2013-14 का युपीए सरकार का बजट: लोगों की आशा- अपेक्षाओं पर पानी फेरने वाला, निराशाजनक और जनहित के प्रति उदासीन बजट

वर्ष 2013-14 की युपीए सरकार के बजट से फिर एक बार साफ हो गया है कि केन्द्र सरकार का भारत के लोगों के साथ कोई लगाव नहीं रहा है। इस बजट द्वारा युपीए सरकार ने देश के हितों की कीमत पर लोकप्रिय बनने का प्रयास किया है। हालांकि इस प्रयास में सरकार विफल रही है क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि लोगों को क्या चाहिए। और देश की विकास दर बढ़े इसके लिए कदमों का अभाव इस बजट में दिखाई पड़ता है। 12 वीं पंचवर्षीय योजना और इस बजट के बीच कोई समन्वय नहीं है। वित्तीय घाटा 5.9 प्रतिशत पर पहुंचा है और अब भी प्रति वर्ष यह आंकड़ा ऊंचा जा रहा है। ऐसे में इसको घटाने के लिए सरकार की कोई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। देश की समस्याएं दूर करने के बारे में जो वादे सरकार ने गत बजट में किए थे उनको पूरे करने के लिए भी कोई दिशा इस बजट में दिखाई नहीं देती। भारत विश्व का सबसे युवा देश है, ऐसे में युवाओं में कौशल्य विकास और रोजगार सृजन की दिशा का अभाव भी इस बजट में नजर आता है। युपीए की वर्तमान सरकार का यह अंतिम बजट होने के बावजूद देश के लिए कोई बेहतर काम कर दिखाने का अवसर इसने खो दिया है।

वोट बैंक के लालच में युपीए सरकार ने एक ढीलाढाला बजट दिया है। लोकप्रिय बनने की चिंता में सरकार ने देश की प्रमुख समस्याओं की उपेक्षा की है। आगामी चुनावों से पहले का समय युपीए सरकार सलामती से गुजार देना चाहती हो, ऐसा इस बजट से लगता है। बजट द्वारा युपीए सरकार कि यह अकर्मण्यता दिखाई देती है और इसलिए ही इस बजट ने देश के ज्यादातर लोगों को निराश किया है।

आज हमारा देश कठिन समय से गुजर रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था की रेटिंग घटने का खतरा है। इसके साथ ही रोजगार और विकास दर घटने, प्रशिक्षित कारीगरों की कमी होने, चालु खाते का घाटा और राजकोषीय घाटा, नये प्रोजेक्ट और अंतर्ढांचागत सेवाओं में होने वाला पूंजी निवेश घटने का जोखिम भी मंडरा रहा है। इन समस्याओं के निवारण के लिए क्या युपीए सरकार में कोई व्यवस्था है ? एक ओर वित्त मंत्री यह दावा करते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था का कद वर्ष 2025 तक 5 ट्रिलियन यूएस डॉलर तक पहुंच जाएगा, मगर इन आंकड़ों के करीब पहुंचने की सम्भावना भी दिखाई नहीं देती।

सातत्यपूर्ण विकास के लिए अंतर्ढांचागत सेवाओं में बढ़ोतरी अत्यंत आवश्यक है। अंतर्ढांचागत सेवाओं के विकास के लिए 55 लाख करोड़ की जरूरत के सामने सरकार ने टेक्स फ्री बॉंण्ड और इंफ्रास्ट्रक्चर डेट बॉंण्ड द्वारा मात्र 55,000 करोड़ जितनी ही रकम खड़ी करने का प्रयास किया है। इसकी वजह सरकार की नीतिपंगुता और प्रोजेक्ट्स को मंजूरी देने में विलम्बभरी नीति है।

प्रशिक्षित कारीगरों की कमी जैसी गम्भीर समस्या का निराकरण करने में भी यह बजट विफल रहा है। कुछ समय पूर्व अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने इस बात का उल्लेख किया था कि अमेरिका को भी इस समस्या का डर सता रहा है। एक ओर भारत की विशाल आबादी और युवाधन का विनियोग देश के विकास में करने की बातें चल रही है, प्रधानमंत्री भी इस सम्बन्ध में एनडीसी की बैठकों में बातें करते रहते हैं। इसके बावजूद इस उद्देश्य के लिए सिर्फ 1000 करोड़ का आवंटन कर इस बजट में शब्दों का मायाजाल बुना गया है। गुजरात से तुलना करें तो यह बात स्पष्ट समझ में आ जाएगी, क्योंकि गुजरात ने कौशल्य विकास के लिए 800 करोड़ से ज्यादा बड़ी रकम का आवंटन किया है।

वर्तमान सरकार का कार्यकाल पूरा होने को है ऐसे में रह रहकर सरकार को यह लगता है कि मुद्रा स्फीति चिंताजनक है। इसके बावजूद अब भी इस मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए कोई व्युह या दिशा दिखाई नहीं देती। इसके परिणामस्वरूप आम आदमी को अनाज की कमी का सामना करना पड़ेगा। देश में कुल शेष देनदारी जीडीपी का 40 प्रतिशत जितनी है। इसे घटाने के लिए बजट में कोई कदम उठाए गये हों ऐसा लगता नहीं है। इसके अलावा खर्चों में कटौती करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गये। राजकोषीय घाटे को चालु वर्ष में 5.2 प्रतिशत से घटाने और वर्ष 2013-14 में 4.5 प्रतिशत तक ले जाने का कोई उल्लेख इस बजट में किया गया है इसके बावजूद इसके लिए कर की आय में बढ़ोतरी करने और प्रभावी ढंग से कर की वसूली के लिए कोई स्पष्ट कदम नहीं सुझाए गए हैं। इसके कारण विकास की रकम में कटौती करने की नौबत आएगी। परिणामस्वरूप पूंजी निवेश और रोजगार सृजन पर इसका विपरीत असर पड़ेगा। इसकी वजह से केन्द्र सरकार राज्यों को जो फंड देती है उसमें भी कटौती करे ऐसी सम्भावना है।

विश्व की सबसे बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की महिला बैंक स्थापित करने की घोषणा भी एक मजाक की तरह है। गुजरात में तो काफी लम्बे समय से महिलाओं के लिए सहकारी बैंक अस्तित्व में है। दुर्भाग्य से युपीए सरकार उन पर आयकर लगाती है, जो उनके लिए बोझ समान बनता है। इस बजट में अत्यंत महत्वपूर्ण स्वास्थ्य जैसे मामले का भी कोई उल्लेख नहीं किया गया है।

इसके साथ ही कर की वसूली जैसी अन्य समस्याएं भी हैं। परोक्ष करों में सुधारों पर राज्यों के बीच एकसूत्रता हो जाए इसके लिए राज्य काफी समय से केन्द्र से गुजारिश कर रहे हैं। सीएसटी के अमल से होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए 9000 करोड़ की व्यवस्था की गई है। हालांकि सिर्फ गुजरात की ही शेष लेनदारी 3800 करोड़ जितनी है। यह व्यवस्था मात्र टोकन जैसी और बिल्कुल अपर्याप्त है। इससे जीएसटी के अमल में अवरोध पैदा होंगे।

और, गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए आवास की समस्या का निराकरण करने के लिए भी इस बजट में कुछ खास नहीं किया गया है। शहरी और ग्रामीण आवासों के लिए 8000 करोड़ का आवंटन पर्याप्त नहीं है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क आवास योजना-2 की घोषणा भी आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान जैसे ज्यादातर कांग्रेस शासित राज्यों के लिए की गई है। यह योजना किसी को राजनैतिक रूप से पक्षपातपूर्ण लगे तो कोई ताज्जुब की बात नहीं।

अंत में, मैं इतना ही कहूंगा कि वर्ष 2013-14 का युपीए का बजट अत्यंत निराशाजनक है। आर्थिक विकास को गति देने के लिए, मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में लाने, पूंजी निवेश को प्रोत्साहन देने, कौशल्य और रोजगार का सृजन करने और अंतर्ढांचागत सेवाओं के निर्माण जैसे मामलों को उचित न्याय देने में यह बजट पूरी तरह विफल रहा है। संक्षेप में, आम आदमी अब भी महंगाई के बोझ तले दबता रहेगा और पूंजी निवेशक आर्थिक अनिश्चितता के माहौल में उलझे रहेंगे। नये प्रोजेक्ट और धन की व्यवस्था तो कागजों पर कर दी गई है मगर युपीए का कमजोर प्रशासन और भ्रष्टाचार की भरमार को देखते हुए यह प्रोजेक्ट साकार होंगे कि नहीं और इस धन का उपयोग सही तरीके से होगा इस पर सवाल खड़ा होता है। इस तरह, इस बजट में देश के विकास और लोगों के कल्याण के विजन और व्यूह का अभाव नजर आता है। हालांकि, ऐसा कह सकते हैं कि जनता से विमुख और हताश युपीए सरकार इस देश को फिर से एक बार निराश करने में सफल रही है।

नरेन्द्र मोदी

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भारत और नेचुरल फार्मिंग...भविष्य की राह!
December 03, 2025

इस वर्ष अगस्त में, तमिलनाडु के कुछ किसानों का एक समूह मुझसे मिलने आया और उन्होंने बताया कि कैसे वे स्थिरता और उत्पादकता बढ़ाने के लिए नई कृषि तकनीकों का उपयोग कर रहे हैं। उन्होंने मुझे कोयंबटूर में आयोजित होने वाले नेचुरल फार्मिंग पर एक शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया। मैंने उनका निमंत्रण स्वीकार किया और वादा किया कि मैं कार्यक्रम के दौरान उनके बीच रहूँगा। इसलिए, कुछ सप्ताह पहले, 19 नवंबर को, मैं दक्षिण भारत प्राकृतिक कृषि शिखर सम्मेलन 2025 में भाग लेने के लिए खूबसूरत शहर कोयंबटूर में था। एमएसएमई की रीढ़ माने जाने वाले इस शहर में प्राकृतिक खेती पर एक बड़ा आयोजन हो रहा था।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, नेचुरल फार्मिंग भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों और आधुनिक पर्यावरणीय सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें फसलों की खेती बिना रासायनिक पदार्थों के की जाती है। यह विविध क्षेत्रों को बढ़ावा देती है, जहाँ पौधे, पेड़ और पशुधन एक साथ प्राकृतिक जैव-विविधता को मजबूत करते हैं। यह पद्धति बाहरी इनपुट की जगह खेत में उपलब्ध अवशेषों के पुनर्चक्रण, मल्चिंग और मिट्टी को हवा देने के माध्यम से मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने पर जोर देती है।

कोयंबटूर में यह शिखर सम्मेलन हमेशा मेरी स्मृति का हिस्सा रहेगा! यह मानसिकता, कल्पना और आत्मविश्वास में बदलाव का संकेत था जिसके साथ भारत के किसान और कृषि-उद्यमी कृषि के भविष्य को आकार दे रहे हैं।

कार्यक्रम में तमिलनाडु के किसानों के साथ संवाद शामिल था, जिसमें उन्होंने नेचुरल फार्मिंग में अपने प्रयास प्रस्तुत किए और मैं आश्चर्यचकित रह गया!

मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग, जिनमें वैज्ञानिक, एफपीओ लीडर, प्रथम-पीढ़ी के स्नातक, परंपरागत किसान और खास तौर पर उच्च वेतन वाली कॉर्पोरेट करियर छोड़ने वाले लोग शामिल थे जो अपनी जड़ों की ओर लौटने और नेचुरल फार्मिंग करने का फैसला कर रहे थे।

ने ऐसे लोगों से मुलाकात की जिनकी जीवन यात्राएँ और कुछ नया करने की प्रतिबद्धता अत्यंत प्रेरणादायी थीं।

वहाँ एक किसान थे जो लगभग 10 एकड़ में केले, नारियल, पपीता, काली मिर्च और हल्दी की खेती के साथ बहुस्तरीय कृषि कर रहे थे। उनके पास 60 देसी गायें, 400 बकरियाँ और स्थानीय पोल्ट्री थीं।

एक अन्य किसान स्थानीय धान की किस्मों जैसे मपिल्लई सांबा और करुप्पु कावुनी को संरक्षित करने में जुटे थे। वे मूल्यवर्धित उत्पादों पर काम कर रहे हैं - हेल्थ मिक्स, मुरमुरा, चॉकलेट और प्रोटीन बार जैसी चीजें तैयार करते हैं।

एक पहली पीढ़ी के स्नातक थे जो 15 एकड़ का प्राकृतिक फार्म चलाते है और 3,000 से अधिक किसानों को प्रशिक्षण दे चुके हैं। वे हर महीने लगभग 30 टन सब्जियाँ की आपूर्ति करते हैं।

कुछ लोग जो अपने स्वयं के एफपीओ चला रहे थे, उन्होंने टैपिओका किसानों का समर्थन किया और टैपिओका-आधारित उत्पादों को बायोएथेनॉल और कम्प्रेस्ड बायोगैस के लिए एक टिकाऊ कच्चे माल के रूप में बढ़ावा दे रहे थे।

कृषि नवाचार करने वालों में से एक बायोटेक्नोलॉजी प्रोफेशनल थे, जिन्होंने तटीय जिलों में 600 मछुआरों को रोजगार देते हुए एक समुद्री शैवाल-आधारित बायोफर्टिलाइजर का व्यवसाय स्थापित किया, एक अन्य ने पोषक तत्वों से भरपूर बायोएक्टिव बायोचार विकसित किया जो मिट्टी के स्वास्थ्य को बढ़ाता है। दोनों ने दिखाया कि विज्ञान और स्थिरता कैसे सहज रूप से एक साथ चल सकते हैं।

वहाँ जिन लोगों से मैं मिला, वे अलग-अलग पृष्ठभूमि से थे, लेकिन एक बात समान थी: मिट्टी के स्वास्थ्य, स्थिरता, सामुदायिक उत्थान और उद्यमशीलता के प्रति पूर्ण समर्पण।

व्यापक स्तर पर, भारत ने इस क्षेत्र में सराहनीय प्रगति की है। पिछले वर्ष, भारत सरकार ने राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन शुरू किया, जिसने पहले ही लाखों किसानों को स्थायी प्रथाओं से जोड़ा है। पूरे देश में, हजारों हेक्टेयर भूमि नेचुरल फार्मिंग के अंतर्गत है। निर्यात को प्रोत्साहित करने, किसान क्रेडिट कार्ड (पशुधन और मत्स्य पालन सहित) और पीएम-किसान के माध्यम से संस्थागत ऋण का उल्लेखनीय विस्तार करने जैसे सरकार के प्रयासों ने भी किसानों को प्राकृतिक खेती करने में मदद की है।

चुरल फार्मिंग हमारे "श्री अन्न" यानी मिलेट्स को बढ़ावा देने के प्रयासों से भी घनिष्ठ रूप से जुड़ी है। यह भी सुखद है कि महिलाएँ बड़े पैमाने पर प्राकृतिक खेती अपना रही हैं।

पिछले कुछ दशकों में, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर बढ़ती निर्भरता ने मिट्टी की उर्वरता, नमी और दीर्घकालिक स्थिरता को प्रभावित किया है। इसी दौरान खेती की लागत भी लगातार बढ़ी है। नेचुरल फार्मिंग इन चुनौतियों का सीधा समाधान करती है। पंचगव्य, जीवामृत, बीजामृत और मल्चिंग के प्रयोग से मिट्टी के स्वास्थ्य की रक्षा होती है, रसायनों का प्रभाव कम होता है, तथा इनपुट लागत घटती है, साथ ही जलवायु परिवर्तन और अनियमित मौसम पैटर्न के विरुद्ध मजबूती भी मिलती है।

मैंने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे ‘एक एकड़, एक मौसम’ से शुरुआत करें। एक छोटे से भूखंड से भी मिलने वाले परिणाम आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं और बड़े पैमाने पर इसे अपनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। जब पारंपरिक ज्ञान, वैज्ञानिक मान्यता और संस्थागत समर्थन एक साथ आते हैं, तो नेचुरल फार्मिंग व्यवहार्य और परिवर्तनकारी बन सकती है।

मैं आप सभी से भी आग्रह करता हूँ कि नेचुरल फार्मिंग अपनाने पर विचार करें। आप एफपीओ से जुड़कर यह कर सकते हैं, जो सामूहिक सशक्तिकरण के मजबूत मंच बन रहे हैं। आप इस क्षेत्र से संबंधित कोई स्टार्टअप भी शुरू कर सकते हैं।

कोयंबटूर में किसानों, विज्ञान, उद्यमिता और सामूहिक प्रयास का जो संगम देखने को मिला, वह वास्तव में प्रेरणादायक था। मुझे विश्वास है कि हम सब मिलकर अपनी कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों को अधिक उत्पादक और टिकाऊ बनाते रहेंगे। यदि आप नेचुरल फार्मिंग पर काम करने वाली किसी टीम को जानते हों, तो मुझे भी अवश्य बताएं!