए सरकार की जरूरत है क्या? जान करके हैरानी होगी, अभी मैंने एक रिपोर्ट पढ़ी थी, अपने एक पड़ोसी देश की, उस रिपोर्ट में लिखा गया था कि उस देश में जो बच्चे मरते हैं, उन मरने वालों बच्चों में 40 प्रतिशत बच्चे.. यानी अगर 100 बच्चे मरते हैं तो 100 में से 40 बच्चों के मरने का कारण क्या था? एक ही कारण था कि वो भोजन के पहले हाथ धो करके खाना नहीं खाते थे। हमारा बच्चा हमें कितना प्यारा है। वो बीमार हो जाए, तो पूरा घर दु:खी हो जाता है लेकिन कभी एक छोटी बात करने का हम संकल्प कर सकते हैं? कि भई अब, अब जयापुर गांव में कोई बच्चा ऐसा नहीं होगा जो बिना हाथ धोये कोई भी चीज हाथ में ले करके मुह में रखेगा। आपको लगेगा, ये प्रधानमंत्री है कि कौन है? यही तो गलती हो गई है। हमारे बड़े-बड़े लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी बातें की जो कभी जमीन पर उतरी ही नहीं। मैं बड़ी बातें करने के लिए पैदा नहीं हुआ हूं, मुझे छोटी-छोटी बातों के द्वारा बड़े-बड़े काम करने हैं।

मैं यहां अपने लोगों से पूंछू, कोई 10वीं कक्षा में पढ़े होंगे, कोई 12वीं पास किए होंगे, ग्रेजुएट होंगे, कोई 50 साल के होंगे, कोई 60 साल के होंगे, कोई 80 साल के होंगे, मैं उनको पूंछू- कि जिस स्कूल में आपका बच्चा पढ़ता है क्या कभी आप उस स्कूल में गए हो? उस स्कूल को देखा है? मास्टर जी आते हैं कि नहीं आते हैं? सफाई होती है कि नहीं होती है? पीने का पानी साफ है कि गंदा है? वहां शौचालय है कि नहीं है? लेबोरेट्ररी है कि नहीं है? लाइब्रेरी है कि नहीं है? कम्प्यूटर है तो चलता है कि नहीं चलता? कुछ भी। कभी जा करके हमने रूचि ली होगी? कभी नहीं ली क्योंकि पहले दिन बच्चे को छोड़ आए और कह दिया कि मास्टर जी ये सौंप दिया, अब तुम जानो, उसका नसीब जाने, जो करना है करो, ऐसे चलता है क्या? हम अगर हमारे गांव के स्कूल का, अगर हम तय करें कि चलो भई हर मोहल्ले की एक कमिटी बनाएं। ये कमिटी के लोग रोज स्कूल जाएंगे, दूसरी कमिटी वाले दूसरे दिन जाएंगे, तीसरी कमिटी वाले तीसरे दिन जाएंगे। हमें बताइए, हमारा स्कूल, कितना भी छोटा स्कूल क्यों न हो, वो फिर एक प्रकार से गांव के अंदर सरस्वती का मंदिर बन जाएगा कि नहीं बन जाएंगा? शिक्षा का धाम बन जाएगा कि नहीं बन जाएगा? सरल काम है।

मैं कभी-कभी गरीब परिवारों को कहता हूं, एक काम करो- आपके परिवार में बेटी का जब जन्म हो, उसको एक उत्सव के रूप में मनाना चाहिए, मनाते हैं क्या? कुछ परिवारों में तो बेटी पैदा हुई तो झगड़ा हो जाता है। उस बहु की बिचारी की मुसीबत आ जाती है। क्या हमारा जयापुर गांव, बेटी का जन्म होगा तो उत्सव मनाएगा कि नहीं मनाएगा। हमारे गांव लक्ष्मी जी का पदार्पण हो, बेटी लक्ष्मी का स्वरूप है। हम, फिर हम गर्व करेंगे कि नहीं करेंगे गांव के लोग? आज नहीं होगा। आज देखिए जितने लड़के पैदा होते हैं, लड़कियां उससे कम पैदा हो रही हैं और कारण क्या है? कि मां के गर्भ में ही बेटी को मार दिया जाता है, अगर मां के गर्भ में ही बेटी को मार देंगे तो ये संसार-चक्र कैसे चलेगा? अगर एक गांव में हजार बच्चे पैदा होते हैं, बालक और 800 बालिकाएं पैदा होती हैं तो 200 बालक कवारें रह जाएंगे। क्या हाल होगा गांव का, समाज का क्या हाल होगा? क्या ये काम सरकार करेगी क्या? क्या एक समाज के नाते हमारी बहन-बेटियों की इज्ज़त, उनका गौरव.. एक समाज में वातावरण बनना चाहिए कि नहीं? इसलिए मैं आज जयापुर के पास इसलिए आया हूं, हमने तय करना है, इतने साल जो किया सो किया, अब नए तरीके से सोचना है। मैं तो ये भी कहता हूं कि अगर आपके पास जमीन है, खेत है, छोटी सी भी जमीन है, अगर आपके घर में बेटी पैदा होती है, उस खुशी में आप, आपके खेत के एक कोने में, किनारे पर 5 पेड़ बो दीजिए उस दिन। बेटी बड़ी होगी, वे पेड़ भी बड़े होगे। बेटी जब 20 साल की होगी, पेड़ भी 20 साल का हो जाएगा और बेटी की शादी करवानी होगी तो 5 पेड़ को बेच दोगे, बेटी की शादी अपने आप हो जाएगी।

हम लोगों ने मिल करके समाज में ये व्यवस्था खड़ी करने है। अब गांव अपना जन्मदिन मनाए तो जातिवाद बच ही नहीं सकता। सब मिल करके मनाएंगे, जातिवाद नहीं रह सकता और जातिवाद का जहर गया तो गांव की ताकत इतनी बढ़ जाएगी, जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। इसलिए ये पूरा आदर्श ग्राम योजना, सरकार की योजनाओं को लागू भी करना है, सही तरीके से लागू करना है, सही समय पर लागू करना है, अच्छे तरीके से लागू करना है, अच्छा परिणाम मिले इस प्रकार से लागू करना है और सांसद का मार्गदर्शन मिले, सांसद गांव को उसमें जोड़े, आप देखिए काम की गति बन जाएगी। एक बार एक गांव में सब सरकारी अफसरों को आदत लग गई कि ऐसे काम होता है तो बाकि सब गांवों में भी वैसा ही शुरू हो जाएगा, देर नहीं लगेगी।

मेरे मन में इस, बनारस का जो पूरा विस्तार जो मेरे जिम्मे आया है और एक प्रकार से ये जिला भी.. बहुत कुछ करने का मेरा इरादा है लेकिन सरकारी तरीके से नहीं करना है, सरकारी खजाने से नहीं करना है। हमें जनता की शक्ति से करना है, जन-शक्ति से करना है।

अभी हमारी प्रधान दुर्गा देवी जी भाषण कर रहीं थी, मैंने उनसे पूछा कि आपकी पढ़ाई कितनी हुई है तो उन्होंने कहा, 8वीं तक मैं पढ़ी हूं। अब देखिएं, 8वीं तक पढ़ी होने के कारण उनका कांफिडेस लेवल कितना ऊंचा था। गर्व हो, दुर्गा देवी जी को सुनकर लगा कि वाह! कितने बढि़या तरीके से उन्होंने अपनी बात को प्रकट किया। क्या हम नहीं चाहते कि हमारे हर घर की बेटी पढ़े? अगर गांव की प्रधान दुर्गा देवी जी भी पढ़ी-लिखी है तो हमारे गांव की हर बेटी पढ़नी चाहिए।

ऐसा क्या कारण हो.. अगर पोलियो की खुराक पिलानी है, क्या पोलियो की खुराक पिलाने के लिए भी किसी सरकारी बाबू को आ करके, हमें याद दिलाना चाहिए? क्या पूरे गांव के अंदर ऐसे नौजवान नहीं होने चाहिएं कि जिनका काम हो कि भई पोलियो की खुराक हर बच्चे को पिलाई जाएगी। कभी भी, हमारे गांव के अंदर कभी, पोलियो आए नहीं, हमारे गांव में कोई बच्चा अपंग न हो, ये काम हम कर सकते हैं कि नहीं कर सकते? पोलियो की खुराक तो सरकार आएगी ले करके, लेकिन सरकार तक ले जाना बालकों को एक समाज के नाते, हम दायित्व उठा सकते हैं कि नहीं उठा सकते?

मैंने आप लोगों के बीच रह करके, पिछले दिनों हमारे पार्टी के कार्यकर्ताओं के माध्यम से, अफसरों के माध्यम से यहां की कई समस्याओं के विषय में जानकारी ली है और मुझे विश्वास है कि शासन में बैठे हुए लोग.. ज्यादातर यहां तो राज्य सरकार के माध्यम से ही काम होता है, इन बातों को पूरे करें। सरकार क्या करे क्या न करे, हम जयापुर के लोग क्या करें ये संकल्प ले करके आज जाना है और मैं कहता हूं सांसद ने गांव को गोद नहीं लिया है, गांव अब सांसद को गोद लेगा। एक नई दिशा में मुझे चलाना है और उसी से आदर्श ग्राम बनने वाला है। मैं जयापुर वासियों का बहुत आभारी हूं.. स्वाभाविक है मैंने यहां के कामों की, व्यवस्थाओं की पूछताछ की है, तो रास्ते भी निकलेंगे, लेकिन उसकी मैं चर्चा मंच पर से करना नहीं चाहता हूं। जिस जगह पर इसकी बात करनी होगी मैं करता रहूंगा लेकिन आप लोगों से मेरी जो अपेक्षा है, मैं आशा करूंगा कि आप लोग भी बैठिए, बैठ करके ऐसे काम- हम ग्रामवासी क्या कर सकते है? गांव की ताकत क्या हो सकती है? ये अगर हम कर लें..

मैंने सुना है कि यहां पानी की दिक्कत रहती है, सरकार करेंगी, सरकार का जो जिम्मा है वो सरकार करेंगी, हम तय कर सकते हैं क्या कि हम बरसात को एक बूंद पानी गांव के बाहर नहीं जाने देंगे। कौन कहता है पानी की दिक्कत रहेंगी? आपको कभी किल्लत नहीं पड़ेंगी, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं लेकिन ये काम हमने सबने मिल करके करना होगा। सरकार, अपने तरीके से, जो इतने सालों से किया है..

अब हमने एक नए तरीके से आगे बढ़ना है। समाज की शक्ति से आगे बढ़ना है, जनता की शक्ति के भरोसे आगे बढ़ना है, पैसों की थेलियों से नहीं। सरकारें ये करेंगी, सरकारें वो करेंगी, टेंडर निकालेंगी, उससे नहीं! हम मिल करके हमारे गांव को.. अगल-बगल के जिले के लोगों को लगे, हां भाई हुआ! और मैंने ऐसे गांव देखें है जहां ऐसा हुआ है, लोगों ने किया है। हमें भी जयापुर को ऐसा बनाना है। मैं फिर एक बार, आपने जो स्वागत-सम्मान किया, प्यार दिया, उसके कारण मैं आपका बहुत-बहुत आभारी हूं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि हम सब मिल करके, सच्चे अर्थ में जयापुर! एक नया जयापुर बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे, इसी एक विश्वास के साथ आप सबका बहुत-बहुत आभार। धन्यवाद।

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वंदेमातरम् ने उस विचार को पुनर्जीवित किया, जो हजारों वर्षों से भारतवर्ष की रग-रग में रचा-बसा था:लोकसभा में पीएम मोदी
December 08, 2025
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल दिया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होते देखना हम सभी के लिए गर्व की बात है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम वह शक्ति है जो हमें, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित करती है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने भारत में हजारों वर्षों से गहराई से जड़ें जमाए विचार को फिर से जागृत किया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम में हजारों वर्षों की सांस्कृतिक ऊर्जा भी समाहित होने के साथ-साथ स्वतंत्रता का उत्साह और स्वतंत्र भारत का दृष्टिकोण भी शामिल था
प्रधानमंत्री ने कहा- लोगों के साथ वंदे मातरम का गहरा सम्‍बंध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की यात्रा को दर्शाता है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल और दिशा दी
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के सर्वव्यापी मंत्र ने स्वतंत्रता, त्याग, शक्ति, पवित्रता, समर्पण और लचीलेपन को प्रेरित किया

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आपका और सदन के सभी माननीय सदस्यों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं कि हमने इस महत्वपूर्ण अवसर पर एक सामूहिक चर्चा का रास्ता चुना है, जिस मंत्र ने, जिस जय घोष ने देश की आजादी के आंदोलन को ऊर्जा दी थी, प्रेरणा दी थी, त्याग और तपस्या का मार्ग दिखाया था, उस वंदे मातरम का पुण्य स्मरण करना, इस सदन में हम सब का यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। और हमारे लिए गर्व की बात है कि वंदे मातरम के 150 वर्ष निमित्त, इस ऐतिहासिक अवसर के हम साक्षी बना रहे हैं। एक ऐसा कालखंड, जो हमारे सामने इतिहास के अनगिनत घटनाओं को अपने सामने लेकर के आता है। यह चर्चा सदन की प्रतिबद्धता को तो प्रकट करेगी ही, लेकिन आने वाली पीढियां के लिए भी, दर पीढ़ी के लिए भी यह शिक्षा का कारण बन सकती है, अगर हम सब मिलकर के इसका सदुपयोग करें तो।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह एक ऐसा कालखंड है, जब इतिहास के कई प्रेरक अध्याय फिर से हमारे सामने उजागर हुए हैं। अभी-अभी हमने हमारे संविधान के 75 वर्ष गौरवपूर्व मनाए हैं। आज देश सरदार वल्लभ भाई पटेल की और भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती भी मना रहा है और अभी-अभी हमने गुरु तेग बहादुर जी का 350वां बलिदान दिवस भी बनाया है और आज हम वंदे मातरम की 150 वर्ष निमित्त सदन की एक सामूहिक ऊर्जा को, उसकी अनुभूति करने का प्रयास कर रहे हैं। वंदे मातरम 150 वर्ष की यह यात्रा अनेक पड़ावों से गुजरी है।

लेकिन आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम को जब 50 वर्ष हुए, तब देश गुलामी में जीने के लिए मजबूर था और वंदे मातरम के 100 साल हुए, तब देश आपातकाल की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। जब वंदे मातरम 100 साल के अत्यंत उत्तम पर्व था, तब भारत के संविधान का गला घोट दिया गया था। जब वंदे मातरम 100 साल का हुआ, तब देशभक्ति के लिए जीने-मरने वाले लोगों को जेल के सलाखों के पीछे बंद कर दिया गया था। जिस वंदे मातरम के गीत ने देश को आजादी की ऊर्जा दी थी, उसके जब 100 साल हुए, तो दुर्भाग्य से एक काला कालखंड हमारे इतिहास में उजागर हो गया। हम लोकतंत्र के (अस्पष्ट) गिरोह में थे।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

150 वर्ष उस महान अध्याय को, उस गौरव को पुनः स्थापित करने का अवसर है और मैं मानता हूं, सदन ने भी और देश ने भी इस अवसर को जाने नहीं देना चाहिए। यही वंदे मातरम है, जिसने 1947 में देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता संग्राम का भावनात्मक नेतृत्व इस वंदे मातरम के जयघोष में था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

आपके समक्ष आज जब मैं वंदे मातरम 150 निमित्त चर्चा के लिए आरंभ करने खड़ा हुआ हूं। यहां कोई पक्ष प्रतिपक्ष नहीं है, क्योंकि हम सब यहां जो बैठे हैं, एक्चुअली हमारे लिए ऋण स्वीकार करने का अवसर है कि जिस वंदे मातरम के कारण लक्ष्यावादी लोग आजादी का आंदोलन चला रहे थे और उसी का परिणाम है कि आज हम सब यहां बैठे हैं और इसलिए हम सभी सांसदों के लिए, हम सभी जनप्रतिनिधियों के लिए वंदे मातरम के ऋण स्वीकार करने का यह पावन पर्व है। और इससे हम प्रेरणा लेकर के वंदे मातरम की जिस भावना ने देश की आजादी का जंग लड़ा, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम पूरा देश एक स्वर से वंदे मातरम बोलकर आगे बढ़ा, फिर से एक बार अवसर है कि आओ, हम सब मिलकर चलें, देश को साथ लेकर चलें, आजादी का दीवानों ने जो सपने देखे थे, उन सपनों को पूरा करने के लिए वंदे मातरम 150 हम सब की प्रेरणा बने, हम सब की ऊर्जा बने और देश आत्मनिर्भर बने, 2047 में विकसित भारत बनाकर के हम रहें, इस संकल्प को दोहराने के लिए यह वंदे मातरम हमारे लिए एक बहुत बड़ा अवसर है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

दादा तबीयत तो ठीक है ना! नहीं कभी-कभी इस उम्र में हो जाता है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम की इस यात्रा की शुरुआत बंकिम चंद्र जी ने 1875 में की थी और गीत ऐसे समय लिखा गया था, जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज सल्तनत बौखलाई हुई थी। भारत पर भांति-भांति के दबाव डाल रहे थी, भांति-भांति के ज़ुल्म कर रही थी और भारत के लोगों को मजबूर किया जा रहा था अंग्रेजों के द्वारा और उस समय उनका जो राष्ट्रीय गीत था, God Save The Queen, इसको भारत में घर-घर पहुंचाने का एक षड्यंत्र चल रहा था। ऐसे समय बंकिम दा ने चुनौती दी और ईट का जवाब पत्थर से दिया और उसमें से वंदे मातरम का जन्म हुआ। इसके कुछ वर्ष बाद, 1882 में जब उन्होंने आनंद मठ लिखा, तो उस गीत का उसमें समावेश किया गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने उस विचार को पुनर्जीवित किया था, जो हजारों वर्ष से भारत की रग-रग में रचा-बसा था। उसी भाव को, उसी संस्कारों को, उसी संस्कृति को, उसी परंपरा को उन्होंने बहुत ही उत्तम शब्दों में, उत्तम भाव के साथ, वंदे मातरम के रूप में हम सबको बहुत बड़ी सौगात दी थी। वंदे मातरम, यह सिर्फ केवल राजनीतिक आजादी की लड़ाई का मंत्र नहीं था, सिर्फ हम अंग्रेज जाएं और हम खड़े हो जाएं, अपनी राह पर चलें, इतनी मात्र तक वंदे मातरम प्रेरित नहीं करता था, वो उससे कहीं आगे था। आजादी की लड़ाई इस मातृभूमि को मुक्त कराने का भी जंग था। अपनी मां भारती को उन बेड़ियों से मुक्ति दिलाने का एक पवित्र जंग था और वंदे मातरम की पृष्ठभूमि हम देखें, उसके संस्कार सरिता देखें, तो हमारे यहां वेद काल से एक बात बार-बार हमारे सामने आई है। जब वंदे मातरम कहते हैं, तो वही वेद काल की बात हमें याद आती है। वेद काल से कहा गया है "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" अर्थात यह भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यही वह विचार है, जिसको प्रभु श्री राम ने भी लंका के वैभव को छोड़ते हुए कहा था "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। वंदे मातरम, यही महान सांस्कृतिक परंपरा का एक आधुनिक अवतार है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंकिम दा ने जब वंदे मातरम की रचना की, तो स्वाभाविक ही वह स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर बन गया। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण वंदे, मातरम हर भारतीय का संकल्प बन गया। इसलिए वंदे मातरम की स्‍तुति में लिखा गया था, “मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, स्वार्थ का बलिदान है, ये शब्द हैं वंदे मातरम, है सजीवन मंत्र भी, यह विश्व विजयी मंत्र भी, शक्ति का आह्वान है, यह शब्द वंदे मातरम। उष्ण शोणित से लिखो, वक्‍तस्‍थलि को चीरकर वीर का अभिमान है, यह शब्द वंदे मातरम।”

आदरणीय अध्यक्ष जी,

कुछ दिन पूर्व, जब वंदे मातरम 150 का आरंभ हो रहा था, तो मैंने उस आयोजन में कहा था, वंदे मातरम हजारों वर्ष की सांस्‍कृतिक ऊर्जा भी थी। उसमें आजादी का जज्बा भी था और आजाद भारत का विजन भी था। अंग्रेजों के उस दौर में एक फैशन हो गई थी, भारत को कमजोर, निकम्मा, आलसी, कर्महीन इस प्रकार भारत को जितना नीचा दिखा सकें, ऐसी एक फैशन बन गई थी और उसमें हमारे यहां भी जिन्होंने तैयार किए थे, वह लोग भी वही भाषा बोलते थे। तब बंकिम दा ने उस हीन भावना को भी झंकझोरने के लिए और सामर्थ्य का परिचय कराने के लिए, वंदे मातरम के भारत के सामर्थ्यशाली रूप को प्रकट करते हुए, आपने लिखा था, त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,कमला कमलदलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी। नमामि त्वां नमामि कमलाम्, अमलाम् अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥ अर्थात भारत माता ज्ञान और समृद्धि की देवी भी हैं और दुश्मनों के सामने अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली चंडी भी हैं।

अध्यक्ष जी,

यह शब्द, यह भाव, यह प्रेरणा, गुलामी की हताशा में हम भारतीयों को हौसला देने वाले थे। इन वाक्यों ने तब करोड़ों देशवासियों को यह एहसास कराया की लड़ाई किसी जमीन के टुकड़े के लिए नहीं है, यह लड़ाई सिर्फ सत्ता के सिंहासन को कब्जा करने के लिए नहीं है, यह गुलामी की बेड़ियों को मुक्त कर हजारों साल की महान जो परंपराएं थी, महान संस्कृति, जो गौरवपूर्ण इतिहास था, उसको फिर से पुनर्जन्म कराने का संकल्प इसमें है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम, इसका जो जन-जन से जुड़ाव था, यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के एक लंबी गाथा अभिव्यक्त होती है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

जब भी जैसे किसी नदी की चर्चा होती है, चाहे सिंधु हो, सरस्वती हो, कावेरी हो, गोदावरी हो, गंगा हो, यमुना हो, उस नदी के साथ एक सांस्कृतिक धारा प्रवाह, एक विकास यात्रा का धारा प्रवाह, एक जन-जीवन की यात्रा का प्रवाह, उसके साथ जुड़ जाता है। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि आजादी जंग के हर पड़ाव, वो पूरी यात्रा वंदे मातरम की भावनाओं से गुजरता था। उसके तट पर पल्लवित होता था, ऐसा भाव काव्य शायद दुनिया में कभी उपलब्ध नहीं होगा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

अंग्रेज समझ चुके थे कि 1857 के बाद लंबे समय तक भारत में टिकना उनके लिए मुश्किल लग रहा था और जिस प्रकार से वह अपने सपने लेकर के आए थे, तब उनको लगा कि जब तक, जब तक भारत को बाटेंगे नहीं, जब तक भारत को टुकडों में नहीं बाटेंगे, भारत में ही लोगों को एक-दूसरे से लड़ाएंगे नहीं, तब तक यहां राज करना मुश्किल है और अंग्रेजों ने बाटों और राज करो, इस रास्ते को चुना और उन्होंने बंगाल को इसकी प्रयोगशाला बनाया क्यूंकि अंग्रेज़ भी जानते थे, वह एक वक्त था जब बंगाल का बौद्धिक सामर्थ्‍य देश को दिशा देता था, देश को ताकत देता था, देश को प्रेरणा देता था और इसलिए अंग्रेज भी चाहते थे कि बंगाल का यह जो सामर्थ्‍य है, वह पूरे देश की शक्ति का एक प्रकार से केंद्र बिंदु है। और इसलिए अंग्रेजों ने सबसे पहले बंगाल के टुकड़े करने की दिशा में काम किया। और अंग्रेजों का मानना था कि एक बार बंगाल टूट गया, तो यह देश भी टूट जाएगा और वो यावच चन्द्र-दिवाकरौ राज करते रहेंगे, यह उनकी सोच थी। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, लेकिन जब अंग्रेजों ने 1905 में यह पाप किया, तो वंदे मातरम चट्टान की तरह खड़ा रहा। बंगाल की एकता के लिए वंदे मातरम गली-गली का नाद बन गया था और वही नारा प्रेरणा देता था। अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन के साथ ही भारत को कमजोर करने के बीज और अधिक बोने की दिशा पकड़ ली थी, लेकिन वंदे मातरम एक स्वर, एक सूत्र के रूप में अंग्रेजों के लिए चुनौती बनता गया और देश के लिए चट्टान बनता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंगाल का विभाजन तो हुआ, लेकिन एक बहुत बड़ा स्वदेशी आंदोलन खड़ा हुआ और तब वंदे मातरम हर तरफ गूंज रहा था। अंग्रेज समझ गए थे कि बंगाल की धरती से निकला, बंकिम दा का यह भाव सूत्र, बंकित बाबू बोलें अच्छा थैंक यू थैंक यू थैंक यू आपकी भावनाओं का मैं आदर करता हूं। बंकिम बाबू ने, बंकिम बाबू ने थैंक यू दादा थैंक यू, आपको तो दादा कह सकता हूं ना, वरना उसमें भी आपको ऐतराज हो जाएगा। बंकिम बाबू ने यह जो भाव विश्व तैयार किया था, उनके भाव गीत के द्वारा, उन्होंने अंग्रेजों को हिला दिया और अंग्रेजों ने देखिए कितनी कमजोरी होगी और इस गीत की ताकत कितनी होगी, अंग्रेजों ने उसको कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। गाने पर सजा, छापने पर सजा, इतना ही नहीं, वंदे मातरम शब्द बोलने पर भी सजा, इतने कठोर कानून लागू कर दिए गए थे। हमारे देश की आजादी के आंदोलन में सैकड़ों महिलाओं ने नेतृत्व किया, लक्ष्यावधि महिलाओं ने योगदान दिया। एक घटना का मैं जिक्र करना चाहता हूं, बारीसाल, बारीसाल में वंदे मातरम गाने पर सर्वाधिक जुल्म हुए थे। वो बारीसाल आज भारत का हिस्सा नहीं रहा है और उस समय बारीसाल के हमारे माताएं, बहने, बच्चे मैदान उतरे थे, वंदे मातरम के स्वाभिमान के लिए, इस प्रतिबंध के विरोध में लड़ाई के मैदान में उतरी थी और तब बारीसाल कि यह वीरांगना श्रीमती सरोजिनी घोष, जिन्होंने उस जमाने में वहां की भावनाओं को देखिए और उन्होंने कहा था की वंदे मातरम यह जो प्रतिबंध लगा है, जब तक यह प्रतिबंध नहीं हटता है, मैं अपनी चूड़ियां जो पहनती हूं, वो निकाल दूंगी। भारत में वह एक जमाना था, चूड़ी निकालना यानी महिला के जीवन की एक बहुत बड़ी घटना हुआ करती थी, लेकिन उनके लिए वंदे मातरम वह भावना थी, उन्होंने अपनी सोने की चूड़ियां, जब तक वंदे मातरम प्रतिबंध नहीं हटेगा, मैं दोबारा नहीं धारण करूंगी, ऐसा बड़ा व्रत ले लिया था। हमारे देश के बालक भी पीछे नहीं रहे थे, उनको कोड़े की सजा होती थी, छोटी-छोटी उम्र में उनको जेल में बंद कर दिया जाता था और उन दिनों खास करके बंगाल की गलियों में लगातार वंदे मातरम के लिए प्रभात फेरियां निकलती थी। अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था और उस समय एक गीत गूंजता था बंगाल में जाए जाबे जीवोनो चोले, जाए जाबे जीवोनो चोले, जोगोतो माझे तोमार काँधे वन्दे मातरम बोले (In Bengali) अर्थात हे मां संसार में तुम्हारा काम करते और वंदे मातरम कहते जीवन भी चला जाए, तो वह जीवन भी धन्य है, यह बंगाल की गलियों में बच्चे कह रहे थे। यह गीत उन बच्चों की हिम्मत का स्वर था और उन बच्चों की हिम्मत ने देश को हिम्मत दी थी। बंगाल की गलियों से निकली आवाज देश की आवाज बन गई थी। 1905 में हरितपुर के एक गांव में बहुत छोटी-छोटी उम्र के बच्चे, जब वंदे मातरम के नारे लगा रहे थे, अंग्रेजों ने बेरहमी से उन पर कोड़े मारे थे। हर एक प्रकार से जीवन और मृत्यु के बीच लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। इतना अत्याचार हुआ था। 1906 में नागपुर में नील सिटी हाई स्कूल के उन बच्चों पर भी अंग्रेजों ने ऐसे ही जुल्म किए थे। गुनाह यही था कि वह एक स्वर से वंदे मातरम बोल करके खड़े हो गए थे। उन्होंने वंदे मातरम के लिए, मंत्र का महात्म्य अपनी ताकत से सिद्ध करने का प्रयास किया था। हमारे जांबाज सपूत बिना किसी डर के फांसी के तख्त पर चढ़ते थे और आखिरी सांस तक वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम, यही उनका भाव घोष रहता था। खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामकृष्ण विश्वास अनगिनत जिन्होंने वंदे मातरम कहते-कहते फांसी के फंदे को अपने गले पर लगाया था। लेकिन देखिए यह अलग-अलग जेलों में होता था, अलग-अलग इलाकों में होता था। प्रक्रिया करने वाले चेहरे अलग थे, लोग अलग थे। जिन पर जुल्म हो रहा था, उनकी भाषा भी अलग थी, लेकिन एक भारत, श्रेष्ठ भारत, इन सबका मंत्र एक ही था, वंदे मातरम। चटगांव की स्वराज क्रांति जिन युवाओं ने अंग्रेजों को चुनौती दी, वह भी इतिहास के चमकते हुए नाम हैं। हरगोपाल कौल, पुलिन विकाश घोष, त्रिपुर सेन इन सबने देश के लिए अपना बलिदान दिया। मास्टर सूर्य सेन को 1934 में जब फांसी दी गई, तब उन्होंने अपने साथियों को एक पत्र लिखा और पत्र में एक ही शब्द की गूंज थी और वह शब्द था वंदे मातरम।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

हम देशवासियों को गर्व होना चाहिए, दुनिया के इतिहास में कहीं पर भी ऐसा कोई काव्य नहीं हो सकता, ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो सदियों तक एक लक्ष्य के लिए कोटि-कोटि जनों को प्रेरित करता हो और जीवन आहूत करने के लिए निकल पड़ते हों, दुनिया में ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो वंदे मातरम है। पूरे विश्व को पता होना चाहिए कि गुलामी के कालखंड में भी ऐसे लोग हमारे यहां पैदा होते थे, जो इस प्रकार के भाव गीत की रचना कर सकते थे। यह विश्व के लिए अजूबा है, हमें गर्व से कहना चाहिए, तो दुनिया भी मनाना शुरू करेगी। यह हमारी स्वतंत्रता का मंत्र था, यह बलिदान का मंत्र था, यह ऊर्जा का मंत्र था, यह सात्विकता का मंत्र था, यह समर्पण का मंत्र था, यह त्याग और तपस्या का मंत्र था, संकटों को सहने का सामर्थ्य देने का यह मंत्र था और वह मंत्र वंदे मातरम था। और इसलिए गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, उन्होंने लिखा था, एक कार्ये सोंपियाछि सहस्र जीवन—वन्दे मातरम् (In Bengali) अर्थात एक सूत्र में बंधे हुए सहस्त्र मन, एक ही कार्य में अर्पित सहस्त्र जीवन, वंदे मातरम। यह रविंद्रनाथ टैगोर जी ने लिखा था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

उसी कालखंड में वंदे मातरम की रिकॉर्डिंग दुनिया के अलग-अलग भागों में पहुंची और लंदन में जो क्रांतिकारियों की एक प्रकार से तीर्थ भूमि बन गया था, वह लंदन का इंडिया हाउस वीर सावरकर जी ने वहां वंदे मातरम गीत गाया और वहां यह गीत बार-बार गूंजता था। देश के लिए जीने-मरने वालों के लिए वह एक बहुत बड़ा प्रेरणा का अवसर रहता था। उसी समय विपिन चंद्र पाल और महर्षि अरविंद घोष, उन्होंने अखबार निकालें, उस अखबार का नाम भी उन्होंने वंदे मातरम रखा। यानी डगर-डगर पर अंग्रेजों के नींद हराम करने के लिए वंदे मातरम काफी हो जाता था और इसलिए उन्होंने इस नाम को रखा। अंग्रेजों ने अखबारों पर रोक लगा दी, तो मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में एक अखबार निकाला और उसका नाम उन्होंने वंदे मातरम रखा!

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने भारत को स्वावलंबन का रास्ता भी दिखाया। उस समय माचिस के डिबिया, मैच बॉक्स, वहां से लेकर के बड़े-बड़े शिप उस पर भी वंदे मातरम लिखने की परंपरा बन गई और बाहरी कंपनियों को चुनौती देने का एक माध्यम बन गया, स्वदेशी का एक मंत्र बन गया। आजादी का मंत्र स्वदेशी के मंत्र की तरह विस्तार होता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

मैं एक और घटना का जिक्र भी करना चाहता हूं। 1907 में जब वी ओ चिदंबरम पिल्लई, उन्होंने स्वदेशी कंपनी का जहाज बनाया, तो उस पर भी लिखा था वंदेमातरम। राष्ट्रकवि सुब्रमण्यम भारती ने वंदे मातरम को तमिल में अनुवाद किया, स्तुति गीत लिखे। उनके कई तमिल देशभक्ति गीतों में वंदे मातरम की श्रद्धा साफ-साफ नजर आती है। शायद सभी लोगों को लगता है, तमिलनाडु के लोगों को पता हो, लेकिन सभी लोगों को यह बात का पता ना हो कि भारत का ध्वज गीत वी सुब्रमण्यम भारती ने ही लिखा था। उस ध्वज गीत का वर्णन जिस पर वंदे मातरम लिखा हुआ था, तमिल में इस ध्वज गीत का शीर्षक था। Thayin manikodi pareer, thazhndu panintu Pukazhnthida Vareer! (In Tamil) अर्थात देश प्रेमियों दर्शन कर लो, सविनय अभिनंदन कर लो, मेरी मां की दिव्य ध्वजा का वंदन कर लो।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आज इस सदन में वंदे मातरम पर महात्मा गांधी की भावनाएं क्या थी, वह भी रखना चाहता हूं। दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी, इंडियन ओपिनियन और और इस इंडियन ओपिनियन में महात्मा गांधी ने 2 दिसंबर 1905 जो लिखा था, उसको मैं कोट कर रहा हूं। उन्होंने लिखा था, महात्मा गांधी ने लिखा था, “गीत वंदे मातरम जिसे बंकिम चंद्र ने रचा है, पूरे बंगाल में अत्यंत लोकप्रिय हो गया है, स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल में विशाल सभाएं हुईं, जहां लाखों लोग इकट्ठा हुए और बंकिम का यह गीत गाया।” गांधी जी आगे लिखते हैंं, यह बहुत महत्वपूर्ण है, वह लिखते हैं यह 1905 की बात है। उन्होंने लिखा, “यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया है, जैसे यह हमारा नेशनल एंथम बन गया है। इसकी भावनाएं महान हैं और यह अन्य राष्ट्रों के गीतों से अधिक मधुर है। इसका एकमात्र उद्देश्य हम में देशभक्ति की भावना जगाना है। यह भारत को मां के रूप में देखता है और उसकी स्तुति करता है।”

अध्यक्ष जी,

जो वंदे मातरम 1905 में महात्मा गांधी को नेशनल एंथम के रूप में दिखता था, देश के हर कोने में, हर व्यक्ति के जीवन में, जो भी देश के लिए जीता-जागता, जिस देश के लिए जागता था, उन सबके लिए वंदे मातरम की ताकत बहुत बड़ी थी। वंदे मातरम इतना महान था, जिसकी भावना इतनी महान थी, तो फिर पिछली सदी में इसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों हुआ? वंदे मातरम के साथ विश्वासघात क्यों हुआ? यह अन्याय क्यों हुआ? वह कौन सी ताकत थी, जिसकी इच्छा खुद पूज्‍य बापू की भावनाओं पर भी भारी पड़ गई? जिसने वंदे मातरम जैसी पवित्र भावना को भी विवादों में घसीट दिया। मैं समझता हूं कि आज जब हम वंदे मातरम के 150 वर्ष का पर्व बना रहे हैं, यह चर्चा कर रहे हैं, तो हमें उन परिस्थितियों को भी हमारी नई पीडिया को जरूर बताना हमारा दायित्व है। जिसकी वजह से वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया गया। वंदे मातरम के प्रति मुस्लिम लीग की विरोध की राजनीति तेज होती जा रही थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने लखनऊ से 15 अक्टूबर 1937 को वंदे मातरम के विरुद्ध का नारा बुलंद किया। फिर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को अपना सिंहासन डोलता दिखा। बजाय कि नेहरू जी मुस्लिम लीग के आधारहीन बयानों को तगड़ा जवाब देते, करारा जवाब देते, मुस्लिम लीग के बयानों की निंदा करते और वंदे मातरम के प्रति खुद की भी और कांग्रेस पार्टी की भी निष्ठा को प्रकट करते, लेकिन उल्टा हुआ। वो ऐसा क्यों कर रहे हैं, वह तो पूछा ही नहीं, न जाना, लेकिन उन्होंने वंदे मातरम की ही पड़ताल शुरू कर दी। जिन्ना के विरोध के 5 दिन बाद ही 20 अक्टूबर को नेहरू जी ने नेताजी सुभाष बाबू को चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी में जिन्ना की भावना से नेहरू जी अपनी सहमति जताते हुए कि वंदे मातरम भी यह जो उन्होंने सुभाष बाबू को लिखा है, वंदे मातरम की आनंद मठ वाली पृष्ठभूमि मुसलमानों को इरिटेट कर सकती है। मैं नेहरू जी का क्वोट पढ़ता हूं, नेहरू जी कहते हैं “मैंने वंदे मातरम गीत का बैकग्राउंड पड़ा है।” नेहरू जी फिर लिखते हैं, “मुझे लगता है कि यह जो बैकग्राउंड है, इससे मुस्लिम भड़केंगे।”

साथियों,

इसके बाद कांग्रेस की तरफ से बयान आया कि 26 अक्टूबर से कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक कोलकाता में होगी, जिसमें वंदे मातरम के उपयोग की समीक्षा की जाएगी। बंकिम बाबू का बंगाल, बंकिम बाबू का कोलकाता और उसको चुना गया और वहां पर समीक्षा करना तय किया। पूरा देश हतप्रभ था, पूरा देश हैरान था, पूरे देश में देशभक्तों ने इस प्रस्ताव के विरोध में देश के कोने-कोने में प्रभात फेरियां निकालीं, वंदे मातरम गीत गाया लेकिन देश का दुर्भाग्य कि 26 अक्टूबर को कांग्रेस ने वंदे मातरम पर समझौता कर लिया। वंदे मातरम के टुकड़े करने के फैसले में वंदे मातरम के टुकड़े कर दिए। उस फैसले के पीछे नकाब ये पहना गया, चोला ये पहना गया, यह तो सामाजिक सद्भाव का काम है। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए और मुस्लिम लीग के दबाव में किया और कांग्रेस का यह तुष्टीकरण की राजनीति को साधने का एक तरीका था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

तुष्टीकरण की राजनीति के दबाव में कांग्रेस वंदे मातरम के बंटवारे के लिए झुकी, इसलिए कांग्रेस को एक दिन भारत के बंटवारे के लिए झुकना पड़ा। मुझे लगता है, कांग्रेस ने आउटसोर्स कर दिया है। दुर्भाग्य से कांग्रेस के नीतियां वैसी की वैसी ही हैं और इतना ही नहीं INC चलते-चलते MMC हो गया है। आज भी कांग्रेस और उसके साथी और जिन-जिन के नाम के साथ कांग्रेस जुड़ा हुआ है सब, वंदे मातरम पर विवाद खड़ा करने की कोशिश करते हैं।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके जीवटता उसके अच्छे कालखंड से ज्यादा, जब चुनौतियों का कालखंड होता है, जब संकटों का कालखंड होता है, तब प्रकट होती हैं, उजागर होती हैं और सच्‍चे अर्थ में कसौटी से कसी जाती हैं। जब कसौटी का काल आता है, तब ही यह सिद्ध होता है कि हम कितने दृढ़ हैं, कितने सशक्त हैं, कितने सामर्थ्यवान हैं। 1947 में देश आजाद होने के बाद देश की चुनौतियां बदली, देश के प्राथमिकताएं बदली, लेकिन देश का चरित्र, देश की जीवटता, वही रही, वही प्रेरणा मिलती रही। भारत पर जब-जब संकट आए, देश हर बार वंदे मातरम की भावना के साथ आगे बढ़ा। बीच का कालखंड कैसा गया, जाने दो। लेकिन आज भी 15 अगस्त, 26 जनवरी की जब बात आती है, हर घर तिरंगा की बात आती है, चारों तरफ वो भाव दिखता है। तिरंगे झंडे फहरते हैं। एक जमाना था, जब देश में खाद्य का संकट आया, वही वंदे मातरम का भाव था, मेरे देश के किसानों के अन्‍न के भंडार भर दिए और उसके पीछे भाव वही है वंदे मातरम। जब देश की आजादी को कुचलना की कोशिश हुए, संविधान की पीठ पर छुरा घोप दिया गया, आपातकाल थोप दिया गया, यही वंदे मातरम की ताकत थी कि देश खड़ा हुआ और परास्त करके रहा। देश पर जब भी युद्ध थोपे गए, देश को जब भी संघर्ष की नौबत आई, यही वंद मातरम का भाव था, देश का जवान सीमाओं पर अड़ गया और मां भारती का झंडा लहराता रहा, विजय श्री प्राप्त करता रहा। कोरोना जैसा वैश्विक महासंकट आया, यही देश उसी भाव से खड़ा हुआ, उसको भी परास्त करके आगे बढ़ा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह राष्ट्र की शक्ति है, यह राष्ट्र को भावनाओं से जोड़ने वाला सामर्थ्‍यवान एक ऊर्जा प्रवाह है। यह चेतना परवाह है, यह संस्कृति की अविरल धारा का प्रतिबिंब है, उसका प्रकटीकरण है। यह वंदे मातरम हमारे लिए सिर्फ स्मरण करने का काल नहीं, एक नई ऊर्जा, नई प्रेरणा का लेने का काल बन जाए और हम उसके प्रति समर्पित होते चलें और मैंने पहले कहा हम लोगों पर तो कर्ज है वंदे मातरम का, वही वंदे मातरम है, जिसने वह रास्ता बनाया, जिस रास्ते से हम यहां पहुंचे हैं और इसलिए हमारा कर्ज बनता है। भारत हर चुनौतियों को पार करने में सामर्थ्‍य है। वंदे मातरम के भाव की वो ताकत है। वंदे मातरम यह सिर्फ गीत या भाव गीत नहीं, यह हमारे लिए प्रेरणा है, राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के लिए हमें झकझोरने वाला काम है और इसलिए हमें निरंतर इसको करते रहना होगा। हम आत्मनिर्भर भारत का सपना लेकर के चल रहे हैं, उसको पूरा करना है। वंदे मातरम हमारी प्रेरणा है। हम स्वदेशी आंदोलन को ताकत देना चाहते हैं, समय बदला होगा, रूप बदले होंगे, लेकिन पूज्य गांधी ने जो भाव व्यक्त किया था, उस भाव की ताकत आज भी हमें मौजूद है और वंदे मातरम हमें जोड़ता है। देश के महापुरुषों का सपना था स्वतंत्र भारत का, देश की आज की पीढ़ी का सपना है समृद्ध भारत का, आजाद भारत के सपने को सींचा था वंदे भारत की भावना ने, वंदे भारत की भावना ने, समृद्ध भारत के सपने को सींचेगा वंदे मातरम के भवना, उसी भावनाओं को लेकर के हमें आगे चलना है। और हमें आत्मनिर्भर भारत बनाना, 2047 में देश विकसित भारत बन कर रहे। अगर आजादी के 50 साल पहले कोई आजाद भारत का सपना देख सकता था, तो 25 साल पहले हम भी तो समृद्ध भारत का सपना देख सकते हैं, विकसित भारत का सपना देख सकते हैं और इस सपने के लिए अपने आप को खपा भी सकते हैं। इसी मंत्र और इसी संकल्प के साथ वंदे मातरम हमें प्रेरणा देता रहे, वंदे मातरम का हम ऋण स्वीकार करें, वंदे मातरम की भावनाओं को लेकर के चलें, देशवासियों को साथ लेकर के चलें, हम सब मिलकर के चलें, इस सपने को पूरा करें, इस एक भाव के साथ यह चर्चा का आज आरंभ हो रहा है। मुझे पूरा विश्वास है कि दोनों सदनों में देश के अंदर वह भाव भरने वाला कारण बनेगा, देश को प्रेरित करने वाला कारण बनेगा, देश की नई पीढ़ी को ऊर्जा देने का कारण बनेगा, इन्हीं शब्दों के साथ आपने मुझे अवसर दिया, मैं आपका बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूं। बहुत-बहुत धन्यवाद!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!