जुलाई, २०१२

महात्मा मंदिर, गांधीनगर

भी महानुभावों तथा युवा मित्रों, आज चार जुलाई है। आज से ११० साल पहले स्वामी विवेकानंद का देहावसान हुआ था। ११० पहले आज की तारीख को स्वामी विवेकानंद इस जगत को छोड़ कर परलोक सिधार गए थे। परंतु उस समय अपने जीवनकाल के दौरान स्वामी विवेकानंद ने खुद कहा था और उनके जाने के बाद इस देश के अनेक महानुभावों ने भी कहा है तथा हम सब भी महसूस कर रहै हैं। उन्होंने कहा था कि इस शरीर के साथ मेरा संबंध तो बहुत छोटा है। सिर्फ ३९ साल की युवा अवस्था में समस्त विश्व को अचंभित करके विवेकानंद ने इस दुनिया से विदा ली। उन्होंने कहा कि शरीर के साथ तो मेरा संबंध बहुत छोटा है, पर मैं जन्म जन्मान्तर तक अपने मिशन की पूर्ति के लिए अविरल प्रयास करता रहूँगा। इस राष्ट्र के अनेक महापुरुषों, महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस हों या फिर अरविंद जी हों, सभी ने कहा है कि विवेकानंद जी आज भी इस राष्ट्र को प्रेरणा देते हैं और सामर्थ्य भी देते हैं। आज उनकी पुण्य तिथि पर हम एक ऐसा काम आरंभ कर रहे हैं, एक विचार को आज हकीकत में बदल रहे हैं, जिसका असर पीढिय़ों तक रहने वाला है।

दोस्तों, आज का यह घटनाक्रम सिर्फ कोई नई योजना की शुरूआत ही नहीं है। आज का यह अवसर गुजरात के लोगों को सिर्फ कम्प्यूटर के साथ जोडऩे का ही नहीं है। आज का अवसर वर्तमान पीढ़ी को आने वाली पीढ़ी के साथ जोडऩे का एक सफल प्रयास भी है। दोस्तों, आज दुनिया बदल चुकी है। दुनिया बदल रही है और इस बदलती दुनिया को जो नहीं जान पाएगा, बदलती दुनिया को जो स्वीकार नहीं कर पाएगा, तो वह काल-बाह्य हो जाएगा, इरेलवन्ट हो जाएगा। हम सिर्फ अपनी ही दुनिया में मस्त रहकर बाकी की दुनिया को देखते रहेंगे। मित्रों, बारह सौ साल की गुलामी में देश ने जो पिछड़ापन भोगा है, फिर से वही हालात बन जाएंगे। हिंदुस्तान को पिछड़ेपन के ग्रहण से मुक्त करवाने का संकल्प करना होगा. और आज जब हम स्वामी विवेकानंद की १५० वीं जंयती मना रहे हैं तब प्रत्येक युवा का एक सपना हो कि हमसे जितना हो सकता हो उतना, जहाँ भी होंगे, जो कोई छोटी-बड़ी जिम्मेदारी होगी उसकी मदद से, ईश्वर ने जो भी क्षमता मुझे दी है उसके भरोसे, इस देश से पिछड़ापन समाप्त करने के लिए भागीरथ, अविरल, अखंड, एकनिष्ठ पुरूषार्थ करते रहेंगे। यह संकल्प हर एक का होना चाहिए और इस संकल्प को पूरा करने के लिए अपने स्तर पर कोई ना कोई नई शुरूआत करनी होगी।

श्वर चन्द्र विद्यासागर जैसे महापुरुषों ने समाज सुधारक के रूप में अपने समय में आधुनिक शिक्षा को लेकर जब अलख जगाई होगी तब समाज को लगा होगा कि इन सब की क्या जरूरत है? परंतु ऐसे महापुरूषों के कारण ही सौ साल, सवा सौ साल, देढ़ सौ साल की अवधि में समाज में बदलाव आने शुरू होते हैं। भाइयों-बहनों, आज शायद यह टेक्नोलोजी, यह इन्फर्मेशन टेक्नोलोजी, यह बायो टेक्नोलोजी यह नैनो टेक्नोलोजी, यह लाइफ साइंस, यह सभी शब्द अनोखे लगते होंगे। परंतु यह बात सत्य है कि टेक्नोलोजी ने समस्त जगत को प्रभावित किया है, मानव जाति को प्रभावित किया है और टेक्नोलोजी के बिना जीवन की कल्पना करना भी असंभव सा लगता है और जब टेक्नोलोजी के बिना जीवन ही असंभव है तो नई पीढ़ी इस टेक्नोलोजी से अछूती कैसे रह सकती है? टेक्नोलोजी अलिप्त कैसे रह सकती है? और ऐसी परिस्थिति में आवश्यकता होती है कि समस्त बातों को सरलीकरण करके लोकोपयोगी कैसे बनाया जाए। आवश्यकता होती है कि सहज तथा सरल तरीके से इसे कैसे उपलब्ध करवा सकें। आवश्यकता होती है कि इन सभी बातों को शीघ्र उपलब्ध कैसे करवाया जाए। और एक बार यह सभी चीजें शीघ्र उपलब्ध हो जाएं तो सभी को अपने आप सीखने, समझने तथा उनका उपयोग करना आ जाता है। आप क्लास रूम में भाषण के रूप में कहो कि बैकिंग व्यवस्था में ए.टी.एम. नाम की ऐसी व्यवस्था आने वाली है, जिसमें आप इस तरह पैसे रख सकोगे, ले सकोगे, ऐसा कर सकेंगे, वैसा कर सकेंगे तो कई बार आदमी अपना सर खुजाने लगता है कि अब यह ए.टी.एम. क्या आया नया? लेकिन एक बार ए.टी.एम. लग जाए और फिर एक बार आप उसे ये बताओ की पैसों की लेन देन के लिए यह व्यवस्था है, तो अनपढ़ व्यक्ति भी इसके बारे में समझ जाता है, उसका अमल करता है, जान लेता है। कई लोग होंगे कि जिन्हों ने पहले मोबाइल देखा होगा तो उसको आश्चर्य हुआ होगा, परंतु आज गाँवों में जहाँ जिवन में शिक्षा का अवसर कभी न मिला हो, वे भी मोबाइल से पूरी तरह से परिचित होते हैं। और मैंने तो देखा है कि टेक्नोलोजी का पेनिट्रेशन किस हद तक हो रहा है। एक बार मैं वलसाड जिले के कपराडा तालुका के आदिवासी क्षेत्र में एक छोटे से कार्यक्रम के लिए गया था। काफी अन्दरूनी क्षेत्र है। वहाँ एक डेरी के चिलिंग सेन्टर का उद्घाटन था। और पूरा वनवासी क्षेत्र है, और उन जंगलों के बीच एक छोटे से कमरे में उस चिलिंग सेन्टर को बनाया गया था। लेकिन वहाँ सभा करने की जगह नहीं थी इसलिए वहाँ से तीन किलोमीटर दूर एक शाला के मैदान में कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। और इस कार्यक्रम स्थल पर दूध भरने वाली बहनें जो होती हैं, आदिवासी बहनें, ऐसी तीस-चालीस बहनें वहाँ हाजिर थी। बाकी कार्यक्रम तीन किलोमीटर दूर था। हमने चिलिंग सेन्टर का उद्घाटन किया। और सभी बहनें सुंदर वेशभूषा के साथ ऐसे तैयार होकर उपस्थित थीं जैसे कि घर में कोई अवसर हो। जब हम वहाँ से समारोह के बाद नीचे उतर रहे थे, तो मैंने देखा कि उन ३०-४० बहनों में से पौने भाग की बहनें ऐसी थीं जो मोबाइल से हमारी फोटो उतार रही थीं। आदिवासी बहनें, कपराडा तालुका के भीतरी आदिवासी विस्तार में। तब उनकों देखकर मुझे सहज कौतुहल हुआ, तो मैं उनके पास गया। मैंने कहा, “बहनों, ये मोबाइल पर फोटो खींच कर आप क्या करेंगी?” आप भी सोचिए, क्या जवाब मिल सकता है, मन में सोच लो। जनाब, उन बहनों ने मुझे कहा कि इसे तो हम डाउनलोड करवा लेंगे। कपराडा तालुका के आदिवासी विस्तार में दूध भरने आने वाली आदिवासी माँ या बहन... वे किसी कॉलेज में डाउनलोड किसे कहते हैं ये पढऩे नहीं गई थी। पर इस बात की जानकारी है कि मैं ये जो फोटो खींच रही हूँ इसे डाउनलोड किया जा सकता है और इस फोटो का प्रिंट-आउट तक उन्हें मिल सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि कोई फॉर्मल व्यवस्था नहीं होने के बाद भी, टेक्नोलोजी आपने आप ट्रैवल करती है। समयानुकूल परिवर्तन के साथ सामाजिक जीवन का अंग बन जाती है, जीवन व्यवस्था का अंग बन जाती है, प्रत्येक व्यक्ति के मन में अपनी जगह बनाने में भी टेक्नोलोजी को वक्त नहीं लगता। और अगर यह स्थिति सहज हो तो हम ‘आएगा तब देखा जाएगा’, ‘अभी तो यह है न’ के बजाए, इसे थोड़ी दूरंदेशी के साथ, एक अवसर के रूप में, ऑपर्च्यूनिटी के रूप में, एक मौके के रूप में देखते हुए आगे क्यों ना बढ़ें? और इस में से हम आगे बढ़ रहे हैं।

भाईयों-बहनों, दुनिया में चर्चा है कि इक्कीसवीं सदी किसकी? पूरा विश्व मानता है कि इक्कीसवीं सदी एशिया की है, पर यह निर्धारित नहीं है कि इक्कीसवीं सदी भारत की होगी या फिर चीन की। स्पर्धा जब हिंदुस्तान और चीन के बीच चल रही है तब हमारे पास इक्कीसवीं सदी हिंदुस्तान की बनाने के महत्वपूर्ण सश्क्त कारक कौन से हैं? हमारी एक सबसे बड़ी ताकत है, इस देश की ६५% जनसंख्या। इस देश की ६५% जनसंख्या ३५ वर्ष से कम उम्र की हैं। यह देश दुनिया का सबसे युवा देश है। यौवन से तरबतर जो भूमि हो, जिस समाज का ६५ प्रतिशत वर्ग ३५ वर्ष से कम आयु का हो, इसके बाहुओं में कितनी ताकत होगी, इसके सपने कितने ऊंचे हो इसका हम अंदाजा लगा सकते हैं। जरूरत है इसको अवसर प्रदान करने की और अगर अवसर देना है तो जिस प्रकार के युग की रचना हुई है उसमें इन सपनों को पूरा करने में युवा शक्ति को शामिल करने की। मित्रों, चीन ने आज से दस वर्ष पहले एक काम किया था। कौन सा काम? उसे लगा कि यदि चीन को इक्कीसवीं सदी में विश्व की एक बड़ी ताकत बनाना है तो चीन के लोगों को अंग्रेज़ी जाननी बहुत जरूरी है। और इसलिए चीन ने चीनी बच्चों को अंग्रेज़ी शिक्षा मिले इसके लिए एक व्यापक अभियान चलाया था। इसमें सफलता मिली कि नहीं, उसका लाभ मिला कि नहीं मिला... पर उसे पता था कि विश्व में अब अकेले चीन के अंदर खुद ताकतवर बनने से काम नहीं चलेगा, विश्व में प्रसारित होना पड़ेगा, फैलना पड़ेगा और उन्होंने इस दिशा में अपने प्रयास प्रारंभ कर दिए थे। मित्रों, अपने गुजरात में वर्षों तक, आपका तो उस समय जन्म भी नहीं हुआ होगा, मित्रों। ‘मगन पांचमावाला’ और ‘मगन सातमावाला’ की चर्चाएं चलती थीं। शिक्षण क्षेत्र में काम करने वाले दो नेता यहाँ थे। एक का कहना था कि अंग्रेज़ी पांचवीं से हो, दूसरे का कहना था कि अंग्रेज़ी सातवीं से हो। इस कारण से यहाँ तो चला था, ‘मगन माध्यम’, गुजराती माध्यम में पढ़ो तो लोग कहते थे, ‘मगन माध्यम’, ऐसे शब्दों को प्रयोग होता था। पूरी दुनिया के सामने गुजरात का नवयुवक आंख से आंख मिलाकर बात कर सके वह सामर्थ्य उसमें होना चाहिए। और गुजराती एक वैश्विक समुदाय है। हमने एक अभियान चलाया ‘स्कोप’ के जरिये, जिसमें हमारा प्रयास था कि बोलचाल जितनी अंग्रेज़ी तो आनी ही चाहिए। इस कारण से इनके लिए रोजगार के अवसर भी बढ़े। आज उसे मॉल में नौकरी चाहिए, सातवीं-आठवीं या दसवीं पास हो तो उसे अमुक पगार मिलती है। परन्तु यदि उसने स्कोप में ट्रेनिंग ली है और पांच-पन्द्रह अंग्रेज़ी वाक्य बोलने का सामर्थ्य आ गया हो, उसकी सॉफ्ट स्किल डेवलप हो गई हो, उसके  व्यवहार की ट्रेनिंग हो गई हो तो उसकी पगार पांच की बजाए सात हो जाती है, सात के बदल ग्यारह हो जाती है। इसकी आवश्यकता बढऩे लगी। मित्रों, मुझे ये कहते हुए गर्व होता है कि गुजरात के स्वर्ण जयंती वर्ष में एक लाख लोग, अंग्रेज़ी बोलना-पढऩा सीखाने का जो प्रयास किया गया था, वह आंकड़ा एक लाख को पार कर गया है और वह काम आज भी चल रहा है।

मित्रों, हमने एक योजना बनाई थी, ‘ज्योतीग्राम’। गुजरात के गाँवों में २४ घंटे बिजली उपलब्ध हो। बहुत लोगों को लगता था कि यह बिजली तो टीवी चलाने के लिए आई है..! नहीं, जिस दिन ज्योतिग्राम योजना पर अरबों-खरबों रूपया खर्च होना शुरू हुआ, तब पता था कि यह ऊर्जा का रोपण किस चीज़ के लिए कर रहे हैं। इसमें से गुजरात के ग्रामीण जीवन को कैसा रूप देना है वह पूरी तरह से ज्ञात था। और एक बार बिजली की सारी व्यवस्था हो गई, फिर कौन सा कार्य उठाया? कम्प्यूटर नेटवर्क खड़ा करने का काम शुरू किया। हार्डवेयर, जहाँ देखो वहाँ, स्कूलों में, पंचायतों में हार्डवेयर दो. फिर शुरू शुरू किया, कनेक्टिविटी दो। नौजवान मित्रों, आपमें से ज्यादातर ग्रामीण परिवेश से हैं। भारत सरकार ने इसके पिछले वर्ष के अपने बजट में कहा था कि हम तीन हजार गाँवों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी का पायलट प्रोजेक्ट करेंगे। छह लाख गाँवों का हिंदुस्तान, इस के सामने तीन हजार गाँवों में भारत सरकार का पायलट प्रोजेक्ट। मुखवास जितना भी लाभ नहीं मिल सकता। मित्रों, मैं यह गर्व के साथ कहना चाहता हूँ कि गुजरात ने चार साल पहले १८,००० गाँवों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी का काम पूरा कर दिया है। बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध करवाया। अब समझ में आता है कि सामाजिक जीवन में टेक्नोलोजी ने इतनी जगह बना ली है कि उसके कारण थोड़ी बहुत टेक्नोलोजी की जानकारी रखने वाले लोगों की भी जरूरत होगी। मित्रों, कल तक बसों में कंडक्टर अपनी गड्डी में से फाड़ कर टिकट काटता था। अब समय ऐसा आनेवाला है कि उसके हाथ में एक छोटा सा उपकरण होगा, और सिर्फ एक बटन दबाकर ही आपको टिकट देता होगा। जिवन के प्रत्येक क्षेत्र में... आप छोटे से रेस्टोरेन्ट में जाओ तो अब वो भजियानंद चाय का बिल लिखता नहीं है। छोटा सा एक डिब्बा लेकर ऐसे-ऐसे दबाता है और तुरंत आपको कहता है कि आप गेट पर जाओ, आपका बिल तैयार होगा। यह बदलाव आ रहा है। तो गुजरात के गरीब परिवार के बच्चों को इस बदले हुए वातावरण में रोजी रोटी मिले, उनका शोषण न हो, उनके पास डिग्री के साथ एक अतिरिक्त गुण हो, वह पांच के बदले सात, सात के बदले नौ, नौ के बदले ग्यारह हजार रूपया कमा सके इस बात को सुनिश्चित करने के अभियान का एक भाग है एम्पावर स्कीम, इलेक्ट्रॉनिक मैन पावर। और मित्रों, भारत सरकार एक साल पहले तीन हजार गाँवों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी प्रारंभ करने का विचार कर रही थी। आज डेढ़ वर्ष हो गया है। उसका क्या हुआ यह तो जांच का विषय है। हमने मार्च के अंत में बजट पास किया और आज चार जुलाई को इस योजना को लागू कर रहे हैं।

मित्रों, बदलते हुए युग में जैसे आज अनपढ़ होना श्राप लगता है, हमें भी चार दोस्तों के बीच अनपढ़ होने की बात हो तो शर्मिंदगी होती है। अनपढ़ होना जैसे अपमानजनक है ऐसे ही आने वाले दिनों में आपको यदि कम्प्यूटर नहीं आता है, आप इन्फोर्मेशन टैक्नोलॉजी से परिचित नहीं हो तो आप दुनिया की नजरों में अनपढ़ ही गिने जाओगे। मैं नहीं चाहता कि मेरे गुजरात का कोई भी नौजवान दुनिया की नजरों में अनपढ़ हो। पूरा विश्व यदि पूछे तो वह कह सके कि हां, मैं ये जानता हूँ। अब गरीब बालक कहाँ जाए? उसे यह सब सीखना हो तो हजार, पन्द्रह सौ, दो हजार रूपया फीस होती है और फीस देने के बाद अगर कोई भगोड़ा मिल गया, तो सबकी फीस भर जाने के बाद कम्प्यूटर ले कर दूसरे गाँव में चला गया हो। गरीब आदमी धोखे का शिकार बन जाए। माताओं और बहनों को सीखना हो तो कहाँ जाएं? और इसी कारण हमने सोचा कि सरकार की अपनी योजना के तहत एक व्यापक अभियान का प्रारंभ किया जाए। जैसे ‘स्कोप’ का व्यापक अभियान शुरू किया, जिसकी वजह से पहले सीखने के लिए लोग ढ़ाई हजार, तीन हजार फीस भरते थे, इसके बदले मुफ्त बराबर दामों में सीखने को मिले ऐसी व्यवस्था की गई, और लोगों को इसका लाभ भी मिला। मित्रों, ये योजना भी कैसी है? अनुसूचित जाति के लिए मुफ्त, अनुसूचित जनजाति के लिए मुफ्त, ओबीसी के लिए मुफ्त, बहनों के लिए मुफ्त तथा अन्य समर्थ लोगों के लिए भी कितनी फीस? पचास रूपया, मात्र पचास रुपया..! पांच-दस कप चाय के दाम में हो जाए। और मुझे पूरी तरह से विश्वास है कि जो यह शिक्षा प्राप्त करेंगे तथा इसके प्रमाण पत्र संलग्न करेंगे, उनकी कीमत बढ़ेगी, बाज़ार में उनका महत्व बढ़ने वाला है। और मित्रों बहुत से लोगों को आश्चर्य होगा कि इस योजना की सफलता किसमें है? मैंने हमारे अधिकारियों को कहा था कि हमने इतनी सारी ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी दी हैं, गाँव-गाँव में कम्प्यूटर लगाए हैं तो मुझे ट्रायल लेना है कि सभी चीजें जनसामान्य के साथ जुड़ने वाली हैं भी कि नहीं और इसलिए मेरा आग्रह था कि ये एम्पावर की जो ट्रेनिंग होने वाली है, उसका रजिस्ट्रेशन लोग ऑन-लाइन करवाएं। पता तो चले कि इस टेक्नोलोजी से हम उनके साथ जुड़ सके हैं नहीं। और आज मुझे यह कहते हुए गर्व महसूस हो रहा है कि आज शाम पांच बजे तक, आज शाम को जब मैं मंच पर आया तब तक का आंकड़ा कहता हूँ, आज शाम पांच बजे तक ऑन-लाइन रजिस्ट्रेशन के जरिए एक लाख चार हजार लोगों ने अपना नामांकन करवाया है। और इसमें भी गर्व की बात, ८४% रजिस्ट्रेशन गाँव के लोगों ने करवाया है, १६% शहरी क्षेत्र के रजिस्ट्रेशन हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि तीर बराबर निशाने पर लगा है। क्योंकि इस पूरी योजना का उद्देश्य इस पूरे विषय को गाँव तक पहुँचाना है, गाँव के घर-घर तक पहुँचाना है। क्योंकि शहरों में तो ऐसी छोटी-मोटी सुविधाएं होती हैं, जिसका लाभ मिलता है। यह दोनों के लिए समांतर है, चाहे गाँव हो या शहर, पर गाँव के चौरासी प्रतिशत लोगों का यह उत्साह, यह रजिस्ट्रेशन खुद दर्शाता है कि आज यह योजना सफल हो गई है। उसमें भी एक आनंदप्रद खबर, ये जो एक लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवाया है, उनमें ६६% पुरूष तथा ३४% महिलाएं हैं दोस्तों, ३४% बहनें हैं। यह बड़ी बात है। गुजरात के गाँव की गृहिणी या बेटी इस तरह की शिक्षा को समझे, उमंग के साथ जुड़े, यह बात ही उज्जवल भविष्य का संकेत देती है, दोस्तों और अभी तो इस योजना के विषय में आज अखबारों में जानकारी आई है। इससे पहले समाचार पत्रों में जिस दिन बजट में घोषणा की थी तब थोड़ा बहुत उल्लेख हुआ था। यह बात अभी तो कानों कान पहुंची है, कोई बड़ा कैम्पेन नहीं हुआ है। कैम्पेन शुरू होगा तो शायद आज से होगा। यहाँ सामाचार पत्रों से जुड़े मित्र हैं, टीवी, मीडिया वाले हैं, ये लोग थोड़ा बहुत बताएंगे इसलिए आज शुरूआत होगी। उस के बावजूद भी यदि इतना ज्यादा स्वीकार मिला हो तो उसका अर्थ यह हुआ कि राज्य सरकार ने जनता की नब्ज को पहचानते हुए कितना महत्वपूर्ण काम शुरू किया है इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है।

भाईयों और बहनों, ये बात निश्चित है कि हुनर के बिना सफलता मिलना संभव नहीं है। हम कोई रईस मां बाप के बच्चे नहीं हैं, पाँच पीढ़ियों तक चले ऐसी कुछ विरासत भी हमें नहीं मिली है। अपने पास तो ईश्वर की दी हुई क्षमता है। दो हाथ हैं, दिल है, दिमाग है, इन्हीं के साथ जिंदगी जीनी है। जब यह तय ही हो कि यह ही अपनी पूंजी है तो फिर इस पूंजी में वृद्घि करने का एक मात्र साधन है, हुनर। और ये कौशल वर्धन हो, विभिन्न ऐसी क्षमताओं का अभ्यास हो, इनसे परिचित हों तो जीवन को सफल बनाने के लिए बहुत बड़ी शक्ति मिल सकती है। मित्रों, एक समय था कि गुजरात में टेक्निकल एज्यूकेशन देने वाले कॉलेज की संख्या मात्र ४४२ थीं, २००१ में हमने जब जिम्मेदारी ली तब। आज यह संख्या लगभग १७००-१८०० तक पहुँची है। कहाँ ४४२..! हमने गुजरात की जिम्मेदारी ली तब इस राज्य में ११ यूनिवर्सिटी थीं। आज भाईयों, ४२ यूनिवर्सिटी हैं। यह सब किसके लिए? गुजरात के नौजवानों के लिए, गुजरात की भावी पीढ़ी के लिए, मेरे सामने बैठे इन सक्षम सपनों के लिए, उनके लिए है यह सब कुछ। एक समय था, डिप्लोमा या डिग्री इंजीनियरिंग में पढऩा हो तो मध्यम वर्ग के माँ बाप तो इस बारे में सोच भी नहीं सकते थे। डोनेशन कहाँ से लाएं, बच्चों का दाखिला कहाँ करवाएं..? फिर क्या होता था? भाई, कोई हल नहीं है तो तू अब कहीं से बी.ए., बी.कॉम. कुछ कर ले और तुझे कहीं क्लर्क की नौकरी मिल जाए तो देखना..! अनेक नौजवानों के सपने चूर चूर हो जाते थे। मित्रों, हमने दस सालों में तकनीकी शिक्षा को इतना बल दिया कि २००१ में डिप्लोमा या डिग्री इंजीनियरिंग के लिए शुरूआत में हमारे पास मुश्किल से २३,००० सीटें थीं। आज लगभग १,२३,००० सीटें तकनीकी शिक्षा के लिए उपलब्ध करा दी गई हैं। जिसको भी पढऩा है उसे मुझे अवसर प्रदान करवाना है। गरीब से गरीब परिवार के बेटे या बेटी को लाचारी की जिंदगी नहीं जीनी पड़े इसके लिए काम शुरू किया है। मित्रों, बहुत से बच्चे ऐसे होते हैं जो सातवीं या आठवीं कक्षा के बाद कुछ परिस्थितियों के कारण पढऩा छोड़ देते हैं। या तो वे गलत रास्ते पर चलने लगे होते हैं या फिर कहीं दोस्त ऐसे मिल गए हों और फिर बाद में समझ आने पर आई.टी.आई. में चले गये हों। बेचारा टर्नर बने या फिर फिटर बने या फिर प्लम्बर बने या वेल्डर बने... और उसको यह लगता था कि सब खत्म हो गया, मेरी जिन्दगी तो बस अब यहाँ समाप्त हो गई। मित्रों, इस सरकार ने यह निश्चित किया कि मेरे गुजरात के किसी भी युवक की जिंदगी को, उसके सपने को मैं पूर्ण विराम नहीं लगने दूंगा। मैं फिर से दरवाजे खोलूंगा, मैं फिर से खिड़कियां खोलूंगा, इनमें फिर से सपने संजोऊंगा, उन्हें नई जिंदगी जीने की प्रेरणा दूंगा, उसे नया हौसला दूंगा। अरे, कल जैसा भी बीता हो, आने वाला समय अभी अच्छा हो सकता है ऐसा विश्वास उनको मैं दूंगा। और इसके लिए क्या किया? एक साहसपूर्ण निर्णय किया कि यदि किसी ने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई करके छोड़ दी हो, परन्तु आई.टी.आई. के दो साल पूरे किये हों तो उसे दसवीं का प्रमाण पत्र दूंगा। दसवीं कक्षा करके दो साल आई.टी.आई. के पूरे किए हों तो बारहवीं कक्षा के समकक्ष गिना जाएगा, उसे बारहवीं पास माना जाएगा। इतना ही नहीं, इसके आधार पर यदि उसे डिप्लोमा इंजीनियरिंग करना हो तो दरवाजे खुले, उसमें जा सकता है। उसके बाद उसे डिग्री इंजीनियरिंग करनी हो तो उसमें भी जा सकता है। पहले जो दरवाजे बंद हो जाते थे कि सातवीं या आठवीं छोड़ी तो पूरा हो गया, खेल खत्म..! साहब, यह सब बदल दिया है। किसके लिए? दोस्तों, आपके लिए, गुजरात के आने वाले कल के लिए।

मित्रों, आज मैं आपसे विनती करना चाहता हूँ। मेरे सामने केवल इस सभागृह में ही लोग बैठे हैं ऐसा नहीं है। आई.टी.आई. में, सारे ट्रेनिंग सेन्टर में लाखों नौजवान इस कार्यक्रम में ऑन-लाइन मेरे साथ मौजूद हैं। दूर सुदूर एज्यूकेशन इंस्टिट्यूट में बैठे लोग, नौजवान मुझे सुन रहे हैं। मित्रों, आज मैं आपको कहना चाहता हूँ, सपने देखना बंद मत करना। अरे, कभी कोई बाधाएं आई होंगी, कभी रूकावटें आई होंगी, कभी विफलताओं का सामना करना पड़ा हो, फिर भी अगर उत्तम संकल्प के साथ सपनों को सच्चा करने की जिद होगी, परिश्रम होगा तो आपकी भी सभी इच्छाएं, आकांक्षाएं परिपूर्ण होंगी ये मैं विश्वास के साथ कहना चाहता हूँ। यह राज्य, इस देश की युवा पीढ़ी को, इस देश के युवा लडक़े-लड़कियों को एक अप्रतिम अवसर देने के लिए प्रतिबद्घ है, जिससे वह अपने सभी सपने साकार कर सके, अपने परिवार की आशा- आकांक्षाओं को पूरा कर सके। और एक बात तय मानना नौजवानों, ईश्वर ने मुझे तथा आपको एक समान शक्ति दी है। ईश्वर ने मुझे आप से दो चम्मच ज्यादा दिया है ऐसे भ्रम में रहने की जरूरत नहीं है। ईश्वर ने जितना मुझे दिया है उतना ही आप को भी दिया है। दोस्तों, सपने देखो, संकल्प करो, साहस करो, कदम उठाओ, मित्रों, मंजिल सामने आकर खड़ी हो जाएगी ऐसा मेरा विश्वास है।

रकार के बजट में से इस राज्य में टेक्निकल मैनपावर, तकनीकी मानवशक्ति तैयार करने का जो अभियान शुरू किया है, गुजरात जिस तरह से प्रगति कर रहा है उसमें वह एक नई ताकत के रूप में जुड़ेगा, गुजरात को आगे बढ़ाने में पूरक बनने वाला है। मित्रों, हाल ही में गुजरात में करीब २६,००० जितने लोगों की पुलिस में भर्ती की। और इसमें एक शर्त थी कि जिनको कम्प्यूटर की जानकारी हो सिर्फ वे ही आवेदन करें। दोस्तों, मुझे बड़े आंनद के साथ कहना है कि आज गुजरात के पुलिस मेले में कांस्टेबल लेवल पर काम करने वाले कम्प्यूटर जानकार लोगों की फौज खड़ी हो गई है, एक प्रकार से मेरा यह पूरा विभाग तकनीकी रूप से सक्षम हो गया है। और अगर जो आने वाले दिनों में सभी जगह पर इस प्रकार का मानव संसाधन उपलब्ध हो तो यह राज्य कितनी तीव्र गति से आगे बढ़ सकता है..! उन सपनों को साकार करने के लिए आज यह योजना गुजरात के नौजवानों को समर्पित करता हूँ। इन नौजवान बहनों और नौजवान भाईयों की शक्ति पर मुझे पूरा भरोसा है, मित्रों। इस शक्ति को साथ लेकर हमें आगे बढऩा है और मुझे यकीन है दोस्तों, कि आप भी सपने देखते होंगे। अवसर देने का काम सरकार कर रही है, व्यवस्था खड़ी करने के लिए सरकार दो कदम आगे बढ़ रही है। और निर्धारित परिणाम प्राप्त करने में गुजरात का नौजवान सक्षम है ऐसा मेरा विश्वास है। मित्रों, गुजरात का समृद्घ भावी, उस समृद्घ भविष्य की समृद्घि के आप भी हकदार बनें, समृद्घ भविष्य की समृद्घि के आप भी भागीदार बनें उसके लिए यह एक अवसर है। और आज जब यह अवसर आया है तब, गुजरात भर के कोने-कोने में मेरी इस बात को सुन रहे सभी नवयुवकों को और इस सभागार में मेरे सामने बैठे सभी नौजवानों को सच्चे अर्थ में एक इलेक्ट्रॉनिक मैनपावर के रूप में, एक अतिरिक्त शक्ति वाली मानवशक्ति के रूप में, गुजरात की धरती पर एक नया अध्याय जोड़ने के लिए मैं आप सभी का स्वागत करता हूँ और आप सभी को अंतःकरण से बहुत बहुत शुभकामनाएं देता हूँ, दोस्तों। नौजवानों, आपके सपनों को साकार करने के लिए मैं सदा सर्वदा आप लोगों के साथ हूँ। आपके सपने साकार हों इसके लिए पसीना बहाने के लिए मैं तैयार हूँ। आपकी इच्छाएं, आकांक्षाएं पूरी हों इसके लिए सरकार दो कदम आगे बढ़ाने के लिए तैयार है। शर्त यह है कि मेरे गुजरात का नौजवान अपना कदम उठाए..! उसकी उंगली पकडऩे के लिए मैं तैयार हूँ, उसका हाथ पकड़ के चलने के लिए मैं तैयार हूँ, उसे मुझसे आगे ले जाने के लिए मैं तैयार हूँ। यह मेरी पूरी सरकार गुजरात की नौजवान पीढ़ी को समर्पित है, उनकी किस्मत को बदलने के लिए समर्पित है, उनके सपने साकार करने के लिए समर्पित है। आओ दोस्तों, मैं जब आपकी उम्र का था तब मुझे ऐसा सौभाग्य नहीं मिला था, दोस्तों। मुझे उस समय ऐसा कोई नहीं मिला था जो इस तरह का विश्वास दे सके। भाइयों-बहनों, आज पूरी की पूरी सरकार आपके विश्वास का श्वास बन कर प्रत्येक पल आपके साथ है। इसके साथ आप भी जुड़ जाओ यही अपेक्षा के साथ, मेरे साथ पूरी ताकत से बोलें...

भारत माता की जय..!!

दोनों मुठ्ठी बंद करके पूरी ताकत से बोलो, दोस्तों

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वंदे मातरम्... वंदे मातरम्... वंदे मातरम्..!!

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December 08, 2025
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल दिया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होते देखना हम सभी के लिए गर्व की बात है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम वह शक्ति है जो हमें, हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित करती है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने भारत में हजारों वर्षों से गहराई से जड़ें जमाए विचार को फिर से जागृत किया
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम में हजारों वर्षों की सांस्कृतिक ऊर्जा भी समाहित होने के साथ-साथ स्वतंत्रता का उत्साह और स्वतंत्र भारत का दृष्टिकोण भी शामिल था
प्रधानमंत्री ने कहा- लोगों के साथ वंदे मातरम का गहरा सम्‍बंध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की यात्रा को दर्शाता है
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को बल और दिशा दी
प्रधानमंत्री ने कहा- वंदे मातरम के सर्वव्यापी मंत्र ने स्वतंत्रता, त्याग, शक्ति, पवित्रता, समर्पण और लचीलेपन को प्रेरित किया

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आपका और सदन के सभी माननीय सदस्यों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं कि हमने इस महत्वपूर्ण अवसर पर एक सामूहिक चर्चा का रास्ता चुना है, जिस मंत्र ने, जिस जय घोष ने देश की आजादी के आंदोलन को ऊर्जा दी थी, प्रेरणा दी थी, त्याग और तपस्या का मार्ग दिखाया था, उस वंदे मातरम का पुण्य स्मरण करना, इस सदन में हम सब का यह बहुत बड़ा सौभाग्य है। और हमारे लिए गर्व की बात है कि वंदे मातरम के 150 वर्ष निमित्त, इस ऐतिहासिक अवसर के हम साक्षी बना रहे हैं। एक ऐसा कालखंड, जो हमारे सामने इतिहास के अनगिनत घटनाओं को अपने सामने लेकर के आता है। यह चर्चा सदन की प्रतिबद्धता को तो प्रकट करेगी ही, लेकिन आने वाली पीढियां के लिए भी, दर पीढ़ी के लिए भी यह शिक्षा का कारण बन सकती है, अगर हम सब मिलकर के इसका सदुपयोग करें तो।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह एक ऐसा कालखंड है, जब इतिहास के कई प्रेरक अध्याय फिर से हमारे सामने उजागर हुए हैं। अभी-अभी हमने हमारे संविधान के 75 वर्ष गौरवपूर्व मनाए हैं। आज देश सरदार वल्लभ भाई पटेल की और भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती भी मना रहा है और अभी-अभी हमने गुरु तेग बहादुर जी का 350वां बलिदान दिवस भी बनाया है और आज हम वंदे मातरम की 150 वर्ष निमित्त सदन की एक सामूहिक ऊर्जा को, उसकी अनुभूति करने का प्रयास कर रहे हैं। वंदे मातरम 150 वर्ष की यह यात्रा अनेक पड़ावों से गुजरी है।

लेकिन आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम को जब 50 वर्ष हुए, तब देश गुलामी में जीने के लिए मजबूर था और वंदे मातरम के 100 साल हुए, तब देश आपातकाल की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। जब वंदे मातरम 100 साल के अत्यंत उत्तम पर्व था, तब भारत के संविधान का गला घोट दिया गया था। जब वंदे मातरम 100 साल का हुआ, तब देशभक्ति के लिए जीने-मरने वाले लोगों को जेल के सलाखों के पीछे बंद कर दिया गया था। जिस वंदे मातरम के गीत ने देश को आजादी की ऊर्जा दी थी, उसके जब 100 साल हुए, तो दुर्भाग्य से एक काला कालखंड हमारे इतिहास में उजागर हो गया। हम लोकतंत्र के (अस्पष्ट) गिरोह में थे।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

150 वर्ष उस महान अध्याय को, उस गौरव को पुनः स्थापित करने का अवसर है और मैं मानता हूं, सदन ने भी और देश ने भी इस अवसर को जाने नहीं देना चाहिए। यही वंदे मातरम है, जिसने 1947 में देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता संग्राम का भावनात्मक नेतृत्व इस वंदे मातरम के जयघोष में था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

आपके समक्ष आज जब मैं वंदे मातरम 150 निमित्त चर्चा के लिए आरंभ करने खड़ा हुआ हूं। यहां कोई पक्ष प्रतिपक्ष नहीं है, क्योंकि हम सब यहां जो बैठे हैं, एक्चुअली हमारे लिए ऋण स्वीकार करने का अवसर है कि जिस वंदे मातरम के कारण लक्ष्यावादी लोग आजादी का आंदोलन चला रहे थे और उसी का परिणाम है कि आज हम सब यहां बैठे हैं और इसलिए हम सभी सांसदों के लिए, हम सभी जनप्रतिनिधियों के लिए वंदे मातरम के ऋण स्वीकार करने का यह पावन पर्व है। और इससे हम प्रेरणा लेकर के वंदे मातरम की जिस भावना ने देश की आजादी का जंग लड़ा, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम पूरा देश एक स्वर से वंदे मातरम बोलकर आगे बढ़ा, फिर से एक बार अवसर है कि आओ, हम सब मिलकर चलें, देश को साथ लेकर चलें, आजादी का दीवानों ने जो सपने देखे थे, उन सपनों को पूरा करने के लिए वंदे मातरम 150 हम सब की प्रेरणा बने, हम सब की ऊर्जा बने और देश आत्मनिर्भर बने, 2047 में विकसित भारत बनाकर के हम रहें, इस संकल्प को दोहराने के लिए यह वंदे मातरम हमारे लिए एक बहुत बड़ा अवसर है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

दादा तबीयत तो ठीक है ना! नहीं कभी-कभी इस उम्र में हो जाता है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम की इस यात्रा की शुरुआत बंकिम चंद्र जी ने 1875 में की थी और गीत ऐसे समय लिखा गया था, जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज सल्तनत बौखलाई हुई थी। भारत पर भांति-भांति के दबाव डाल रहे थी, भांति-भांति के ज़ुल्म कर रही थी और भारत के लोगों को मजबूर किया जा रहा था अंग्रेजों के द्वारा और उस समय उनका जो राष्ट्रीय गीत था, God Save The Queen, इसको भारत में घर-घर पहुंचाने का एक षड्यंत्र चल रहा था। ऐसे समय बंकिम दा ने चुनौती दी और ईट का जवाब पत्थर से दिया और उसमें से वंदे मातरम का जन्म हुआ। इसके कुछ वर्ष बाद, 1882 में जब उन्होंने आनंद मठ लिखा, तो उस गीत का उसमें समावेश किया गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने उस विचार को पुनर्जीवित किया था, जो हजारों वर्ष से भारत की रग-रग में रचा-बसा था। उसी भाव को, उसी संस्कारों को, उसी संस्कृति को, उसी परंपरा को उन्होंने बहुत ही उत्तम शब्दों में, उत्तम भाव के साथ, वंदे मातरम के रूप में हम सबको बहुत बड़ी सौगात दी थी। वंदे मातरम, यह सिर्फ केवल राजनीतिक आजादी की लड़ाई का मंत्र नहीं था, सिर्फ हम अंग्रेज जाएं और हम खड़े हो जाएं, अपनी राह पर चलें, इतनी मात्र तक वंदे मातरम प्रेरित नहीं करता था, वो उससे कहीं आगे था। आजादी की लड़ाई इस मातृभूमि को मुक्त कराने का भी जंग था। अपनी मां भारती को उन बेड़ियों से मुक्ति दिलाने का एक पवित्र जंग था और वंदे मातरम की पृष्ठभूमि हम देखें, उसके संस्कार सरिता देखें, तो हमारे यहां वेद काल से एक बात बार-बार हमारे सामने आई है। जब वंदे मातरम कहते हैं, तो वही वेद काल की बात हमें याद आती है। वेद काल से कहा गया है "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः" अर्थात यह भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यही वह विचार है, जिसको प्रभु श्री राम ने भी लंका के वैभव को छोड़ते हुए कहा था "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। वंदे मातरम, यही महान सांस्कृतिक परंपरा का एक आधुनिक अवतार है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंकिम दा ने जब वंदे मातरम की रचना की, तो स्वाभाविक ही वह स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर बन गया। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण वंदे, मातरम हर भारतीय का संकल्प बन गया। इसलिए वंदे मातरम की स्‍तुति में लिखा गया था, “मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, मातृभूमि स्वतंत्रता की वेदिका पर मोदमय, स्वार्थ का बलिदान है, ये शब्द हैं वंदे मातरम, है सजीवन मंत्र भी, यह विश्व विजयी मंत्र भी, शक्ति का आह्वान है, यह शब्द वंदे मातरम। उष्ण शोणित से लिखो, वक्‍तस्‍थलि को चीरकर वीर का अभिमान है, यह शब्द वंदे मातरम।”

आदरणीय अध्यक्ष जी,

कुछ दिन पूर्व, जब वंदे मातरम 150 का आरंभ हो रहा था, तो मैंने उस आयोजन में कहा था, वंदे मातरम हजारों वर्ष की सांस्‍कृतिक ऊर्जा भी थी। उसमें आजादी का जज्बा भी था और आजाद भारत का विजन भी था। अंग्रेजों के उस दौर में एक फैशन हो गई थी, भारत को कमजोर, निकम्मा, आलसी, कर्महीन इस प्रकार भारत को जितना नीचा दिखा सकें, ऐसी एक फैशन बन गई थी और उसमें हमारे यहां भी जिन्होंने तैयार किए थे, वह लोग भी वही भाषा बोलते थे। तब बंकिम दा ने उस हीन भावना को भी झंकझोरने के लिए और सामर्थ्य का परिचय कराने के लिए, वंदे मातरम के भारत के सामर्थ्यशाली रूप को प्रकट करते हुए, आपने लिखा था, त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,कमला कमलदलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी। नमामि त्वां नमामि कमलाम्, अमलाम् अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥ अर्थात भारत माता ज्ञान और समृद्धि की देवी भी हैं और दुश्मनों के सामने अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली चंडी भी हैं।

अध्यक्ष जी,

यह शब्द, यह भाव, यह प्रेरणा, गुलामी की हताशा में हम भारतीयों को हौसला देने वाले थे। इन वाक्यों ने तब करोड़ों देशवासियों को यह एहसास कराया की लड़ाई किसी जमीन के टुकड़े के लिए नहीं है, यह लड़ाई सिर्फ सत्ता के सिंहासन को कब्जा करने के लिए नहीं है, यह गुलामी की बेड़ियों को मुक्त कर हजारों साल की महान जो परंपराएं थी, महान संस्कृति, जो गौरवपूर्ण इतिहास था, उसको फिर से पुनर्जन्म कराने का संकल्प इसमें है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम, इसका जो जन-जन से जुड़ाव था, यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के एक लंबी गाथा अभिव्यक्त होती है।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

जब भी जैसे किसी नदी की चर्चा होती है, चाहे सिंधु हो, सरस्वती हो, कावेरी हो, गोदावरी हो, गंगा हो, यमुना हो, उस नदी के साथ एक सांस्कृतिक धारा प्रवाह, एक विकास यात्रा का धारा प्रवाह, एक जन-जीवन की यात्रा का प्रवाह, उसके साथ जुड़ जाता है। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि आजादी जंग के हर पड़ाव, वो पूरी यात्रा वंदे मातरम की भावनाओं से गुजरता था। उसके तट पर पल्लवित होता था, ऐसा भाव काव्य शायद दुनिया में कभी उपलब्ध नहीं होगा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

अंग्रेज समझ चुके थे कि 1857 के बाद लंबे समय तक भारत में टिकना उनके लिए मुश्किल लग रहा था और जिस प्रकार से वह अपने सपने लेकर के आए थे, तब उनको लगा कि जब तक, जब तक भारत को बाटेंगे नहीं, जब तक भारत को टुकडों में नहीं बाटेंगे, भारत में ही लोगों को एक-दूसरे से लड़ाएंगे नहीं, तब तक यहां राज करना मुश्किल है और अंग्रेजों ने बाटों और राज करो, इस रास्ते को चुना और उन्होंने बंगाल को इसकी प्रयोगशाला बनाया क्यूंकि अंग्रेज़ भी जानते थे, वह एक वक्त था जब बंगाल का बौद्धिक सामर्थ्‍य देश को दिशा देता था, देश को ताकत देता था, देश को प्रेरणा देता था और इसलिए अंग्रेज भी चाहते थे कि बंगाल का यह जो सामर्थ्‍य है, वह पूरे देश की शक्ति का एक प्रकार से केंद्र बिंदु है। और इसलिए अंग्रेजों ने सबसे पहले बंगाल के टुकड़े करने की दिशा में काम किया। और अंग्रेजों का मानना था कि एक बार बंगाल टूट गया, तो यह देश भी टूट जाएगा और वो यावच चन्द्र-दिवाकरौ राज करते रहेंगे, यह उनकी सोच थी। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया, लेकिन जब अंग्रेजों ने 1905 में यह पाप किया, तो वंदे मातरम चट्टान की तरह खड़ा रहा। बंगाल की एकता के लिए वंदे मातरम गली-गली का नाद बन गया था और वही नारा प्रेरणा देता था। अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन के साथ ही भारत को कमजोर करने के बीज और अधिक बोने की दिशा पकड़ ली थी, लेकिन वंदे मातरम एक स्वर, एक सूत्र के रूप में अंग्रेजों के लिए चुनौती बनता गया और देश के लिए चट्टान बनता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

बंगाल का विभाजन तो हुआ, लेकिन एक बहुत बड़ा स्वदेशी आंदोलन खड़ा हुआ और तब वंदे मातरम हर तरफ गूंज रहा था। अंग्रेज समझ गए थे कि बंगाल की धरती से निकला, बंकिम दा का यह भाव सूत्र, बंकित बाबू बोलें अच्छा थैंक यू थैंक यू थैंक यू आपकी भावनाओं का मैं आदर करता हूं। बंकिम बाबू ने, बंकिम बाबू ने थैंक यू दादा थैंक यू, आपको तो दादा कह सकता हूं ना, वरना उसमें भी आपको ऐतराज हो जाएगा। बंकिम बाबू ने यह जो भाव विश्व तैयार किया था, उनके भाव गीत के द्वारा, उन्होंने अंग्रेजों को हिला दिया और अंग्रेजों ने देखिए कितनी कमजोरी होगी और इस गीत की ताकत कितनी होगी, अंग्रेजों ने उसको कानूनी रूप से प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। गाने पर सजा, छापने पर सजा, इतना ही नहीं, वंदे मातरम शब्द बोलने पर भी सजा, इतने कठोर कानून लागू कर दिए गए थे। हमारे देश की आजादी के आंदोलन में सैकड़ों महिलाओं ने नेतृत्व किया, लक्ष्यावधि महिलाओं ने योगदान दिया। एक घटना का मैं जिक्र करना चाहता हूं, बारीसाल, बारीसाल में वंदे मातरम गाने पर सर्वाधिक जुल्म हुए थे। वो बारीसाल आज भारत का हिस्सा नहीं रहा है और उस समय बारीसाल के हमारे माताएं, बहने, बच्चे मैदान उतरे थे, वंदे मातरम के स्वाभिमान के लिए, इस प्रतिबंध के विरोध में लड़ाई के मैदान में उतरी थी और तब बारीसाल कि यह वीरांगना श्रीमती सरोजिनी घोष, जिन्होंने उस जमाने में वहां की भावनाओं को देखिए और उन्होंने कहा था की वंदे मातरम यह जो प्रतिबंध लगा है, जब तक यह प्रतिबंध नहीं हटता है, मैं अपनी चूड़ियां जो पहनती हूं, वो निकाल दूंगी। भारत में वह एक जमाना था, चूड़ी निकालना यानी महिला के जीवन की एक बहुत बड़ी घटना हुआ करती थी, लेकिन उनके लिए वंदे मातरम वह भावना थी, उन्होंने अपनी सोने की चूड़ियां, जब तक वंदे मातरम प्रतिबंध नहीं हटेगा, मैं दोबारा नहीं धारण करूंगी, ऐसा बड़ा व्रत ले लिया था। हमारे देश के बालक भी पीछे नहीं रहे थे, उनको कोड़े की सजा होती थी, छोटी-छोटी उम्र में उनको जेल में बंद कर दिया जाता था और उन दिनों खास करके बंगाल की गलियों में लगातार वंदे मातरम के लिए प्रभात फेरियां निकलती थी। अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था और उस समय एक गीत गूंजता था बंगाल में जाए जाबे जीवोनो चोले, जाए जाबे जीवोनो चोले, जोगोतो माझे तोमार काँधे वन्दे मातरम बोले (In Bengali) अर्थात हे मां संसार में तुम्हारा काम करते और वंदे मातरम कहते जीवन भी चला जाए, तो वह जीवन भी धन्य है, यह बंगाल की गलियों में बच्चे कह रहे थे। यह गीत उन बच्चों की हिम्मत का स्वर था और उन बच्चों की हिम्मत ने देश को हिम्मत दी थी। बंगाल की गलियों से निकली आवाज देश की आवाज बन गई थी। 1905 में हरितपुर के एक गांव में बहुत छोटी-छोटी उम्र के बच्चे, जब वंदे मातरम के नारे लगा रहे थे, अंग्रेजों ने बेरहमी से उन पर कोड़े मारे थे। हर एक प्रकार से जीवन और मृत्यु के बीच लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। इतना अत्याचार हुआ था। 1906 में नागपुर में नील सिटी हाई स्कूल के उन बच्चों पर भी अंग्रेजों ने ऐसे ही जुल्म किए थे। गुनाह यही था कि वह एक स्वर से वंदे मातरम बोल करके खड़े हो गए थे। उन्होंने वंदे मातरम के लिए, मंत्र का महात्म्य अपनी ताकत से सिद्ध करने का प्रयास किया था। हमारे जांबाज सपूत बिना किसी डर के फांसी के तख्त पर चढ़ते थे और आखिरी सांस तक वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम, यही उनका भाव घोष रहता था। खुदीराम बोस, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामकृष्ण विश्वास अनगिनत जिन्होंने वंदे मातरम कहते-कहते फांसी के फंदे को अपने गले पर लगाया था। लेकिन देखिए यह अलग-अलग जेलों में होता था, अलग-अलग इलाकों में होता था। प्रक्रिया करने वाले चेहरे अलग थे, लोग अलग थे। जिन पर जुल्म हो रहा था, उनकी भाषा भी अलग थी, लेकिन एक भारत, श्रेष्ठ भारत, इन सबका मंत्र एक ही था, वंदे मातरम। चटगांव की स्वराज क्रांति जिन युवाओं ने अंग्रेजों को चुनौती दी, वह भी इतिहास के चमकते हुए नाम हैं। हरगोपाल कौल, पुलिन विकाश घोष, त्रिपुर सेन इन सबने देश के लिए अपना बलिदान दिया। मास्टर सूर्य सेन को 1934 में जब फांसी दी गई, तब उन्होंने अपने साथियों को एक पत्र लिखा और पत्र में एक ही शब्द की गूंज थी और वह शब्द था वंदे मातरम।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

हम देशवासियों को गर्व होना चाहिए, दुनिया के इतिहास में कहीं पर भी ऐसा कोई काव्य नहीं हो सकता, ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो सदियों तक एक लक्ष्य के लिए कोटि-कोटि जनों को प्रेरित करता हो और जीवन आहूत करने के लिए निकल पड़ते हों, दुनिया में ऐसा कोई भाव गीत नहीं हो सकता, जो वंदे मातरम है। पूरे विश्व को पता होना चाहिए कि गुलामी के कालखंड में भी ऐसे लोग हमारे यहां पैदा होते थे, जो इस प्रकार के भाव गीत की रचना कर सकते थे। यह विश्व के लिए अजूबा है, हमें गर्व से कहना चाहिए, तो दुनिया भी मनाना शुरू करेगी। यह हमारी स्वतंत्रता का मंत्र था, यह बलिदान का मंत्र था, यह ऊर्जा का मंत्र था, यह सात्विकता का मंत्र था, यह समर्पण का मंत्र था, यह त्याग और तपस्या का मंत्र था, संकटों को सहने का सामर्थ्य देने का यह मंत्र था और वह मंत्र वंदे मातरम था। और इसलिए गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा था, उन्होंने लिखा था, एक कार्ये सोंपियाछि सहस्र जीवन—वन्दे मातरम् (In Bengali) अर्थात एक सूत्र में बंधे हुए सहस्त्र मन, एक ही कार्य में अर्पित सहस्त्र जीवन, वंदे मातरम। यह रविंद्रनाथ टैगोर जी ने लिखा था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

उसी कालखंड में वंदे मातरम की रिकॉर्डिंग दुनिया के अलग-अलग भागों में पहुंची और लंदन में जो क्रांतिकारियों की एक प्रकार से तीर्थ भूमि बन गया था, वह लंदन का इंडिया हाउस वीर सावरकर जी ने वहां वंदे मातरम गीत गाया और वहां यह गीत बार-बार गूंजता था। देश के लिए जीने-मरने वालों के लिए वह एक बहुत बड़ा प्रेरणा का अवसर रहता था। उसी समय विपिन चंद्र पाल और महर्षि अरविंद घोष, उन्होंने अखबार निकालें, उस अखबार का नाम भी उन्होंने वंदे मातरम रखा। यानी डगर-डगर पर अंग्रेजों के नींद हराम करने के लिए वंदे मातरम काफी हो जाता था और इसलिए उन्होंने इस नाम को रखा। अंग्रेजों ने अखबारों पर रोक लगा दी, तो मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में एक अखबार निकाला और उसका नाम उन्होंने वंदे मातरम रखा!

आदरणीय अध्यक्ष जी,

वंदे मातरम ने भारत को स्वावलंबन का रास्ता भी दिखाया। उस समय माचिस के डिबिया, मैच बॉक्स, वहां से लेकर के बड़े-बड़े शिप उस पर भी वंदे मातरम लिखने की परंपरा बन गई और बाहरी कंपनियों को चुनौती देने का एक माध्यम बन गया, स्वदेशी का एक मंत्र बन गया। आजादी का मंत्र स्वदेशी के मंत्र की तरह विस्तार होता गया।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

मैं एक और घटना का जिक्र भी करना चाहता हूं। 1907 में जब वी ओ चिदंबरम पिल्लई, उन्होंने स्वदेशी कंपनी का जहाज बनाया, तो उस पर भी लिखा था वंदेमातरम। राष्ट्रकवि सुब्रमण्यम भारती ने वंदे मातरम को तमिल में अनुवाद किया, स्तुति गीत लिखे। उनके कई तमिल देशभक्ति गीतों में वंदे मातरम की श्रद्धा साफ-साफ नजर आती है। शायद सभी लोगों को लगता है, तमिलनाडु के लोगों को पता हो, लेकिन सभी लोगों को यह बात का पता ना हो कि भारत का ध्वज गीत वी सुब्रमण्यम भारती ने ही लिखा था। उस ध्वज गीत का वर्णन जिस पर वंदे मातरम लिखा हुआ था, तमिल में इस ध्वज गीत का शीर्षक था। Thayin manikodi pareer, thazhndu panintu Pukazhnthida Vareer! (In Tamil) अर्थात देश प्रेमियों दर्शन कर लो, सविनय अभिनंदन कर लो, मेरी मां की दिव्य ध्वजा का वंदन कर लो।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

मैं आज इस सदन में वंदे मातरम पर महात्मा गांधी की भावनाएं क्या थी, वह भी रखना चाहता हूं। दक्षिण अफ्रीका से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी, इंडियन ओपिनियन और और इस इंडियन ओपिनियन में महात्मा गांधी ने 2 दिसंबर 1905 जो लिखा था, उसको मैं कोट कर रहा हूं। उन्होंने लिखा था, महात्मा गांधी ने लिखा था, “गीत वंदे मातरम जिसे बंकिम चंद्र ने रचा है, पूरे बंगाल में अत्यंत लोकप्रिय हो गया है, स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल में विशाल सभाएं हुईं, जहां लाखों लोग इकट्ठा हुए और बंकिम का यह गीत गाया।” गांधी जी आगे लिखते हैंं, यह बहुत महत्वपूर्ण है, वह लिखते हैं यह 1905 की बात है। उन्होंने लिखा, “यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया है, जैसे यह हमारा नेशनल एंथम बन गया है। इसकी भावनाएं महान हैं और यह अन्य राष्ट्रों के गीतों से अधिक मधुर है। इसका एकमात्र उद्देश्य हम में देशभक्ति की भावना जगाना है। यह भारत को मां के रूप में देखता है और उसकी स्तुति करता है।”

अध्यक्ष जी,

जो वंदे मातरम 1905 में महात्मा गांधी को नेशनल एंथम के रूप में दिखता था, देश के हर कोने में, हर व्यक्ति के जीवन में, जो भी देश के लिए जीता-जागता, जिस देश के लिए जागता था, उन सबके लिए वंदे मातरम की ताकत बहुत बड़ी थी। वंदे मातरम इतना महान था, जिसकी भावना इतनी महान थी, तो फिर पिछली सदी में इसके साथ इतना बड़ा अन्याय क्यों हुआ? वंदे मातरम के साथ विश्वासघात क्यों हुआ? यह अन्याय क्यों हुआ? वह कौन सी ताकत थी, जिसकी इच्छा खुद पूज्‍य बापू की भावनाओं पर भी भारी पड़ गई? जिसने वंदे मातरम जैसी पवित्र भावना को भी विवादों में घसीट दिया। मैं समझता हूं कि आज जब हम वंदे मातरम के 150 वर्ष का पर्व बना रहे हैं, यह चर्चा कर रहे हैं, तो हमें उन परिस्थितियों को भी हमारी नई पीडिया को जरूर बताना हमारा दायित्व है। जिसकी वजह से वंदे मातरम के साथ विश्वासघात किया गया। वंदे मातरम के प्रति मुस्लिम लीग की विरोध की राजनीति तेज होती जा रही थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने लखनऊ से 15 अक्टूबर 1937 को वंदे मातरम के विरुद्ध का नारा बुलंद किया। फिर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को अपना सिंहासन डोलता दिखा। बजाय कि नेहरू जी मुस्लिम लीग के आधारहीन बयानों को तगड़ा जवाब देते, करारा जवाब देते, मुस्लिम लीग के बयानों की निंदा करते और वंदे मातरम के प्रति खुद की भी और कांग्रेस पार्टी की भी निष्ठा को प्रकट करते, लेकिन उल्टा हुआ। वो ऐसा क्यों कर रहे हैं, वह तो पूछा ही नहीं, न जाना, लेकिन उन्होंने वंदे मातरम की ही पड़ताल शुरू कर दी। जिन्ना के विरोध के 5 दिन बाद ही 20 अक्टूबर को नेहरू जी ने नेताजी सुभाष बाबू को चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी में जिन्ना की भावना से नेहरू जी अपनी सहमति जताते हुए कि वंदे मातरम भी यह जो उन्होंने सुभाष बाबू को लिखा है, वंदे मातरम की आनंद मठ वाली पृष्ठभूमि मुसलमानों को इरिटेट कर सकती है। मैं नेहरू जी का क्वोट पढ़ता हूं, नेहरू जी कहते हैं “मैंने वंदे मातरम गीत का बैकग्राउंड पड़ा है।” नेहरू जी फिर लिखते हैं, “मुझे लगता है कि यह जो बैकग्राउंड है, इससे मुस्लिम भड़केंगे।”

साथियों,

इसके बाद कांग्रेस की तरफ से बयान आया कि 26 अक्टूबर से कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक कोलकाता में होगी, जिसमें वंदे मातरम के उपयोग की समीक्षा की जाएगी। बंकिम बाबू का बंगाल, बंकिम बाबू का कोलकाता और उसको चुना गया और वहां पर समीक्षा करना तय किया। पूरा देश हतप्रभ था, पूरा देश हैरान था, पूरे देश में देशभक्तों ने इस प्रस्ताव के विरोध में देश के कोने-कोने में प्रभात फेरियां निकालीं, वंदे मातरम गीत गाया लेकिन देश का दुर्भाग्य कि 26 अक्टूबर को कांग्रेस ने वंदे मातरम पर समझौता कर लिया। वंदे मातरम के टुकड़े करने के फैसले में वंदे मातरम के टुकड़े कर दिए। उस फैसले के पीछे नकाब ये पहना गया, चोला ये पहना गया, यह तो सामाजिक सद्भाव का काम है। लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए और मुस्लिम लीग के दबाव में किया और कांग्रेस का यह तुष्टीकरण की राजनीति को साधने का एक तरीका था।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

तुष्टीकरण की राजनीति के दबाव में कांग्रेस वंदे मातरम के बंटवारे के लिए झुकी, इसलिए कांग्रेस को एक दिन भारत के बंटवारे के लिए झुकना पड़ा। मुझे लगता है, कांग्रेस ने आउटसोर्स कर दिया है। दुर्भाग्य से कांग्रेस के नीतियां वैसी की वैसी ही हैं और इतना ही नहीं INC चलते-चलते MMC हो गया है। आज भी कांग्रेस और उसके साथी और जिन-जिन के नाम के साथ कांग्रेस जुड़ा हुआ है सब, वंदे मातरम पर विवाद खड़ा करने की कोशिश करते हैं।

आदरणीय अध्यक्ष महोदय,

किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके जीवटता उसके अच्छे कालखंड से ज्यादा, जब चुनौतियों का कालखंड होता है, जब संकटों का कालखंड होता है, तब प्रकट होती हैं, उजागर होती हैं और सच्‍चे अर्थ में कसौटी से कसी जाती हैं। जब कसौटी का काल आता है, तब ही यह सिद्ध होता है कि हम कितने दृढ़ हैं, कितने सशक्त हैं, कितने सामर्थ्यवान हैं। 1947 में देश आजाद होने के बाद देश की चुनौतियां बदली, देश के प्राथमिकताएं बदली, लेकिन देश का चरित्र, देश की जीवटता, वही रही, वही प्रेरणा मिलती रही। भारत पर जब-जब संकट आए, देश हर बार वंदे मातरम की भावना के साथ आगे बढ़ा। बीच का कालखंड कैसा गया, जाने दो। लेकिन आज भी 15 अगस्त, 26 जनवरी की जब बात आती है, हर घर तिरंगा की बात आती है, चारों तरफ वो भाव दिखता है। तिरंगे झंडे फहरते हैं। एक जमाना था, जब देश में खाद्य का संकट आया, वही वंदे मातरम का भाव था, मेरे देश के किसानों के अन्‍न के भंडार भर दिए और उसके पीछे भाव वही है वंदे मातरम। जब देश की आजादी को कुचलना की कोशिश हुए, संविधान की पीठ पर छुरा घोप दिया गया, आपातकाल थोप दिया गया, यही वंदे मातरम की ताकत थी कि देश खड़ा हुआ और परास्त करके रहा। देश पर जब भी युद्ध थोपे गए, देश को जब भी संघर्ष की नौबत आई, यही वंद मातरम का भाव था, देश का जवान सीमाओं पर अड़ गया और मां भारती का झंडा लहराता रहा, विजय श्री प्राप्त करता रहा। कोरोना जैसा वैश्विक महासंकट आया, यही देश उसी भाव से खड़ा हुआ, उसको भी परास्त करके आगे बढ़ा।

आदरणीय अध्यक्ष जी,

यह राष्ट्र की शक्ति है, यह राष्ट्र को भावनाओं से जोड़ने वाला सामर्थ्‍यवान एक ऊर्जा प्रवाह है। यह चेतना परवाह है, यह संस्कृति की अविरल धारा का प्रतिबिंब है, उसका प्रकटीकरण है। यह वंदे मातरम हमारे लिए सिर्फ स्मरण करने का काल नहीं, एक नई ऊर्जा, नई प्रेरणा का लेने का काल बन जाए और हम उसके प्रति समर्पित होते चलें और मैंने पहले कहा हम लोगों पर तो कर्ज है वंदे मातरम का, वही वंदे मातरम है, जिसने वह रास्ता बनाया, जिस रास्ते से हम यहां पहुंचे हैं और इसलिए हमारा कर्ज बनता है। भारत हर चुनौतियों को पार करने में सामर्थ्‍य है। वंदे मातरम के भाव की वो ताकत है। वंदे मातरम यह सिर्फ गीत या भाव गीत नहीं, यह हमारे लिए प्रेरणा है, राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के लिए हमें झकझोरने वाला काम है और इसलिए हमें निरंतर इसको करते रहना होगा। हम आत्मनिर्भर भारत का सपना लेकर के चल रहे हैं, उसको पूरा करना है। वंदे मातरम हमारी प्रेरणा है। हम स्वदेशी आंदोलन को ताकत देना चाहते हैं, समय बदला होगा, रूप बदले होंगे, लेकिन पूज्य गांधी ने जो भाव व्यक्त किया था, उस भाव की ताकत आज भी हमें मौजूद है और वंदे मातरम हमें जोड़ता है। देश के महापुरुषों का सपना था स्वतंत्र भारत का, देश की आज की पीढ़ी का सपना है समृद्ध भारत का, आजाद भारत के सपने को सींचा था वंदे भारत की भावना ने, वंदे भारत की भावना ने, समृद्ध भारत के सपने को सींचेगा वंदे मातरम के भवना, उसी भावनाओं को लेकर के हमें आगे चलना है। और हमें आत्मनिर्भर भारत बनाना, 2047 में देश विकसित भारत बन कर रहे। अगर आजादी के 50 साल पहले कोई आजाद भारत का सपना देख सकता था, तो 25 साल पहले हम भी तो समृद्ध भारत का सपना देख सकते हैं, विकसित भारत का सपना देख सकते हैं और इस सपने के लिए अपने आप को खपा भी सकते हैं। इसी मंत्र और इसी संकल्प के साथ वंदे मातरम हमें प्रेरणा देता रहे, वंदे मातरम का हम ऋण स्वीकार करें, वंदे मातरम की भावनाओं को लेकर के चलें, देशवासियों को साथ लेकर के चलें, हम सब मिलकर के चलें, इस सपने को पूरा करें, इस एक भाव के साथ यह चर्चा का आज आरंभ हो रहा है। मुझे पूरा विश्वास है कि दोनों सदनों में देश के अंदर वह भाव भरने वाला कारण बनेगा, देश को प्रेरित करने वाला कारण बनेगा, देश की नई पीढ़ी को ऊर्जा देने का कारण बनेगा, इन्हीं शब्दों के साथ आपने मुझे अवसर दिया, मैं आपका बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूं। बहुत-बहुत धन्यवाद!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!

वंदे मातरम!