Place : महात्मा मंदीर, गांधीनगर  Date:17 अगस्त - 2013

मंच पर विराजमान मंत्री परिषद के मेरे साथी श्रीमान् भूपेन्द्र सिंह जी चुडासमा, श्री जयंती भाई, हरियाणा से पधारे हुए मंत्री श्री धर्मवीर जी, मंत्री श्री गोविंद भाई, केन्द्र सरकार से पधारे सभी अधिकारी, देश के भिन्न भिन्न राज्यों से आए हुए प्रशासनिक अधिकारी और ग्रामीण विकास के लिए प्रयत्नरत सभी मेरे प्यारे देशवासियों..!

आज इस महात्मा मंदिर में एक लघु ग्रामीण भारत का मुझे दर्शन हो रहा है। हिन्दुस्तान के 26 राज्यों से और चार केन्द्र शासित प्रदेशों से करीब पाँच हजार प्रतिनिधि इस समारोह में मौजूद हैं और इसलिए मैं कहता हूँ कि एक लघु ग्रामीण भारत आज मेरे सम्मुख बैठा है। सरदार पटेल, महात्मा गांधी, दयानंद सरस्वती की इस पवित्र भूमि पर मैं आप सबका हृदय से स्वागत करता हूँ..! एक राज्य के निमंत्रण पर इतनी बड़ी मात्रा में देश के कोने-कोने से आप सबका आना हम सबके लिए गर्व की बात है, संतोष की बात है..!

इस कार्यक्रम की रचना के पीछे मूल विचार ये था कि 2012-13 का ये वर्ष पंचायती राज व्यवस्था की गोल्डन जुबली का ईयर है। आज से पचास वर्ष पूर्व गुजरात ने पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने की दिशा में कदम उठाए थे। और जब भी पंचायती राज व्यवस्था की बात आती है तब बलवंत राय मेहता का नाम सबसे ऊपर दिखाई देता है जिनके नेतृत्व में, जिनकी सोच के कारण पंचायती राज व्यवस्था का एक खाका खड़ा हुआ और धीरे-धीरे-धीरे वो विकसित होता गया। आज देश के इस क्षेत्र में काम करने वाले सभी लोग मिल बैठ कर के हम पंचायती राज व्यवस्था को और अधिक सुदृढ़ कैसे कर सकें, ग्रामीण विकास की हमारी गति को और अधिक तेज कैसे बनाएं, ग्रामीण विकास की हमारी संकल्पना को और अधिक व्यापक कैसे बनाएं, ग्रामीण विकास की हमारी संकल्पना से ग्रामीण जीवन में क्वालिटी ऑफ लाइफ में कैसे परिवर्तन आए, जीवन स्तर और जीवन के मापदंड में किस प्रकार से नई ऊंचाइयों को हम पार कर सकें... इन सभी बातों का हम विचार-विमर्श करेंगे और मुझे विश्वास है कि आप सबका अनुभव, आप सबका ज्ञान, विविधताओं से भरे हुए हिन्दुस्तान के प्रतिनिधि के तौर पर इस विचार-विमर्श से इस क्षेत्र में काम करने वाले आप सभी को नई प्रेरणा का अवसर मिलेगा, नए उमंग और उत्साह का अवसर मिलेगा..!

ग्रामीण विकास की जब जब चर्चा होती है तो महात्मा गांधी का स्मरण होना स्वाभाविक है। महात्मा गांधी की विदाई के इतने वर्ष हो गए, उसके बाद भी मैं अनुभव से कह सकता हूँ कि ग्रामीण विकास में पूज्य बापू का जो दर्शन था वो आज भी शत प्रतिशत प्रस्तुत है, रिलेंवेंट है..! अगर हम आग्रह पूर्वक पूज्य बापू ने जो ग्राम स्वराज की कल्पना की थी उसको लेटर एंड स्पिरिट में लागू कर पाए होते, तो शायद ग्रामीण विकास के क्षेत्र में हम शहरों से भी बहुत आगे निकल जाते..! आज हम जिस जगह पर बैठ कर चिंतन कर रहे हैं, ये स्थान है ‘महात्मा मंदिर’। गुजरात जब अपना गोल्डन जुबली ईयर मना रहा था तब गांधीनगर में गांधी जी के नाम से कोई एक व्यवस्था विकसित हो इस सोच में से महात्मा मंदिर के विचार का जन्म हुआ था। जिस कक्ष में आप बैठे हैं, उसका ये एक पूरा हिस्सा ऐसा है कि किसी भी हिन्दुस्तानी को गर्व हो ऐसी एक घटना उसमें जुड़ी हुई है। इसका पूरा निर्माण सिर्फ 180 दिन में पूरा हुआ था..! हमारे देश में इसको मिरेकल माना जाए, लेकिन ये इस बात का सबूत है कि भारत के सामान्य मानवी के अंदर कितना सामर्थ्य भरा पड़ा है। अगर सही तरीके से उस सामर्थ्य को काम में लाया जाए तो कितना बड़ा परिणाम दे सकते हैं। वरना 180 दिन में घर की दीवार भी हमारे देश में बनाना दिक्कत होती है, इतना बड़ा स्मारक 180 दिनों में बनाया है..! और मैं आपसे आग्रह करूंगा, मैं पूरे स्मारक की नहीं, मैं इस हिस्से की बात कर रहा हूँ, पूरा स्मारक तो बहुत बड़ा है। और इसकी दूसरी विशेषता ये है कि जब इसका निर्माण कार्य शुरू हुआ तो जमीन में हमने नींव रखने से पहले गुजरात के सभी गाँवों से सरपंचों को बुलाया और उनसे आग्रह किया कि आप अपने गाँव की पवित्र मिट्टी और गाँव का पवित्र जल ला कर के इसमें डालिए। हमने सभी राज्यों से वहाँ की पवित्र नदी का जल और वहाँ की मिटटी के लिए प्रार्थना की थी, हमने दुनिया के सभी देशों से प्रार्थना की थी, जहाँ कोई ना कोई हिन्दुस्तानी रहता है तो वहाँ की नदी का पवित्र जल और वहाँ की मिटटी..! एक प्रकार से इस भवन के नीचे जमीन में गुजरात के सभी गाँवों की, हिन्दुस्तान के सभी राज्यों की, दुनिया के सभी देशों की पवित्र मिट्टी और जल इसमें समाहित है क्योंकि गांधी जी एक विश्व मानव थे और इसलिए उनकी स्मृति में महात्मा मंदिर बन रहा है तो विश्व का भी किसी ना किसी रूप में इसके अंदर कोई ना कोई जुड़ाव होना चाहिए, उस कल्पना को साकार करने का हमने प्रयास किया था..!

उसी प्रकार से अभी आपने एक फिल्म देखी, सरदार पटेल का स्टेच्यू हम बनाने जा रहे हैं। ये दुनिया का सबसे बड़ा स्टेच्यू बनेगा, ‘स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी’ से इसकी ऊंचाई दोगुना ज्यादा होगी। सरदार पटेल की तीन बातों को हम कभी भूल नहीं सकते। वे एक लौह पुरूष थे, किसान थे और उन्होंने देश की एकता के लिए अविरल काम किया था और इसलिए उस स्टेच्यू का नाम दिया है ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’..! सारे हिन्दुस्तान को एक किया उन्होंने, सारे राजा-महाराजाओं को हिन्दुस्तान की मुख्य धारा में ला दिया। वे किसान थे, महात्मा गांधी के आंदोलन में किसानों को जोड़ने का एक बहुत बड़ा काम उन्होंने किया था। बारडोली का सत्याग्रह आज भी दुनिया में मशहूर है। और वे लौह पुरूष थे, वे दृढ़ संकल्प करने वाले महापुरूष थे। और इसलिए सरदार पटेल के स्टेच्यू का जो निर्माण होगा उसमें भी हम पूरे हिन्दुस्तान को जोड़ना चाहते हैं, किसान को जोड़ना चाहते हैं और लौह पुरूष का स्मरण करवाना चाहते हैं और इसलिए तय किया है कि ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ बनेगा उसके पूर्व हिन्दुस्तान के सभी गाँव से हम लोहा दान में मांगेगे..! हर गाँव से एक पीस, सात लाख गाँव हैं, सात लाख गाँव से सात लाख लोहे का टुकड़ा मांगेगे। लेकिन कोई कहे कि हमारे गाँव में बहुत पुरानी तलवार है, ले जाओ, नहीं..! कोई कहे कि हमारे गाँव में तोप है, ले जाइए, पूरा सरदार साहब का स्टेच्यू तो एक ही तोप से बन जाएगा, नहीं..! हमें तो वो लोहा चाहिए जो किसान ने अपने खेत में, खेती करने के लिए औजार के रूप में उपयोग किया हो उसका टुकड़ा चाहिए, क्योंकि वे किसान थे, क्योंकि वो लौह पुरूष थे, क्योंकि उन्होंने हिन्दुस्तान की एकता का काम किया था इसलिए सात लाख गांवों से लोहा इक्कठा करके, उसको मेल्ट करके फिर उसका उपयोग पूरे प्रोजेक्ट में हम करना चाहते हैं ताकि हर हिन्दुस्तानी को लगे कि इतने बड़े भव्य स्मारक में कहीं ना कहीं मेरा गाँव भी मौजूद है..! राष्ट्रीय एकता की भावना जगाने का प्रयास ‘स्टेच्यू ऑफ यूनिटी’ के जरिए हम कर रहे हैं..! 31 अक्टूबर के बाद गुजरात के सभी गाँवों तक पहुंचने का प्रयास हम करने वाले हैं, सभी राज्यों से हम मदद मांगने वाले हैं, हर गाँव के लोगों से हम मदद मांगने वाले हैं और उसके माध्यम से एक महान कार्य भारत माँ के चरणों में समर्पित करने का हम लोगों का प्रयास है..!

National Conference on Panchayati Raj & Rural Development

महात्मा गांधी ने ग्रामीण स्वराज्य के लिए, ग्राम राज्य के लिए बहुत ही दीर्घ दृष्टि के साथ हम लोगों का मार्गदर्शन किया है। गांधी जी का आग्रह रहता था गाँव में सफाई, गाँव में शिक्षा, गाँव में आरोग्य, गाँव में अस्पृश्यता से मुक्ति, गाँव में रोजगार, स्वावलंबन। ये मूलभूत बातें थी जो महात्मा गांधी ने लगातार हमसे कही थी। आज भी हम गांधी जी की इन बातों को लेकर के चलें और उस पर बल दें तो मैं नहीं मानता हूँ कि गाँवों से लोग शहर की ओर जाने के लिए कभी सोचेंगे, ऊपर से शहर से लोग गाँव की तरफ जाने की दिशा में प्रयास करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है..!

हमें गाँवों को अधिकार देने पड़ेंगे, गाँवों को हमें आर्थिक निर्णय की प्रक्रिया में जोड़ना पड़ेगा। हमारे यहाँ गुजरात में पहले ग्राम पंचायत में कुछ खर्चा करना होता था तो काफी समय चिट्ठी-चपाटी में चला जाता था। हमने एक निर्णय किया कि पांच लाख रूपये तक कोई भी काम करना है तो ग्रामसभा खुद तय करे और आगे बढ़े..! उसको ऊपर जाने की जरूरत नहीं है..! और गाँव वाले सही करेंगे..! हमारे यहाँ ट्राइबल गांवों के लिए एक छोटा सा प्रयोग किया। गुजरात पेटर्न के नाम से आज भी वो पूरे देश में प्रसिद्घ है और आज भी जहाँ-जहाँ पर ट्राइबल इलाके के विकास की बात होती है तो गुजरात पैटर्न को एक मॉडल के रूप में, मापदंड के रूप में लिया जाता है..! उस गुजरात पैटर्न के अंदर हमने ट्राइबल एरिया डेवलपमेंट के लिए अलग से बजट दिया और हर ट्राइबल विलेज के अंदर कमेटियां बनाई और उन कमेटियों को कहा कि आप निर्णय करो कि आपको गाँव में क्या चाहिए। गांधीनगर में बैठ कर अगर हम निर्णय करते हैं, हम सोचते है कि ये बनाएंगे तो गाँव वाला कहता है कि हमें इसकी जरूरत नहीं, हमें उसकी जरूरत है। फिर सरकार कहती है कि नहीं, हमने तो निर्णय कर लिया है, आपको यही करना होगा और उसके कारण काम होते नहीं हैं, काम उलझ जाते हैं, पैसे पड़े रहते हैं या फिर बेकार चले जाते हैं..! हमने ट्राइबल बेल्ट के अंदर गाँवों वालों को अधिकार दिया और हमारा अनुभव ये रहा है कि उस ट्राइबल कमेटी के माध्यम से विकास के जो काम तय होते हैं वो सचमुच में उनके लिए जो आवश्यक होते हैं वही काम वो पंसद करते हैं और पूरे गाँव को पता होता है कि हमारे गाँव में ये काम होने वाला है, इसलिए ट्रांसपरेंसी की गांरटी होती है। हर किसी की नजर रहती है कि गाँव में क्या काम हो रहा है, कैसे हो रहा है, जितने रूपये दिये गए उस प्रकार से हो रहा है या नहीं हो रहा है और इसलिए पाई-पाई का उपयोग होता है। और पिछले दस वर्षों में मैं कहता हूँ कि ट्राइबल विलेजिज के डेवलपमेंट में लाखों काम अरबों-खरबों रूपयों के खर्च से, गाँव की उस ट्राइबल कमेटी के माध्यम से हुए हैं..! टोटल डिसेंट्रलाइजेशन..! उनको गाइडलाइन दिया, उनको करने के लिए कहा और उन्होंने करके दिखाया..! और इसलिए ग्रामीण विकास में विकेन्द्रीकरण को जितना हम बल देते हैं, जितना सत्ताधिकार हम उन तक पहुंचाते हैं, जितनी जिम्मेदारी उन पर डालते हैं, उतनी ही काम की गति भी बढ़ती है और परिणाम भी मिलता है..!

हमारे यहाँ भूकंप के बाद पुनर्निर्माण एक बहुत बड़ी चैलेंज थी। अगर हम गांधीनगर से बैठ कर ही सारे निर्णय करने जाते तो मैं नहीं मानता हूँ कि इतनी बड़ी मात्रा में हम कुछ कर पाते। लेकिन हमने क्या किया..? सबसे पहले हमने स्ट्रेटजी तय की कि अगर भूकंप के बाद लाइफ में नॉर्मलसी लानी है, तो अगर एक बार स्कूल जल्दी से चालू हो जाए तो नॉर्मलसी लाने में सुविधा होगी, बच्चे स्कूल जाने शुरू हो जाए तो एक माहौल बदल जाएगा..! तो पहले टेंट लगाया, कि स्कूल चालू करो..! फिर क्या किया..? स्कूल के भवन तो टूट गए थे, बच्चों के पास किताबें नहीं थी, कुछ बचा नहीं था... हमने गाँवों में कमेटियाँ बनाई, गाँव की समितियाँ बनाई। गाँव के 10-12 जो प्रमुख लोग थे उनको बैठा दिया। उनको कह दिया कि स्कूल आपको बनाना है, ये डिजाइन है, ये पैसे हैं..! मटैरियल बैंक बनाया, उस मैटेरियल बैंक से उनको लोहा चाहिए, सीमेंट चाहिए, ईंट चाहिए, मिट्टी चाहिए, जो चाहिए वो मैटिरियल बैंक से मिल जाएगा। मैसंस चाहिए तो मैसंस का ट्रेनिंग सेंटर खोल दिया, आप अपने लड़कों को मैसंस के ट्रेनिंग सेंटर में भेजिए..! मैंसंस का ट्रेनिंग हो गया और गाँव को बता दिया कि ये पैसे हैं, आप पूरा करो..! हमारा अनुभव ये रहा कि गाँव के लोगों ने समय से पहले स्कूल का निर्माण किया। सरकार ने तीन कमरे सोचे थे, उन्होंने चार कमरे बनाए..! हमने अगर दो सौ स्क्वेयर मीटर में काम कहा था तो उन्होंने ढाई सौ स्क्वेयर मीटर में किया और खुद के गाँव की जमीन दान में दे दी..! हमने एक मंजिला कहा था तो उन्होंने दो मंजिला बनाई..! गाँव के बच्चों के लिए था इसलिए मजबूती में कोई कोताही नहीं बरती, क्योंकि बच्चों के भविष्य के साथ जुड़ा था, इनका लगाव था..! और मित्रों, मैं गर्व से कहता हूँ कि भूकंप में उनके खुद के घर टूट चुके थे, खुद का सब कुछ बर्बाद हो चुका था, लेकिन उन गाँव वालों को जब ये सामाजिक दायित्व दिया तो उन्होंने सरकार बनाए उससे सौ गुना अच्छी स्कूलें बनाई और सरकार बनाएं उससे जल्दी बनाई..! इतना ही नहीं, आज जब भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है उस काल खंड में, हर परिवार को कोई ना कोई नुकसान हुआ था, हर एक को कोई ना कोई मदद की जरूरत थी, उसके बावजूद भी गाँव की उन कमेटियों ने स्कूल बनने के बाद जितने पैसे बचे थे वो पैसे सरकार में वापिस जमा करवाए..! मित्रों, ये छोटी घटना नहीं है..! ये हमारे हिन्दुस्तान के गाँव की आत्मा की आवाज है..! हमारे देश के गाँव में आज भी प्रमाणिकता पड़ी है, हमारे देश के गाँव में आज भी ईमानदारी का वास है, उस शक्ति को अगर हम पहचानें, उस शक्ति को अगर हम स्वीकार करें और उनको अगर हम समार्थ्य दें तो हम कितना बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं ये हमारे सामने उदारहण मौजूद है..!

पंचायती राज व्यवस्था भी..! देश के लिए जितना महात्मय लोकसभा का है, उतना ही महात्मय गाँव के लिए ग्रामसभा का होना चाहिए, लोकसभा से ग्रामसभा को कम नहीं मानना चाहिए..! अगर लोकसभा देश का भविष्य तय करती है तो ग्रामसभा गाँव का भविष्य तय करती है..! ग्रामसभा को प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए, उसके हर शब्द को इज्जत मिलनी चाहिए, उसकी हर सोच को गंभीरता से लेना चाहिए। और जब पूरी व्यवस्था में ग्रामसभा एक कर्मकांड ना बनते हुए, एक जीवन्त इकाई जब बनती है, ग्रामसभा की सोच राज्य को सोचने के लिए मजबूर करती है तो मैं मानता हूँ कि राज्य के निर्णय भी गाँव की सोच से विपरीत कभी नहीं हो सकते हैं, गति में थोड़ा फर्क हो सकता है, कॉन्ट्राडिक्शन नहीं हो सकता है। और अगर सब मिलकर हम एक दिशा में चलें तो हम विकास की नई ऊचाइयों को बहुत तेजी से पार कर सकते हैं..!

2001 में पहली बार मैं मुख्यमंत्री बना..! 7 अक्टूबर को मैं मुख्यमंत्री बना और 11 अक्टूबर को मैंने पहली प्रेस कांन्फ्रेस की थी, 11 अक्टूबर जयप्रकाश नारायण जी का जन्म दिन था और उस दिन मैंने दो घोषणाएं की थी। मुख्यमंत्री के नाते मैं नया था, मुझे कारोबार का कोई एक्सपीरियंस नहीं था, लेकिन उस समय मैंने दो घोषणाएं की थी। एक, हम ग्रामसभाओं का महात्मय बढ़ाएंगे, ग्रामसभाओं को अधिक अच्छे ढंग से करने के लिए नियम से जोड़ेंगे और दूसरा हमने कहा था, उस समय हमारे यहाँ दस हजार गाँवों में पंचायती चुनाव होने वाले थे। भूकंप के बाद का वो कालखंड था। एक प्रकार से हम आर्थिक रूप से काफी टूट चुके थे। साइक्लोन, अकाल, भूकंप... ना जाने कुदरत की जितनी आपत्तियाँ होती हैं, सारी आपत्तियाँ आकर के हमारे दरवाजे पर आ पड़ी थी..! निराशा का माहौल था, गुजरात मौत की चादर ओढ़ कर सोया था, लग रहा था कि अब हम खड़े नहीं हो पाएंगे..! और उस समय दस हजार पंचायतों के चुनावों को फेस करना था। हमने एक छोटा सा विषय रखा था, ‘समरस ग्राम’..! और ये विचार महात्मा गांधी के विचारों का परिणाम था। आचार्य विनोबा भावे लगातार इसी बात को कहते थे कि लोकसभा का चुनाव होता है तो गाँव दुश्मनी में नहीं बदलता, एसेंबली का चुनाव होता है तो गाँव में दुश्मनी के बीज नहीं बोए जाते हैं, लेकिन जब पंचायत के चुनाव होते हैं तो गाँव के हर घर में दुश्मनी के बीज बोए जाते हैं, ब्याह की हुई बेटी ससुराल से वापिस आ जाती है, गाँव दो टुकड़ों में बंट जाता है, एक दूसरे को मारने पर तुले होते हैं, गाँव का विकास पूरी तरह तबाह हो जाता है और इसलिए विनोबा जी कहा करते थे कि विधानसभा के चुनाव को समझ सकते हैं, लोकसभा के चुनाव को समझ सकते हैं, लेकिन ग्राम पंचायत के चुनाव मिलजुल कर सर्व सम्मति से क्यों ना हो..? गाँव मिलबैठ कर के अपना फैसला क्यों ना करे..? मित्रों, इसके लिए हमने ‘समरस ग्राम’ की योजना बनाई। उस समरस गाँव की योजना के तहत हमने गाँवों को कहा कि जो गाँव मिलजुल कर रिर्जवेशन के सारे नॉर्म्स का पालन करते हुए अपने गाँव की रचना करता है उसको हम विकास राशि के रूप में दो लाख रूपया देंगे..! मुझे याद है, उन दिनों में हम पर बहुत आलोचनाएं हुई, हमले हुए, यहाँ तक कह दिया गया कि ये अनडेमोक्रेटिक है..! अब मैं नया-नया मुख्यमंत्री था, चारों तरफ से आक्रमण हुआ था, सब लोग मौका देख कर के मैदान में आए थे। ईश्वर की कृपा से मैं डिगा नहीं, सरदार पटेल की मिट्टी की संतान हैं, डिगना-विगना हम नहीं जानते..! तो हमने उनको ललकारा। हमने कहा कि 51-49 तो डेमोक्रेसी है, 60-40 भी डेमोक्रेसी है, 80-20 डेमोक्रेसी है तो 100-0 डेमोक्रेसी क्यों नहीं हो सकती..? वो डेमोक्रेसी का पूर्ण रुप है अगर सर्वसम्मति का माहौल बनता है तो..! और मैं आज गर्व से कहता हूँ कि उस पहले प्रयोग में 45% इकाइयाँ ऐसी थी, जिन्होंने समरस ग्राम बनने का संकल्प किया और विकास की यात्रा में जुटे..! और उसका एक परिणाम ये हुआ कि गाँव के अंदर जो जीत कर के आते थे वो अहंकार से भरे रहते थे कि देखिए हमने तुमको गिरा दिया और इसलिए काम करते समय भी जिनको पराजित किया है उस इलाके की उपेक्षा करते थे। जब सर्वसम्मति से बने तो उनका अहंकार तो कहीं रहा नहीं, वो उपर से गाँव को ज्यादा समर्पित हो गए, गाँव के सामने झुक कर के चलने लगे, गाँव के सब लोगों को संतोष हो उस प्रकार के निर्णय करने लगे..! पूरे वर्क कल्चर में बदलाव आ गया, सोच में बदलाव आ गया..! और वो प्रयोग आज भी हमारे यहाँ चल रहा है। मूल विचार तो गांधी जी का था, विनोबा जी के माध्यम से प्रकट हुआ था, लेकिन आज भी गुजरात में समरस गाँव होते हैं और करीब-करीब 40-50% गाँव सहमति के साथ अपनी बॉडी बनाते हैं..!

National Conference on Panchayati Raj & Rural Development

इतना ही नहीं, कुछ गाँवों ने कहा कि इस बार हमारे यहाँ सरपंच के रूप में महिला रिजर्वेशन है, तो गाँववालों ने तय किया कि अगर सरपंच महिला है तो सभी मैंबर भी महिला ही रखेंगे, उनको काम करने का मौका देंगे..! मित्रों, आज महिला सशक्तिकरण की बात होती है तब कोई कानून ना होने के बावजूद भी गुजरात में ढाई सौ से अधिक गाँव ऐसे हैं जिन गाँवों में गाँव के पुरुषों ने तय किया कि हम कोई उम्मीदवारी नहीं करेंगे, गाँव की पूरी बॉडी में सब की सब महिलाएं होंगी, गाँव का संचालन और विकास महिलाएं करेंगी..! ढाई सौ से अधिक गाँव ऐसे हैं जहाँ पूरे कारोबार में एक भी पुरूष का रोल नहीं है। और जब ये तय हुआ तो हमने भी कहा कि वहाँ पटवारी भी महिला को ही अपोइन्ट करेंगे..! हमने एक अलग कमेटी बनाई जिससे महिला पंचायतों को जरा और मार्गदर्शन मिले, जरा और मदद मिले। और मैं हैरान हूँ मित्रों, जो बात गांधी जी ने कही थी वो बात गाँव की महिलाएं कहने लगी..!

एक बार मुझे खेड़ा डिस्ट्रिक्ट से महिलाओं का एक डेलिगेशन मिलने के लिए आया। वो पंचायत की चुनी हुई प्रतिनिधि थी और गाँव में वो सभी महिलाएं पंचायत संभालती थी, एक भी पुरूष नहीं था और वो सब मिलने आई। तो सरपंच महिला थी, ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, सातवीं-आठवीं कक्षा तक पढ़ी-लिखी होगी..! और बहुत आत्मविश्वास के साथ बैठी थी। मुख्यमंत्री के सामने मुख्यमंत्री से ज्यादा आत्मविश्वास उनका मुझे दिखाई दे रहा था..! मुझे इतना गर्व हुआ कि मेरे से पूछा गया, मैंने उनसे पूछा कि आप सरपंच बने, क्या करोगे आप लोग..? तो मुझे लगता था कि शायद वो ये कहेगी कि हम गाँव में सफाई करेंगे, हम गाँव में मेल-जोल से लोग रहे ऐसा करेंगे..! मेरे लिए हैरानी थी मित्रों, इस देश में किसी के भी लिए उन महिलाओं ने जो एजेंडा दिया, उससे बड़ा कोई एजंडा नहीं हो सकता है..! उन्होंने मुझे कहा कि हम पाँच साल में कुछ ऐसा करना चाहते हैं कि हमारे गाँव में कोई गरीब न रहे..! एक गाँव की चुनी हुई महिलाएं, सातवीं-आठवीं से अधिक कोई पढ़ी-लिखी नहीं थी, उनका सपना था कि हम गाँव में ऐसा कुछ करना चाहते हैं कि अब पाँच साल के भीतर-भीतर हमारे गाँव में एक भी परिवार गरीब न रहे..! मैंने पूछा कि कैसे करोगे..? तो बोले, हम कोई न कोई रोजगार शुरू करना चाहते हैं, कोई आर्थिक प्रवृत्ति करना चाहते हैं..! वो मुझसे रास्ते के लिए पैसे मांगने नहीं आए, पानी की बिजली का बिल माफ करो ऐसा कहने के लिए नहीं आए, टैक्स में जरा ज्यादा हमको फायदा करो ऐसा कहने के लिए नहीं आए..! उन्होंने कहा, आप कोई ऐसी येाजाना हमें दो ताकि वहाँ आर्थिक प्रवृति बढ़े। अगर मेरे गाँव के अंदर आर्थिक प्रवृति बढ़ेगी, रोजगार उपलब्ध होगा तो मेरे गाँव में कोई गरीब नहीं रहेगा..! मैं मानता हूँ कि उस गाँव की महिलाओं का जो सपना था, उससे बड़ा कोई सपना हिन्दुस्तान की बड़ी से बड़ी सरकार का भी नहीं हो सकता..!

मित्रों, हम कल्पना करें कि हमारे देश में छोटे से छोटे स्थान पर बैठे हुए लोग भी किस प्रकार से काम करते हैं..! और हमने देखा है, एक गाँव की महिला सरपंच मुझे मिलने आई थी, उस गाँव के प्रतिनिधि के रूप में। मैंने कहा बताईए, आपका क्या प्रोजेक्ट है..? उन्होंने मुझे बड़ा मजेदार कहा, उन्होंने कहा कि हमने तय किया है कि हमारे गाँव में जितने भी घर हैं, हर एक को हम 100% शौचालय वाला बना देंगे। एक भी घर ऐसा नहीं होगा जहाँ शौचालय ना हो और एक भी परिवार की माँ-बहन ऐसी ना हो जिसको अपनी शौच क्रिया के लिए खुले में जाना पड़े और उसको शर्मिंदगी से जिंदगी जीनी पड़े..! मित्रों, ग्रामीण विकास में आजादी के इतने सालों के बाद क्या हमें पीड़ा नहीं होती है कि हमारी माता-बहनों को शौच क्रिया के लिए खुले में जाना पड़े..? उनकी इज्जत मर्यादाओं को चिंता हो..! और बेचारी दिन के उजाले में जाती नहीं है, दिन भर परेशानियाँ भोगती है, बीमार हो जाती है और अंधेरे का इंतजार करती है..! हम जैसा देश, गांधी जी के सपनों को पूरा करने का संकल्प किया हुआ देश..! और इसलिए मैंने एक बार नारा दिया था। और जिस प्रकार की मेरी छवि है तो मेरे इस नारे के कारण कई लोगों से नाराजगी की संभावना भी रही। मैंने ये कहा था, पहले शौचालय, बाद में देवालय..! मित्रों, ये कहने में बहुत बड़ी हिम्मत लगती है, लेकिन मैंने ये आग्रह से कहा था कि पहले शौचालय बाद में देवालय..! क्या हम संकल्प करके नहीं जा सकते कि हम हमारे गाँव के हर घर में शौचालय के लिए पूरी कोशिश करेंगे..? गुजरात में हमने एक अभियान उठाया है, 80-90% काम हमने पूरा कर दिया है और जो थोड़ा बचा है वो भी पूरा कर देंगे..!

मित्रों, हमने ग्रामीण विकास में एक बात कही है। देखिए, जिम्मेवारी का भी तत्व रहना चाहिए। ये जो देश में चैरेटी वाला मामला चला है ना, रुपए बांटते चलो..! क्यों..? क्योंकि चुनाव जीतने के अलावा और कोई काम ही नहीं बचा इनके पास..! मित्रों, ठोस विकास होना चाहिए, जो लोगों को अपने पैरों पर खड़े रहने की ताकत दे, गाँव की अपनी इकोनॉमी डेवलप हो..! ये अगर नहीं होगा तो हम कितना ही डालते जाएंगे, स्थितियाँ नहीं बदलेंगी। हमने गाँवों को एक छोटा सा सुझाव दिया कि आप गाँव में सफाई का टैक्स लागू कीजिए और गाँव के जो नेता होते हैं वो गाँव में सफाई का टैक्स लगाने के लिए तैयार नहीं होते हैं..! क्यों..? तो फिर हम अगला चुनाव हार जाएंगे..! हमने कहा, चुनाव की चिंता छोड़ो भाई, गाँव की चिंता करो..! सफाई का टैक्स लगाइए, बहुत छोटा, एक पैसा, दो पैसा, बहुत ज्यादा लगाने की जरूरत नहीं है, लेकिन आदत डालो और आप जितना टैक्स लगाओगे मैं उसका मैंचिंग ग्रांट आपको दूंगा और गाँव में सफाई को प्राथमिकता दो..! मित्रों, चीजों को बदला जा सकता है..!

आप देखिए, आज हमारे गाँव में पशुपालन रोजीरोटी का एक महत्वपूर्ण काम है। लेकिन उस पशु के लिए कोई व्यवस्था है क्या..? कोई सोचता ही नहीं है..! और पशु के लिए कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण गाँव की व्यवस्था, अव्यवस्था में बदल जाती है। हमने एक छोटा सा प्रयोग शुरू किया है, एनिमल होस्टल..! अब बच्चों के होस्टल हो ये तो लोग समझ सकते हैं, पशु का भी छात्रालय हो सकता है क्या..? हमने किया है..! यहीं नजदीक में है, कल शायद आपमें से कुछ लोग जाने वाले हैं देखने के लिए..! गाँव के नजदीक में सरकार ने जमीन दी, गाँव के करीब 900 पशु उस छात्रालय में रहते हैं। अब घर के बाहर एक भी पशु खड़ा नही होता। पहले क्या होता था..? एक छोटा सा घर हो, आगे थोड़ी जगह हो, चार पशु हो तो पशु भी बेचारे अपना दिन क्रम बदल लेते थे, एडजस्टमेंट कर लेते थे, स्टेगरिंग सिस्टम लाते थे..! जगह कम होने के कारण दो पशु खड़े रहते थे और दो सो जाते थे, फिर दो पशु खड़े रहते थे और दो सो जाते थे, ऐसे ही गुजारा करते थे..! मित्रों, हम बारीकी से देखें तो उनके अंदर भी कितनी सोच समझ होती है, दो पशु खड़े रहते थे और दो सो जाते थे..! अब उसके पास जमीन नहीं थी, किसी और के घर के आगे बांध नहीं सकता था, करे क्या बेचारा..? पशु छात्रालय बनने के कारण सारे गाँव के पशु वहाँ आ गए। महिलाएं जो 24 घंटे बच्चों कि चिंता नहीं करती थी, लेकिन पशु की करती थी। बच्चा उसकी सेकंड प्रायोरिटी थी, पशु उसकी फर्स्ट प्रायोरिटी थी..! क्योंकि दया का भाव भी था, माँ का हृदय भी था और अबोल पशु की चिंता करना उसके संस्कार थे और आजीविका का साधन भी था..! बच्चा बाद में पशु पहले, ये स्थिति थी और महिलाएं उसी में लगी रहती थी। मित्रों, हमने उसमें बदलाव लाया। अब क्या हुआ, वो बेचारी तीन-चार घंटे होस्टल चली जाती है, वहाँ अपने पशु की संभाल लेती है, दूध दुहना है, खाना है, पिलाना है, बाकी नौकरों से करवा लेती हैं वहाँ। सारा पशु छात्रालय का काम चार नौकरों से चल जाता है और वो महिला पूरा दिन फ्री रहती है। अब वो कोई न कोई आर्थिक प्रवृति करती हैं, बच्चों की देखभाल करती हैं, पूरे गाँव में सफाई रहती है, आरोग्य की सारी समस्याएं दूर हो गई हैं, ऊपर से हॉस्टल में फर्टीलाइजर, गैस, बिजली, मिल्क प्रोडक्शन अतिरिक्त..! गाँव की इनकम में 20% इजाफा हुआ है, बीस परसेंट..! मित्रों, ये छोटी बात नहीं है..! क्या हम गाँव-गाँव गोबर बैंक नहीं बना सकते..? गाँव का सारा गोबर एक बैंक में जमा किया जाए, जैसे पैसे बैंक में जमा करते हैं उस तरह से, और साल भर के बाद जितना जमा किया है उस हिसाब से उसको फर्टीलाइजर वापिस मिल जाए..! जमा किये हुए गोबर से जो गैस उत्पादन हो, उससे जो इनकम हो वो गाँव में बांट ली जाए..! गाँव कैसे सेल्फ सफिशियेंट बने उस पर हम जितना ध्यान देंगे और हमें गाँव को आर्थिक प्रवृति का केन्द्र बनाना चाहिए। ग्राम राज्य का सपना तब पूरा होता है जब गाँव स्वयं आर्थिक प्रवृति का केन्द्र बने, उत्पादन का केन्द्र बने..!

मित्रों, आज हिन्दुस्तान का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर शहरों में ही सीमित होता चला गया है और लोगों को भी लगता है कि ये ठीक है..! भाइयों-बहनों, अगर भारत जैसे देश का विकास करना है तो हमें लघु उद्योगों के माध्यम से, कॉटेज इंडस्ट्रीज के माध्यम से गाँव के अंदर पूरा जाल बिछाना पड़ेगा और उसके लिए उनको जो चाहिए अगर वो वहाँ पहुँच रहा है तो मार्केट की सुविधाएं उपलब्ध करवाना मुश्किल नहीं है। लेकिन अगर स्किल हो, रिसोर्स हो, रॉ मैटेरियल हो, इन्फ्रास्ट्रक्चर हो, सफिशियेंट पावर सप्लाई हो, तो गाँव की ताकत है, गाँव देश के विकास में बहुत बड़ा कान्ट्रीब्यूशन कर सकता है और खेती के सिवाय भी अनेक काम गाँव में किये जा सकते हैं..!

अब देखिए, हमारे यहाँ गाँवों में 24 घंटे बिजली देने का काम हुआ, ‘ज्योतिग्राम योजना’..! और मुझे खुशी है कि मध्य प्रदेश ने भी ‘अटल ज्योति’ के नाम से इसी काम को आगे बढ़ाया। मध्य प्रदेश भी शायद निकट भविष्य में सभी गाँव में 24 घंटे बिजली देने में सफल हो जाएगा। कई जिलों में उन्होंने ये काम पूरा कर दिया। गाँव में जो बिजली जाती है वो बिजली सिर्फ उजाला लेकर आती है ऐसा नहीं है, वो जीवन का नया दर्शन लेकर आती है, जीवन में एक नई ज्योत प्रकटाने आती है..! जब हमने ज्योतिग्राम योजना का लोकापर्ण किया तो उसके साथ हमने बिजली के माध्यम से किन-किन टैक्नोलॉजी को ग्रामीण विकास में लाया जा सकता है उसके निदर्शन किये। कुम्हार जो बेचारा पहले हाथ से काम करता था, अब बिजली का उपयोग करने लगा। धोबी पहले कोयले जलाता था, अब बिजली का उपयोग करने लग गया। कारपेंटर वगैरह सब बिजली के उपयोग से, साधनों के माध्यम से अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ाने लगे। गाँव के जीवन में बिजली आने से मूल्य वृद्घि की सुविधाएं बढ़ने लगी। किसान भी पहले हरी मिर्ची पैदा करता था, अब लाल मिर्ची बना कर के, लाल मिर्ची का पाउडर बना कर के पैकेट में पैक करके बेचने लग गया। जो चीजों से वो तीन लाख रूपया कमाता था, वो बीस-बाइस लाख रूपया कमाने लग गया। मित्रों, मूल्य वृद्घि खेती के क्षेत्र में कैसे हो उस पर हम किस प्रकार से किसानों को बल दें..! दूध है, दूध बेचें तो पैसा कम आता है, दूध की मूल्य वृद्घि करें, उसकी कोई प्रोडक्ट बनाएं तो पैसे ज्यादा मिलते हैं। आलू बेचें तो कम पैसा मिलता है, वेफर्स बेचें तो ज्यादा पैसा मिलता है। आम बेचें तो कम पैसा मिलता है, आम का अचार बनाकर बेचें तो ज्यादा पैसा मिलता है। किसान आसानी से मूल्य वृद्घि कैसे कर सके और पूरे ग्रामीण अर्थकारण को हम जितना बढावा देंगे उतना ही हमारा देश समृद्घ होने वाला है। बेरोजगारी का बोझ गाँव खुद रोजगारी में परिवर्तित करके, आर्थिक बोझ गाँव सहन कर सके इतनी ताकत पड़ी हुई है..!

मित्रों, कानून में भी बहुत बड़े सुधारों की आवश्यकता है। आप में से कई लोगों को पता नहीं होगा, हमारे देश में एक नियम है लेकिन पिछले साठ-सत्तर साल में किसी भी सरकार ने इस नियम का पालन नहीं किया है, उस परंपरा को नहीं निभाया और इस देश का दुर्भाग्य है कि इस पर किसी ने आवाज नहीं उठाई..! जमीन के संबंध में जितने भी कानून और व्यवस्थाएं विकसित हुई वो टोडरमल के सुधारों के नाम से जानी जाती है। एक परंपरा और नियम है कि हर तीस साल में एक बार जितनी भी जमीन है उसको नापना चाहिए, जमीन के टुकड़ों कि दिशाएं तय होनी चाहिए, उसका क्षेत्रफल तय होना चाहिए, उसकी मालिकी तय होनी चाहिए, उस जमीन की क्या हालत है उसको जानना चाहिए, हर तीस साल में एक बार ये होना चाहिए। आज मुझे दुख के साथ कहना है मित्रों, पिछले सौ साल से हिन्दुस्तान में ये काम नहीं हुआ है..! उसके कारण आज से पचास साल पहले जहाँ खेत था और कभी नदी ने रास्ता बदल दिया और वहाँ नदी बन गई, खेत की जमीन चली गई, लेकिन सरकारी दफ्तर पर आज भी खेत है, नदी नहीं है, क्यों..? क्योंकि ये जो काम होना चाहिए वो नही किया। मित्रों, आज मैं संतोष के साथ कहता हूँ कि गुजरात पहला राज्य है जिसने जमीन नापने का एक बहुत बड़ा अभियान चलाया। हम सैटेलाइट सिस्टम का उपयोग कर रहे हैं, आधुनिक टैक्नोलॉजी का उपयोग कर रहे हैं। कौन उसका मालिक है, उसकी जमीन कितनी है, किस दिशा में कहाँ कौन सा कोना पड़ता है, जमीन के अंदर तालाब है, कुआं है, नहीं है, नदी से कितना दूर है, सारी चीजें..! और पूरे गाँव का निकाल कर के गाँव के सामने रखा जाता है, किसी को ऑब्जेक्शन हो तो वो लिखता है। एक प्रकार से गाँव की अपनी जमीन कितनी है, किसान की मालिकी की जमीन कितनी है, औरों की जमीन कौन सी है, कहाँ है, उसका पूरा खाका तैयार हो रहा है। अपनी संपत्ति का अगर हमें मालूम नहीं होगा, हमारी जागीर का हमें पता नहीं होगा तो हम योजनाएं बना नहीं सकते। और बड़ी सफलता पूर्वक इन दिनों गुजरात में ये काम चल रहा है..!

मित्रों, कुछ तो ऐसे पुराने कानून हैं जिसके कारण हमारा गाँव का किसान बहुत परेशान है। हमने बहुत क्रांतिकारी रूप से रिफॉर्म कि दिशा में कदम उठाए..! मित्रों, हमारे देश में रिफॉर्म कि चर्चा हो रही है, लेकिन वो रिफॉर्म का दायरा रूपयों-पैसों से ज्यादा जुड़ा हुआ है, उस रिफॉर्म का दायरा बड़े-बड़े उद्योगों को प्रोत्साहन देने की दिशा में ज्यादा जुड़ा हुआ है..! मित्रों, सच्चे अर्थों में रिफॉर्म की आवश्यकता हो तो रिफॉर्म की प्राथमिकता में ग्रामीण व्यक्ति के लाभ के लिए कौन से रिफॉर्म कर रहे हैं, उसकी कठिनाइयों को दूर करने के लिए रिफॉर्म का हमारा रास्ता क्या है, हमारी पुरानी घिसी-पिटी व्यवस्थाएं जो काल बाह्य हो चुकी हैं, उस से गाँव के लोगों को मुक्ति मिले उसके लिए हम क्या कर सकते हैं, इस पर हमें बल देना चाहिए..! और उसमें सबसी बड़ी रूकावट होती है, रेवेन्यू के कानून। और रेवेन्यू कानून बदलने में लोग डरते हैं क्योंकि वो 200-300 साल पुराने कानून पड़े हैं। उन कानूनों में बदलाव चाहिए..!

हमारे यहाँ एक ‘टुकड़ा धारा’ था। हमारा किसान इतना परेशान था कि उसकी जमीन का एक छोटा टुकड़ा है... क्योंकि बेटे, बेटे के बेटे, जमीन बंटती गई, भाइयों में जमीन बंटती गई, चाचा-मामा में बंटती गई और जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े रह गए..! अगर वो जमीन का टुकड़ा बेचना चाहता था तो नियम ये था कि बगल वाला जो किसान है उसी को उसे वो देना पड़ेगा, किसी ओर को नहीं दे सकता था..! और बगल वाला उसका एक्सप्लोइटेशन करता था। दस रूपया बाजार में चलता हो, तो वो कहता था आठ रूपया दूंगा..! और वो बेचारा उसे रखे तो भी बेमतलब था, और बेचे तो भी बेमतलब था। अब ये कानून के कारण था..! हमने वो टुकड़ा धारा को समाप्त कर दिया और अब वो जमीन का टुकड़ा जिस किसी को बेचना चाहे, बेच सकता है। उसको कलेक्टर की परमीशन की जरूरत पड़ती थी, वो लेने की जरूरत नही है, तुम उसके मालिक हो, जो करना है करो..! और उसके कारण वो जो चाहता था वो मूल्य आज उसे मिलने लगा, उसकी मजबूरी दूर हो गई..!

मित्रों, पहले हमारे यहाँ कानून था कि परिवार में पिताजी ने अगर भाइयों को जमीन बांटी, बहनों को बांटी, बच्चों को बांटी तो उसका भी रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ता था और रजिस्ट्रेशन का भी टैक्स इतना होता था, कभी दस हजार, कभी बारह हजार, कभी पन्द्रह हजार रूपया... तो फिर वो किसान सोचता था कि भाई, चलो हम तो भाई-बहन हैं, चिट्ठी लिख देते हैं। तो वो सिर्फ चिट्ठी लिख देते थे, कोई कानूनी कार्रवाई नहीं करते थे और बाद में बीस-पच्चीस साल बाद उनके परिवार में कोई तनाव पैदा होता था तो मामला कोर्ट-कचहरी का बनता था और उस कागज को कोई मानता नहीं था..! ऐसा किया क्यों..? वो दस-पन्द्रह हजार रूपये बचाने के लालच में कर दिया, भाई-भाई के भरोसे के कारण कर दिया..! मित्रों, वक्त बदलता गया, उसके कारण परिवारों में कोर्ट-कचहरी का इतना टकराव पैदा हो गया, परिवार की पूरी शक्ति वकीलों को फी देने में जा रही है। हमने कानून बदल दिया। हमने कहा कि यदि खून का रिश्ता है, एक ही रक्त के संबंध में जमीन ले-बेचनी है तो आपको वो टैक्स नहीं देना पड़ेगा, सिर्फ सौ रूपया फी दे दीजिए और आप अपनी जमीन बदल सकते हैं..! सारा काम कागजी हो गया, अब परिवारों के अंदर कोई दुविधा नहीं रही..!

मित्रों, बहुत तेजी से डेवलपमेंट हो रहा है। डेवलपमेंट के कारण जमीन लेनी पड़ती है। रोड्स बनाने हैं तो जमीन चाहिए, अस्पताल बनाने हैं तो जमीन चाहिए, स्कूल बनाना है तो जमीन चाहिए, लोगों को घर बनाना है तो जमीन चाहिए..! लेकिन कभी-कभी सरकार जमीन एक्वायर करती है तो एक आद परिवार ऐसा होता है जिसकी सारी जमीन चली जाती है। अब वो बेचारा जाएगा कहाँ..? जिस किसान की पाँच एकड़ भूमि हो और पाँचों एकड़ भूमि किसी प्रोजेक्ट में चली जाएगी तो वो क्या करेगा..? हमने एक निर्णय किया कि जिस दिन हम उसकी जमीन लेंगे उसी दिन उसके किसान होने के हक का एक एक्स्ट्रा पत्र उसको देंगे। भले ही उसके पास जमीन नहीं है लेकिन किसान होने का उसका हक जारी रहेगा और दो साल के भीतर-भीतर नजदीक में कहीं पर भी अगर वो जमीन ले लेता है तो आजीवन किसान के रूप में परिवर्तन होगा, किसान के रूप में उसके हक कोई छीन नहीं सकता, ये व्यवस्था की..! और उसके कारण आज हमारे किसानों को पैसा भी मिल रहा है, किसान होने का हक भी चालू रहता है और कहीं ना कहीं सस्ती जमीन लेकर के पहले अगर पाँच एकड़ भूमि है तो आज वो पन्द्रह एकड़ भूमि का मालिक बनता जा रहा है..! अगर सरकार सामान्य मानवी की आवश्यकताओं की पूर्ति करे, विशेषकर के इन जमीन के कानूनों का जितना सरलीकरण हम करें, जितना तेजी से हम रिफॉर्म करें, हमारे किसानों को जितना संकटों को मुक्त करवाएं, गाँव के उतने ही झगड़े मुक्त हो जाएंगे..!

मित्रों, जैसे हमने गुजरात में समरस गाँव की कल्पना की, उसी प्रकार से गोकुल ग्राम की कल्पना की। उस गोकुल ग्राम के तहत हमने गाँव के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर बल दिया। मिनिमम 8-10 आइटम तय की। हर गाँव में पंचायत घर होना चाहिए, हर गाँव में पंचायत घर तक जाने का रास्ता होना चाहिए, हर गाँव में पंचवटी होनी चाहिए, हर गाँव में पीने के पानी की व्यवस्था... ऐसे आठ-दस इन्फ्रास्ट्रक्चर से संबंधित पैरामीटर तय किये और हर गाँव में गोकुल ग्राम का काम किया, करीब-करीब सभी गाँव में उस काम को हमने पूरा कर दिया। फिर हमने सोचा कि हमारा गाँव आज भले गाँव रहा हो, लेकिन गाँव के लोगों की सोच अब ग्रामीण सोच नहीं है, ये मूलभूत परिवर्तन हमको समझना पड़ेगा। स्ट्रक्चर वाइज, जनसंख्या की दृष्टि से वो गाँव है, लेकिन सोच की दृष्टि से वो शहर से पीछे नहीं है..! शहर का नौजवान जो सोचता है, गाँव का नौजवान भी वहीं सोचता है..! शहर की महिला जो सोचती है, गाँव की महिला भी वहीं सोचने लगी है..! आज शहर में ही ब्यूटी पार्लर होते हैं ऐसा नहीं, मैं देख रहा हूँ गुजरात में तो गाँव में भी ब्यूटी पार्लर चल रहे हैं..! सोच पहुँची है मित्रों, हम माने या ना माने, दिमाग में बदलाव के बीज वटवृक्ष बन चुके हैं और इसलिए हम जब विकास का मॉडल करें तब, ये जो ग्रामीण व्यक्ति के एस्पीरेशन्स हैं उन एस्पीरेशन्स को हमें पकड़ना पड़ेगा। उसकी आशा-आकांशाओं के अनुकूल हमें सुविधाएं विकसित करनी पड़ेगी..!

हमने ज्योतिग्राम किया तो गाँव के जीवन में बहुत बदलाव आया, गाँव से शहर की ओर जाने की स्थिति में बदलाव आया। उसके बाद हमने किया, ई-ग्राम विश्व ग्राम..! हिन्दुस्तान में गुजरात एकमात्र राज्य ऐसा है जिसके हर गाँव में ब्राडबेंड कनेक्टिविटी है, ऑप्टीकल फाइबर नेटवर्क है..! जो सुविधा शहर के लोगों को है, इंटरनेट है, मोबाइल है, कम्प्यूटर है, वीडियो कान्फ्रेंस है, सब... सारी सुविधाएं हमने गाँव में दी। आज गुजरात का गाँव अमेरिका में बैठे अपने परिवारजनों से ‘स्काइप’ पर बात करता है, पूरे परिवार के अवसरों को दिखाता है। यहाँ शादी है, रिश्तेदार अगर अमेरिका से नहीं आए हैं तो ऑनलाइन वो शादी के समारोह में उनको शरीक कर देता है। ये गाँव के जीवन में बदलाव आया है। टैक्नोलॉजी का लाभ उसको भी मिला है। उसका परिवर्तन आया है। मैंने ऐसे गाँव देखे हैं कि जहाँ के शमशान में सीसीटीवी कैमरा लगे हैं, ऑनलाइन वीडियो कैमरा लगे हैं और गाँव के किसी रिश्तेदार का वहाँ अग्नि संस्कार हो रहा है और अमेरिका से उसका परिवार नहीं आ सका तो उस अग्नि संस्कार के अंदर वो अपने गाँव में शरीक होता है। इस प्रकार से उनके मन में भी टैक्नोलॉजी की ओर जाने की इच्छा जगी है। हमें ग्रामीण विकास को करना है तो आधुनिक से आधुनिक टैक्नोलॉजी उनको उपलब्ध करवानी चाहिए..! और वो ज्यादा खर्चीला मामला नहीं है। कम्यूनिकेशन टैक्नोलॉजी जितनी ज्यादा हम उपलब्ध करवाएंगे, गाँव टूटने बंद हो जाएंगे, गाँव के जीवन में एक नया परिवर्तन आएगा। उसके मन में जो सोच बदली है, उस सोच के अनुसार गाँव भी बदलेगा और हम उसके पूरक बनेंगे और इसलिए हमने ई-ग्राम विश्व ग्राम की योजना बनाई। ये टैक्नोलॉजी सैट-अप होने के बाद बच्चों की शिक्षा के लिए हम लाँग डिस्टेंस एज्यूकेशन का उपयोग करने लगे। अगर गाँव में टीचर अच्छा नहीं है तो गांधीनगर से सैटेलाइट के माध्यम से उस क्लास के अंदर पढ़ा सकते हैं। टैक्नोलॉजी का लाभ हुआ, बच्चों की शिक्षा में परिवर्तन आया। ये किया जा सकता है..!

इतना ही नहीं, गाँव के व्यक्ति के सामने एक संकट होता है कि वो अपनी शिकायत किसको करे..? क्योंकि गाँव वालों के लिए तो वो पटवारी ही उसका मुख्यमंत्री होता है..! पटवारी की इच्छा नहीं हुई तो गाँव का भला नहीं हो सकता है। गाँव वाले को शिकायत करनी है तो किसको करे, कैसे करे, बेचारा..? उसको पता तक नहीं होता है कि कहाँ जाएं..! मित्रों, हमने दो-तीन रिफॉर्म किये। एक, पंचायत राज व्यवस्था से जो चलता था उसमें हम गोल्डन जुबली ईयर के अंदर ए.टी.वी.टी. कॉन्सेप्ट लाए, ‘अपना तालुका, वाइब्रेंट तालुका’..! पहले जिला इकाई थी जो निर्णय करती थी, अब हमने दो-दो तहसीलों को क्लब करके एक प्लानिंग करने वाली, इम्पलीमेंटेशन करने वाली एक नई व्यवस्था खड़ी की है, और अधिक डिसेन्ट्रलाइज किया है और ग्रामसभा में जो सुझाव आते हैं उन सुझावों को विकास का आधार मानना चाहिए, ये नियम से किया है। और पूरे स्ट्रक्चर में ए.टी.वी.टी. कॉन्सेप्ट ला कर के ग्रामीण व्यवस्था को और सुदृढ करने का प्रयास किया है..!

एक और काम किया है, मित्रों। मैं मानता हूँ कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी अगर कोई ताकत होती है तो वो ताकत होती है ‘ग्रीवेंस रिड्रेसल सिस्टम’, हम आम आदमी की शिकायतों का समाधान कैसे करें, फरियाद निवारण कैसे करें, जितनी अच्छी ये व्यवस्था होगी, उतनी ही डेमोक्रेसी स्ट्रेन्दन होगी..! और इसलिए हम ‘स्वागत ऑनलाइन’ कार्यक्रम करते हैं जिसको यूनाइटेड नेशन ने अवॉर्ड दिया है..! गाँव का आदमी ऑनलाइन अपनी शिकायत कर सकता है। उसको गाँव से शहर तक आना नहीं पड़ता है, तहसील या जिले तक जाना नहीं पड़ता है। मित्रों, आज लाखों की तादाद में इन शिकायतों का समाधान ऑनलाइन हो रहा है। और हमारे गाँव को हमने इतना एम्पावर किया है हमने कि कभी किसी गाँव की या गाँव के किसी व्यक्ति की समस्या का समाधान अगर नहीं हुआ तो कलेक्टर कचहरी में डी.एम. के सामने जा कर वो खड़ा हो जाता है..! पैर में जूते नहीं होते हैं, फटे कपड़े होते हैं, शरीर गंदा होता है, पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन वो डी.एम. के सामने, कलेक्टर के सामने आँख में आँख मिला कर के बोलता है कि साब, आप ये करते हो कि नहीं करते हो, वरना मैं ऑनलाइन जाऊंगा..! जैसे ही वो कहता है कि मैं ऑनलाइन जाऊंगा, कलेक्टर खड़ा हो जाता है और कहता है कि आइए-आइए, बैठिए, क्या प्राबलम है आपको..! ये ताकत है टैक्नोलॉजी की..! हम टैक्नोलॉजी के माध्यम से हमारे गाँव के लोगों को एम्पावर कर सकते हैं और ये एम्पावरमेंट जो है वो आखिरकार परिवर्तन करने के लिए उसको जिम्मेवार बनाता है..!

मित्रों, हमने एक और काम किया, जैसे समरस गाँव किया..! हमने एक योजना बनाई। मित्रों, आज भी दुनिया के लोगों के लिए हमारे देश को समझना बहुत मुश्किल है। जो वेस्टर्न सोच के साथ पले बढ़े लोग हैं, हमारे देश के ही, वो भी हमारे देश की ताकत को नहीं जानते..! मित्रों, इतना बड़ा देश, सात लाख गाँव, सवा सौ करोड़ की जनसंख्या और आज कानून व्यवस्था की इतनी नई-नई झंझटें पैदा हो रही हैं..! इस बीच में भी ये देश ऐसा है कि सात लाख गाँव में सिर्फ पचास हजार पुलिस थाने हैं..! सिर्फ पचास हजार पुलिस थाने होने के बाद भी ये देश सुरक्षा की अनुभूति कर पा रहा है, गाँव सुरक्षा की अनुभूति कर रहा है। क्यों..? क्योंकि मिल-जुल के जीना, रहना ये हमारे ब्लड में है, ये हमारे संस्कार में हैं, ये हमारी बहुत बड़ी विरासत है..! कोई पुलिस का डंडा हमें ठीक नहीं रखता है, हमारे संस्कार हमें ठीक रखते हैं। कोई कानून से हम बंधे हैं इसलिए सही दिशा में जा रहे हैं ऐसा नहीं, हमारे संस्कार हैं जिसके कारण हम चल रहे हैं। वरना इतना बड़ा देश, कोई मानने को तैयार नहीं होगा कि सात लाख गाँव के देश में पचास हजार पुलिस थाने हो, फिर भी सात लाख का देश चल रहा है..! ये जन सामान्य की शक्ति है और इस शक्ति को पहचानने के लिए हमने एक योजना बनाई, ‘तीर्थ ग्राम-पावन ग्राम’..! जो गाँव में तीन साल तक कोई कोर्ट-कचहरी का केस ना हुआ हो, कोई पुलिस थाने में एफ.आई.आर. दर्ज ना हुई हो, कोई कोर्ट-कचहरी का केस नहीं चलता हो, ऐसे गाँव को हम ‘पावन ग्राम’ का सर्टीफिकेट देते हैं और स्पेशल राशि विकास के लिए देते हैं। जिस गाँव में पांच साल से ज्यादा समय तक एक भी ऐसी घटना ना घटी हो, तो उस गाँव को हम ‘तीर्थ ग्राम’ का सर्टीफिकेट देते हैं, उसको अधिक राशि देते हैं। और मित्रों, आज मेरे गुजरात में सैंकड़ों ऐसे गाँव हैं जहाँ पर पाँच-पाँच साल तक एक भी दंगा-फसाद नहीं हुआ है, एक भी एफ.आई.आर. नहीं हुई है, कोई तकलीफ नहीं हुई है..! कुछ गाँवों को तकलीफ हुई तो किस कारण से हुई..? एक्सीडेंट के कारण जो एफ.आई.आर. लिखी गई, उसके कारण वो बेचारा ‘तीर्थ ग्राम’ बनने से रह गया..! तो अभी हम कानून बदल रहे हैं कि अकस्मात होने के कारण अगर कोई कानूनी कार्रवाई होती है तो उसको इसके साथ नहीं जोड़ा जाएगा, क्योंकि एक्सीडेंट तो एक्सीडेंट होता है। मित्रों, अगर हम प्रोत्साहन दें तो लोग सुख-चैन से, भाईचारे से जीने के लिए तैयार होते हैं..! पावन ग्राम, तीर्थ ग्राम ये ऐसी कल्पनाएं हैं जो गाँव को विकास का नया मॉडल देती है..!

मित्रों, रिफॉर्म का केन्द्र गाँव होना चाहिए, रिफॉर्म का केन्द्र गाँव का सामान्य मानवी होना चाहिए, निर्णय शक्ति में गाँव को हिस्सेदार बनाना चाहिए, हम जितनी बड़ी मात्रा में इन मूलभूत बातों को लेकर के चलेंगे तो आज जब हम पंचायती राज व्यवस्था के 50 साल मना रहे हैं तब पूरी व्यवस्था सशक्त होगी और हमारा गाँव सशक्त होगा तभी देश सशक्त होगा, हमारा गाँव उत्पादन का केन्द्र बनेगा तो हिन्दुस्तान मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में आगे बढ़ेगा, हमारे गाँव में रोजगार की संभावनाएं बढ़ेंगी, तो ही देश में से बेरोजगारी जाएगी, गाँव आर्थिक संपन्नता को प्राप्त करेगा, तब हिन्दुस्तान संपन्नता को प्राप्त करेगा और इसलिए आर्थिक संपन्नता के लिए भी गाँव को इकाई बना करके हम आगे चलते हैं तो हम बहुत बड़ा योगदान दे सकते हैं, इन्हीं शब्दों के साथ फिर एक बार मैं आप सबका स्वागत करता हूँ..! मुझे विश्वास है कि आज और कल ग्रामीण विकास, पंचायती राज व्यवस्था के लिए अनेक नए सुझावों के साथ हम लोग चर्चा-विचार करते रहेंगे, अनेक नई बातों की ओर चर्चा-विचार करते रहेंगे। फिर एक बार आप सबको बहुत-बहुत शुभ कामनाएं..!

भारत माता की जय..!

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वंदेमातरम् ने उस विचार को पुनर्जीवित किया, जो हजारों वर्षों से भारतवर्ष की रग-रग में रचा-बसा था:लोकसभा में पीएम मोदी
December 08, 2025
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल दिया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होते देखना हम सभी के लिए गर्व की बात है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम वह शक्ति है जो हमें, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित करती है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने भारत में हजारों वर्षों से गहराई से जड़ें जमाए विचार को फिर से जागृत किया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम में हजारों वर्षों की सांस्कृतिक ऊर्जा भी समाहित होने के साथ-साथ स्वतंत्रता का उत्साह और स्वतंत्र भारत का दृष्टिकोण भी शामिल था
प्रधानमंत्री ने कहा- लोगों के साथ वंदे मातरम का गहरा सम्‍बंध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की यात्रा को दर्शाता है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल और दिशा दी
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के सर्वव्यापी मंत्र ने स्वतंत्रता, त्याग, शक्ति, पवित्रता, समर्पण और लचीलेपन को प्रेरित किया

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आपका और सदन के सभी माननीय सदस्यों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं कि हमने इस महत्वपूर्ण अवसर पर एक सामूहिक चर्चा का रास्ता चुना है, जिस मंत्र ने, जिस जय घोष ने देश की आजादी के आंदोलन को ऊर्जा दी थी, प्रेरणा दी थी, त्याग और तपस्या का मार्ग दिखाया था, उस वंदे मातरम का पुण्य स्मरण करना, इस सदन में हम सब का यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। और हमारे लिए गर्व की बात है कि वंदे मातरम के 150 वर्ष निमित्त, इस ऐतिहासिक अवसर के हम साक्षी बना रहे हैं। एक ऐसा कालखंड, जो हमारे सामने इतिहास के अनगिनत घटनाओं को अपने सामने लेकर के आता है। यह चर्चा सदन की प्रतिबद्धता को तो प्रकट करेगी ही, लेकिन आने वाली पीढियां के लिए भी, दर पीढ़ी के लिए भी यह शिक्षा का कारण बन सकती है, अगर हम सब मिलकर के इसका सदुपयोग करें तो।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह एक ऐसा कालखंड है, जब इतिहास के कई प्रेरक अध्याय फिर से हमारे सामने उजागर हुए हैं। अभी-अभी हमने हमारे संविधान के 75 वर्ष गौरवपूर्व मनाए हैं। आज देश सरदार वल्लभ भाई पटेल की और भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती भी मना रहा है और अभी-अभी हमने गुरु तेग बहादुर जी का 350वां बलिदान दिवस भी बनाया है और आज हम वंदे मातरम की 150 वर्ष निमित्त सदन की एक सामूहिक ऊर्जा को, उसकी अनुभूति करने का प्रयास कर रहे हैं। वंदे मातरम 150 वर्ष की यह यात्रा अनेक पड़ावों से गुजरी है।

लेकिन आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम को जब 50 वर्ष हुए, तब देश गुलामी में जीने के लिए मजबूर था और वंदे मातरम के 100 साल हुए, तब देश आपातकाल की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। जब वंदे मातरम 100 साल के अत्यंत उत्तम पर्व था, तब भारत के संविधान का गला घोट दिया गया था। जब वंदे मातरम 100 साल का हुआ, तब देशभक्ति के लिए जीने-मरने वाले लोगों को जेल के सलाखों के पीछे बंद कर दिया गया था। जिस वंदे मातरम के गीत ने देश को आजादी की ऊर्जा दी थी, उसके जब 100 साल हुए, तो दुर्भाग्य से एक काला कालखंड हमारे इतिहास में उजागर हो गया। हम लोकतंत्र के (अस्पष्ट) गिरोह में थे।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

150 वर्ष उस महान अध्याय को, उस गौरव को पुनः स्थापित करने का अवसर है और मैं मानता हूं, सदन ने भी और देश ने भी इस अवसर को जाने नहीं देना चाहिए। यही वंदे मातरम है, जिसने 1947 में देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता संग्राम का भावनात्मक नेतृत्व इस वंदे मातरम के जयघोष में था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

आपके समक्ष आज जब मैं वंदे मातरम 150 निमित्त चर्चा के लिए आरंभ करने खड़ा हुआ हूं। यहां कोई पक्ष प्रतिपक्ष नहीं है, क्योंकि हम सब यहां जो बैठे हैं, एक्चुअली हमारे लिए ऋण स्वीकार करने का अवसर है कि जिस वंदे मातरम के कारण लक्ष्यावादी लोग आजादी का आंदोलन चला रहे थे और उसी का परिणाम है कि आज हम सब यहां बैठे हैं और इसलिए हम सभी सांसदों के लिए, हम सभी जनप्रतिनिधियों के लिए वंदे मातरम के ऋण स्वीकार करने का यह पावन पर्व है। और इससे हम प्रेरणा लेकर के वंदे मातरम की जिस भावना ने देश की आजादी का जंग लड़ा, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम पूरा देश एक स्वर से वंदे मातरम बोलकर आगे बढ़ा, फिर से एक बार अवसर है कि आओ, हम सब मिलकर चलें, देश को साथ लेकर चलें, आजादी का दीवानों ने जो सपने देखे थे, उन सपनों को पूरा करने के लिए वंदे मातरम 150 हम सब की प्रेरणा बने, हम सब की ऊर्जा बने और देश आत्मनिर्भर बने, 2047 में विकसित भारत बनाकर के हम रहें, इस संकल्प को दोहराने के लिए यह वंदे मातरम हमारे लिए एक बहुत बड़ा अवसर है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

दादा तबीयत तो ठीक है ना! नहीं कभी-कभी इस उम्र में हो जाता है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम की इस यात्रा की शुरुआत बंकिम चंद्र जी ने 1875 में की थी और गीत ऐसे समय लिखा गया था, जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज सल्तनत बौखलाई हुई थी। भारत पर भांति-भांति के दबाव डाल रहे थी, भांति-भांति के ज़ुल्म कर रही थी और भारत के लोगों को मजबूर किया जा रहा था अंग्रेजों के द्वारा और उस समय उनका जो राष्ट्रीय गीत था, God Save The Queen, इसको भारत में घर-घर पहुंचाने का एक षड्यंत्र चल रहा था। ऐसे समय बंकिम दा ने चुनौती दी और ईट का जवाब पत्थर से दिया और उसमें से वंदे मातरम का जन्म हुआ। इसके कुछ वर्ष बाद, 1882 में जब उन्होंने आनंद मठ लिखा, तो उस गीत का उसमें समावेश किया गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने उस विचार को पुनर्जीवित किया था, जो हजारों वर्ष से भारत की रग-रग में रचा-बसा था। उसी भाव को, उसी संस्कारों को, उसी संस्कृति को, उसी परंपरा को उन्होंने बहुत ही उत्तम शब्दों में, उत्तम भाव के साथ, वंदे मातरम के रूप में हम सबको बहुत बड़ी सौगात दी थी। वंदे मातरम, यह सिर्फ केवल राजनीतिक आजादी की लड़ाई का मंत्र नहीं था, सिर्फ हम अंग्रेज जाएं और हम खड़े हो जाएं, अपनी राह पर चलें, इतनी मात्र तक वंदे मातरम प्रेरित नहीं करता था, वो उससे कहीं आगे था। आजादी की लड़ाई इस मातृभूमि को मुक्त कराने का भी जंग था। अपनी मां भारती को उन बेड़ियों से मुक्ति दिलाने का एक पवित्र जंग था और वंदे मातरम की पृष्ठभूमि हम देखें, उसके संस्कार सरिता देखें, तो हमारे यहां वेद काल से एक बात बार-बार हमारे सामने आई है। जब वंदे मातरम कहते हैं, तो वही वेद काल की बात हमें याद आती है। वेद काल से कहा गया है "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" अर्थात यह भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यही वह विचार है, जिसको प्रभु श्री राम ने भी लंका के वैभव को छोड़ते हुए कहा था "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। वंदे मातरम, यही महान सांस्कृतिक परंपरा का एक आधुनिक अवतार है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंकिम दा ने जब वंदे मातरम की रचना की, तो स्वाभाविक ही वह स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर बन गया। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण वंदे, मातरम हर भारतीय का संकल्प बन गया। इसलिए वंदे मातरम की स्‍तुति में लिखा गया था, “मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, स्वार्थ का बलिदान है, ये शब्द हैं वंदे मातरम, है सजीवन मंत्र भी, यह विश्व विजयी मंत्र भी, शक्ति का आह्वान है, यह शब्द वंदे मातरम। उष्ण शोणित से लिखो, वक्‍तस्‍थलि को चीरकर वीर का अभिमान है, यह शब्द वंदे मातरम।”

आदरणीय अध्यक्ष जी,

कुछ दिन पूर्व, जब वंदे मातरम 150 का आरंभ हो रहा था, तो मैंने उस आयोजन में कहा था, वंदे मातरम हजारों वर्ष की सांस्‍कृतिक ऊर्जा भी थी। उसमें आजादी का जज्बा भी था और आजाद भारत का विजन भी था। अंग्रेजों के उस दौर में एक फैशन हो गई थी, भारत को कमजोर, निकम्मा, आलसी, कर्महीन इस प्रकार भारत को जितना नीचा दिखा सकें, ऐसी एक फैशन बन गई थी और उसमें हमारे यहां भी जिन्होंने तैयार किए थे, वह लोग भी वही भाषा बोलते थे। तब बंकिम दा ने उस हीन भावना को भी झंकझोरने के लिए और सामर्थ्य का परिचय कराने के लिए, वंदे मातरम के भारत के सामर्थ्यशाली रूप को प्रकट करते हुए, आपने लिखा था, त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,कमला कमलदलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी। नमामि त्वां नमामि कमलाम्, अमलाम् अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥ अर्थात भारत माता ज्ञान और समृद्धि की देवी भी हैं और दुश्मनों के सामने अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली चंडी भी हैं।

अध्यक्ष जी,

यह शब्द, यह भाव, यह प्रेरणा, गुलामी की हताशा में हम भारतीयों को हौसला देने वाले थे। इन वाक्यों ने तब करोड़ों देशवासियों को यह एहसास कराया की लड़ाई किसी जमीन के टुकड़े के लिए नहीं है, यह लड़ाई सिर्फ सत्ता के सिंहासन को कब्जा करने के लिए नहीं है, यह गुलामी की बेड़ियों को मुक्त कर हजारों साल की महान जो परंपराएं थी, महान संस्कृति, जो गौरवपूर्ण इतिहास था, उसको फिर से पुनर्जन्म कराने का संकल्प इसमें है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम, इसका जो जन-जन से जुड़ाव था, यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के एक लंबी गाथा अभिव्यक्त होती है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

जब भी जैसे किसी नदी की चर्चा होती है, चाहे सिंधु हो, सरस्वती हो, कावेरी हो, गोदावरी हो, गंगा हो, यमुना हो, उस नदी के साथ एक सांस्कृतिक धारा प्रवाह, एक विकास यात्रा का धारा प्रवाह, एक जन-जीवन की यात्रा का प्रवाह, उसके साथ जुड़ जाता है। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि आजादी जंग के हर पड़ाव, वो पूरी यात्रा वंदे मातरम की भावनाओं से गुजरता था। उसके तट पर पल्लवित होता था, ऐसा भाव काव्य शायद दुनिया में कभी उपलब्ध नहीं होगा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

अंग्रेज समझ चुके थे कि 1857 के बाद लंबे समय तक भारत में टिकना उनके लिए मुश्किल लग रहा था और जिस प्रकार से वह अपने सपने लेकर के आए थे, तब उनको लगा कि जब तक, जब तक भारत को बाटेंगे नहीं, जब तक भारत को टुकडों में नहीं बाटेंगे, भारत में ही लोगों को एक-दूसरे से लड़ाएंगे नहीं, तब तक यहां राज करना मुश्किल है और अंग्रेजों ने बाटों और राज करो, इस रास्ते को चुना और उन्होंने बंगाल को इसकी प्रयोगशाला बनाया क्यूंकि अंग्रेज़ भी जानते थे, वह एक वक्त था जब बंगाल का बौद्धिक सामर्थ्‍य देश को दिशा देता था, देश को ताकत देता था, देश को प्रेरणा देता था और इसलिए अंग्रेज भी चाहते थे कि बंगाल का यह जो सामर्थ्‍य है, वह पूरे देश की शक्ति का एक प्रकार से केंद्र बिंदु है। और इसलिए अंग्रेजों ने सबसे पहले बंगाल के टुकड़े करने की दिशा में काम किया। और अंग्रेजों का मानना था कि एक बार बंगाल टूट गया, तो यह देश भी टूट जाएगा और वो यावच चन्द्र-दिवाकरौ राज करते रहेंगे, यह उनकी सोच थी। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, लेकिन जब अंग्रेजों ने 1905 में यह पाप किया, तो वंदे मातरम चट्टान की तरह खड़ा रहा। बंगाल की एकता के लिए वंदे मातरम गली-गली का नाद बन गया था और वही नारा प्रेरणा देता था। अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन के साथ ही भारत को कमजोर करने के बीज और अधिक बोने की दिशा पकड़ ली थी, लेकिन वंदे मातरम एक स्वर, एक सूत्र के रूप में अंग्रेजों के लिए चुनौती बनता गया और देश के लिए चट्टान बनता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंगाल का विभाजन तो हुआ, लेकिन एक बहुत बड़ा स्वदेशी आंदोलन खड़ा हुआ और तब वंदे मातरम हर तरफ गूंज रहा था। अंग्रेज समझ गए थे कि बंगाल की धरती से निकला, बंकिम दा का यह भाव सूत्र, बंकित बाबू बोलें अच्छा थैंक यू थैंक यू थैंक यू आपकी भावनाओं का मैं आदर करता हूं। बंकिम बाबू ने, बंकिम बाबू ने थैंक यू दादा थैंक यू, आपको तो दादा कह सकता हूं ना, वरना उसमें भी आपको ऐतराज हो जाएगा। बंकिम बाबू ने यह जो भाव विश्व तैयार किया था, उनके भाव गीत के द्वारा, उन्होंने अंग्रेजों को हिला दिया और अंग्रेजों ने देखिए कितनी कमजोरी होगी और इस गीत की ताकत कितनी होगी, अंग्रेजों ने उसको कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। गाने पर सजा, छापने पर सजा, इतना ही नहीं, वंदे मातरम शब्द बोलने पर भी सजा, इतने कठोर कानून लागू कर दिए गए थे। हमारे देश की आजादी के आंदोलन में सैकड़ों महिलाओं ने नेतृत्व किया, लक्ष्यावधि महिलाओं ने योगदान दिया। एक घटना का मैं जिक्र करना चाहता हूं, बारीसाल, बारीसाल में वंदे मातरम गाने पर सर्वाधिक जुल्म हुए थे। वो बारीसाल आज भारत का हिस्सा नहीं रहा है और उस समय बारीसाल के हमारे माताएं, बहने, बच्चे मैदान उतरे थे, वंदे मातरम के स्वाभिमान के लिए, इस प्रतिबंध के विरोध में लड़ाई के मैदान में उतरी थी और तब बारीसाल कि यह वीरांगना श्रीमती सरोजिनी घोष, जिन्होंने उस जमाने में वहां की भावनाओं को देखिए और उन्होंने कहा था की वंदे मातरम यह जो प्रतिबंध लगा है, जब तक यह प्रतिबंध नहीं हटता है, मैं अपनी चूड़ियां जो पहनती हूं, वो निकाल दूंगी। भारत में वह एक जमाना था, चूड़ी निकालना यानी महिला के जीवन की एक बहुत बड़ी घटना हुआ करती थी, लेकिन उनके लिए वंदे मातरम वह भावना थी, उन्होंने अपनी सोने की चूड़ियां, जब तक वंदे मातरम प्रतिबंध नहीं हटेगा, मैं दोबारा नहीं धारण करूंगी, ऐसा बड़ा व्रत ले लिया था। हमारे देश के बालक भी पीछे नहीं रहे थे, उनको कोड़े की सजा होती थी, छोटी-छोटी उम्र में उनको जेल में बंद कर दिया जाता था और उन दिनों खास करके बंगाल की गलियों में लगातार वंदे मातरम के लिए प्रभात फेरियां निकलती थी। अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था और उस समय एक गीत गूंजता था बंगाल में जाए जाबे जीवोनो चोले, जाए जाबे जीवोनो चोले, जोगोतो माझे तोमार काँधे वन्दे मातरम बोले (In Bengali) अर्थात हे मां संसार में तुम्हारा काम करते और वंदे मातरम कहते जीवन भी चला जाए, तो वह जीवन भी धन्य है, यह बंगाल की गलियों में बच्चे कह रहे थे। यह गीत उन बच्चों की हिम्मत का स्वर था और उन बच्चों की हिम्मत ने देश को हिम्मत दी थी। बंगाल की गलियों से निकली आवाज देश की आवाज बन गई थी। 1905 में हरितपुर के एक गांव में बहुत छोटी-छोटी उम्र के बच्चे, जब वंदे मातरम के नारे लगा रहे थे, अंग्रेजों ने बेरहमी से उन पर कोड़े मारे थे। हर एक प्रकार से जीवन और मृत्यु के बीच लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। इतना अत्याचार हुआ था। 1906 में नागपुर में नील सिटी हाई स्कूल के उन बच्चों पर भी अंग्रेजों ने ऐसे ही जुल्म किए थे। गुनाह यही था कि वह एक स्वर से वंदे मातरम बोल करके खड़े हो गए थे। उन्होंने वंदे मातरम के लिए, मंत्र का महात्म्य अपनी ताकत से सिद्ध करने का प्रयास किया था। हमारे जांबाज सपूत बिना किसी डर के फांसी के तख्त पर चढ़ते थे और आखिरी सांस तक वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम, यही उनका भाव घोष रहता था। खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामकृष्ण विश्वास अनगिनत जिन्होंने वंदे मातरम कहते-कहते फांसी के फंदे को अपने गले पर लगाया था। लेकिन देखिए यह अलग-अलग जेलों में होता था, अलग-अलग इलाकों में होता था। प्रक्रिया करने वाले चेहरे अलग थे, लोग अलग थे। जिन पर जुल्म हो रहा था, उनकी भाषा भी अलग थी, लेकिन एक भारत, श्रेष्ठ भारत, इन सबका मंत्र एक ही था, वंदे मातरम। चटगांव की स्वराज क्रांति जिन युवाओं ने अंग्रेजों को चुनौती दी, वह भी इतिहास के चमकते हुए नाम हैं। हरगोपाल कौल, पुलिन विकाश घोष, त्रिपुर सेन इन सबने देश के लिए अपना बलिदान दिया। मास्टर सूर्य सेन को 1934 में जब फांसी दी गई, तब उन्होंने अपने साथियों को एक पत्र लिखा और पत्र में एक ही शब्द की गूंज थी और वह शब्द था वंदे मातरम।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

हम देशवासियों को गर्व होना चाहिए, दुनिया के इतिहास में कहीं पर भी ऐसा कोई काव्य नहीं हो सकता, ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो सदियों तक एक लक्ष्य के लिए कोटि-कोटि जनों को प्रेरित करता हो और जीवन आहूत करने के लिए निकल पड़ते हों, दुनिया में ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो वंदे मातरम है। पूरे विश्व को पता होना चाहिए कि गुलामी के कालखंड में भी ऐसे लोग हमारे यहां पैदा होते थे, जो इस प्रकार के भाव गीत की रचना कर सकते थे। यह विश्व के लिए अजूबा है, हमें गर्व से कहना चाहिए, तो दुनिया भी मनाना शुरू करेगी। यह हमारी स्वतंत्रता का मंत्र था, यह बलिदान का मंत्र था, यह ऊर्जा का मंत्र था, यह सात्विकता का मंत्र था, यह समर्पण का मंत्र था, यह त्याग और तपस्या का मंत्र था, संकटों को सहने का सामर्थ्य देने का यह मंत्र था और वह मंत्र वंदे मातरम था। और इसलिए गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, उन्होंने लिखा था, एक कार्ये सोंपियाछि सहस्र जीवन—वन्दे मातरम् (In Bengali) अर्थात एक सूत्र में बंधे हुए सहस्त्र मन, एक ही कार्य में अर्पित सहस्त्र जीवन, वंदे मातरम। यह रविंद्रनाथ टैगोर जी ने लिखा था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

उसी कालखंड में वंदे मातरम की रिकॉर्डिंग दुनिया के अलग-अलग भागों में पहुंची और लंदन में जो क्रांतिकारियों की एक प्रकार से तीर्थ भूमि बन गया था, वह लंदन का इंडिया हाउस वीर सावरकर जी ने वहां वंदे मातरम गीत गाया और वहां यह गीत बार-बार गूंजता था। देश के लिए जीने-मरने वालों के लिए वह एक बहुत बड़ा प्रेरणा का अवसर रहता था। उसी समय विपिन चंद्र पाल और महर्षि अरविंद घोष, उन्होंने अखबार निकालें, उस अखबार का नाम भी उन्होंने वंदे मातरम रखा। यानी डगर-डगर पर अंग्रेजों के नींद हराम करने के लिए वंदे मातरम काफी हो जाता था और इसलिए उन्होंने इस नाम को रखा। अंग्रेजों ने अखबारों पर रोक लगा दी, तो मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में एक अखबार निकाला और उसका नाम उन्होंने वंदे मातरम रखा!

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने भारत को स्वावलंबन का रास्ता भी दिखाया। उस समय माचिस के डिबिया, मैच बॉक्स, वहां से लेकर के बड़े-बड़े शिप उस पर भी वंदे मातरम लिखने की परंपरा बन गई और बाहरी कंपनियों को चुनौती देने का एक माध्यम बन गया, स्वदेशी का एक मंत्र बन गया। आजादी का मंत्र स्वदेशी के मंत्र की तरह विस्तार होता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

मैं एक और घटना का जिक्र भी करना चाहता हूं। 1907 में जब वी ओ चिदंबरम पिल्लई, उन्होंने स्वदेशी कंपनी का जहाज बनाया, तो उस पर भी लिखा था वंदेमातरम। राष्ट्रकवि सुब्रमण्यम भारती ने वंदे मातरम को तमिल में अनुवाद किया, स्तुति गीत लिखे। उनके कई तमिल देशभक्ति गीतों में वंदे मातरम की श्रद्धा साफ-साफ नजर आती है। शायद सभी लोगों को लगता है, तमिलनाडु के लोगों को पता हो, लेकिन सभी लोगों को यह बात का पता ना हो कि भारत का ध्वज गीत वी सुब्रमण्यम भारती ने ही लिखा था। उस ध्वज गीत का वर्णन जिस पर वंदे मातरम लिखा हुआ था, तमिल में इस ध्वज गीत का शीर्षक था। Thayin manikodi pareer, thazhndu panintu Pukazhnthida Vareer! (In Tamil) अर्थात देश प्रेमियों दर्शन कर लो, सविनय अभिनंदन कर लो, मेरी मां की दिव्य ध्वजा का वंदन कर लो।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आज इस सदन में वंदे मातरम पर महात्मा गांधी की भावनाएं क्या थी, वह भी रखना चाहता हूं। दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी, इंडियन ओपिनियन और और इस इंडियन ओपिनियन में महात्मा गांधी ने 2 दिसंबर 1905 जो लिखा था, उसको मैं कोट कर रहा हूं। उन्होंने लिखा था, महात्मा गांधी ने लिखा था, “गीत वंदे मातरम जिसे बंकिम चंद्र ने रचा है, पूरे बंगाल में अत्यंत लोकप्रिय हो गया है, स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल में विशाल सभाएं हुईं, जहां लाखों लोग इकट्ठा हुए और बंकिम का यह गीत गाया।” गांधी जी आगे लिखते हैंं, यह बहुत महत्वपूर्ण है, वह लिखते हैं यह 1905 की बात है। उन्होंने लिखा, “यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया है, जैसे यह हमारा नेशनल एंथम बन गया है। इसकी भावनाएं महान हैं और यह अन्य राष्ट्रों के गीतों से अधिक मधुर है। इसका एकमात्र उद्देश्य हम में देशभक्ति की भावना जगाना है। यह भारत को मां के रूप में देखता है और उसकी स्तुति करता है।”

अध्यक्ष जी,

जो वंदे मातरम 1905 में महात्मा गांधी को नेशनल एंथम के रूप में दिखता था, देश के हर कोने में, हर व्यक्ति के जीवन में, जो भी देश के लिए जीता-जागता, जिस देश के लिए जागता था, उन सबके लिए वंदे मातरम की ताकत बहुत बड़ी थी। वंदे मातरम इतना महान था, जिसकी भावना इतनी महान थी, तो फिर पिछली सदी में इसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों हुआ? वंदे मातरम के साथ विश्वासघात क्यों हुआ? यह अन्याय क्यों हुआ? वह कौन सी ताकत थी, जिसकी इच्छा खुद पूज्‍य बापू की भावनाओं पर भी भारी पड़ गई? जिसने वंदे मातरम जैसी पवित्र भावना को भी विवादों में घसीट दिया। मैं समझता हूं कि आज जब हम वंदे मातरम के 150 वर्ष का पर्व बना रहे हैं, यह चर्चा कर रहे हैं, तो हमें उन परिस्थितियों को भी हमारी नई पीडिया को जरूर बताना हमारा दायित्व है। जिसकी वजह से वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया गया। वंदे मातरम के प्रति मुस्लिम लीग की विरोध की राजनीति तेज होती जा रही थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने लखनऊ से 15 अक्टूबर 1937 को वंदे मातरम के विरुद्ध का नारा बुलंद किया। फिर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को अपना सिंहासन डोलता दिखा। बजाय कि नेहरू जी मुस्लिम लीग के आधारहीन बयानों को तगड़ा जवाब देते, करारा जवाब देते, मुस्लिम लीग के बयानों की निंदा करते और वंदे मातरम के प्रति खुद की भी और कांग्रेस पार्टी की भी निष्ठा को प्रकट करते, लेकिन उल्टा हुआ। वो ऐसा क्यों कर रहे हैं, वह तो पूछा ही नहीं, न जाना, लेकिन उन्होंने वंदे मातरम की ही पड़ताल शुरू कर दी। जिन्ना के विरोध के 5 दिन बाद ही 20 अक्टूबर को नेहरू जी ने नेताजी सुभाष बाबू को चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी में जिन्ना की भावना से नेहरू जी अपनी सहमति जताते हुए कि वंदे मातरम भी यह जो उन्होंने सुभाष बाबू को लिखा है, वंदे मातरम की आनंद मठ वाली पृष्ठभूमि मुसलमानों को इरिटेट कर सकती है। मैं नेहरू जी का क्वोट पढ़ता हूं, नेहरू जी कहते हैं “मैंने वंदे मातरम गीत का बैकग्राउंड पड़ा है।” नेहरू जी फिर लिखते हैं, “मुझे लगता है कि यह जो बैकग्राउंड है, इससे मुस्लिम भड़केंगे।”

साथियों,

इसके बाद कांग्रेस की तरफ से बयान आया कि 26 अक्टूबर से कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक कोलकाता में होगी, जिसमें वंदे मातरम के उपयोग की समीक्षा की जाएगी। बंकिम बाबू का बंगाल, बंकिम बाबू का कोलकाता और उसको चुना गया और वहां पर समीक्षा करना तय किया। पूरा देश हतप्रभ था, पूरा देश हैरान था, पूरे देश में देशभक्तों ने इस प्रस्ताव के विरोध में देश के कोने-कोने में प्रभात फेरियां निकालीं, वंदे मातरम गीत गाया लेकिन देश का दुर्भाग्य कि 26 अक्टूबर को कांग्रेस ने वंदे मातरम पर समझौता कर लिया। वंदे मातरम के टुकड़े करने के फैसले में वंदे मातरम के टुकड़े कर दिए। उस फैसले के पीछे नकाब ये पहना गया, चोला ये पहना गया, यह तो सामाजिक सद्भाव का काम है। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए और मुस्लिम लीग के दबाव में किया और कांग्रेस का यह तुष्टीकरण की राजनीति को साधने का एक तरीका था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

तुष्टीकरण की राजनीति के दबाव में कांग्रेस वंदे मातरम के बंटवारे के लिए झुकी, इसलिए कांग्रेस को एक दिन भारत के बंटवारे के लिए झुकना पड़ा। मुझे लगता है, कांग्रेस ने आउटसोर्स कर दिया है। दुर्भाग्य से कांग्रेस के नीतियां वैसी की वैसी ही हैं और इतना ही नहीं INC चलते-चलते MMC हो गया है। आज भी कांग्रेस और उसके साथी और जिन-जिन के नाम के साथ कांग्रेस जुड़ा हुआ है सब, वंदे मातरम पर विवाद खड़ा करने की कोशिश करते हैं।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके जीवटता उसके अच्छे कालखंड से ज्यादा, जब चुनौतियों का कालखंड होता है, जब संकटों का कालखंड होता है, तब प्रकट होती हैं, उजागर होती हैं और सच्‍चे अर्थ में कसौटी से कसी जाती हैं। जब कसौटी का काल आता है, तब ही यह सिद्ध होता है कि हम कितने दृढ़ हैं, कितने सशक्त हैं, कितने सामर्थ्यवान हैं। 1947 में देश आजाद होने के बाद देश की चुनौतियां बदली, देश के प्राथमिकताएं बदली, लेकिन देश का चरित्र, देश की जीवटता, वही रही, वही प्रेरणा मिलती रही। भारत पर जब-जब संकट आए, देश हर बार वंदे मातरम की भावना के साथ आगे बढ़ा। बीच का कालखंड कैसा गया, जाने दो। लेकिन आज भी 15 अगस्त, 26 जनवरी की जब बात आती है, हर घर तिरंगा की बात आती है, चारों तरफ वो भाव दिखता है। तिरंगे झंडे फहरते हैं। एक जमाना था, जब देश में खाद्य का संकट आया, वही वंदे मातरम का भाव था, मेरे देश के किसानों के अन्‍न के भंडार भर दिए और उसके पीछे भाव वही है वंदे मातरम। जब देश की आजादी को कुचलना की कोशिश हुए, संविधान की पीठ पर छुरा घोप दिया गया, आपातकाल थोप दिया गया, यही वंदे मातरम की ताकत थी कि देश खड़ा हुआ और परास्त करके रहा। देश पर जब भी युद्ध थोपे गए, देश को जब भी संघर्ष की नौबत आई, यही वंद मातरम का भाव था, देश का जवान सीमाओं पर अड़ गया और मां भारती का झंडा लहराता रहा, विजय श्री प्राप्त करता रहा। कोरोना जैसा वैश्विक महासंकट आया, यही देश उसी भाव से खड़ा हुआ, उसको भी परास्त करके आगे बढ़ा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह राष्ट्र की शक्ति है, यह राष्ट्र को भावनाओं से जोड़ने वाला सामर्थ्‍यवान एक ऊर्जा प्रवाह है। यह चेतना परवाह है, यह संस्कृति की अविरल धारा का प्रतिबिंब है, उसका प्रकटीकरण है। यह वंदे मातरम हमारे लिए सिर्फ स्मरण करने का काल नहीं, एक नई ऊर्जा, नई प्रेरणा का लेने का काल बन जाए और हम उसके प्रति समर्पित होते चलें और मैंने पहले कहा हम लोगों पर तो कर्ज है वंदे मातरम का, वही वंदे मातरम है, जिसने वह रास्ता बनाया, जिस रास्ते से हम यहां पहुंचे हैं और इसलिए हमारा कर्ज बनता है। भारत हर चुनौतियों को पार करने में सामर्थ्‍य है। वंदे मातरम के भाव की वो ताकत है। वंदे मातरम यह सिर्फ गीत या भाव गीत नहीं, यह हमारे लिए प्रेरणा है, राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के लिए हमें झकझोरने वाला काम है और इसलिए हमें निरंतर इसको करते रहना होगा। हम आत्मनिर्भर भारत का सपना लेकर के चल रहे हैं, उसको पूरा करना है। वंदे मातरम हमारी प्रेरणा है। हम स्वदेशी आंदोलन को ताकत देना चाहते हैं, समय बदला होगा, रूप बदले होंगे, लेकिन पूज्य गांधी ने जो भाव व्यक्त किया था, उस भाव की ताकत आज भी हमें मौजूद है और वंदे मातरम हमें जोड़ता है। देश के महापुरुषों का सपना था स्वतंत्र भारत का, देश की आज की पीढ़ी का सपना है समृद्ध भारत का, आजाद भारत के सपने को सींचा था वंदे भारत की भावना ने, वंदे भारत की भावना ने, समृद्ध भारत के सपने को सींचेगा वंदे मातरम के भवना, उसी भावनाओं को लेकर के हमें आगे चलना है। और हमें आत्मनिर्भर भारत बनाना, 2047 में देश विकसित भारत बन कर रहे। अगर आजादी के 50 साल पहले कोई आजाद भारत का सपना देख सकता था, तो 25 साल पहले हम भी तो समृद्ध भारत का सपना देख सकते हैं, विकसित भारत का सपना देख सकते हैं और इस सपने के लिए अपने आप को खपा भी सकते हैं। इसी मंत्र और इसी संकल्प के साथ वंदे मातरम हमें प्रेरणा देता रहे, वंदे मातरम का हम ऋण स्वीकार करें, वंदे मातरम की भावनाओं को लेकर के चलें, देशवासियों को साथ लेकर के चलें, हम सब मिलकर के चलें, इस सपने को पूरा करें, इस एक भाव के साथ यह चर्चा का आज आरंभ हो रहा है। मुझे पूरा विश्वास है कि दोनों सदनों में देश के अंदर वह भाव भरने वाला कारण बनेगा, देश को प्रेरित करने वाला कारण बनेगा, देश की नई पीढ़ी को ऊर्जा देने का कारण बनेगा, इन्हीं शब्दों के साथ आपने मुझे अवसर दिया, मैं आपका बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूं। बहुत-बहुत धन्यवाद!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!