मेरे प्रिय देशवासियों,

प्रकृति का नियम है कि जीत सिर्फ सत्य की होती है – सत्यमेव जयते। हमारी न्यायपालिका ने जब इस हकीकत की अभिव्यक्ति की है, मुझे ये उचित लगता है कि देश के लोगों के सामने अपने मन के विचारों और भावनाओं को रखूं।

इस प्रकरण का अंत आने के साथ ही शुरुआत की यादें उभर रही हैं। 2001 के भयावह भूकंप ने गुजरात को मृत्यु और विनाश के साथ ही असहाय हो जाने की भावना से भर दिया था। सैंकड़ों लोगों की जान गई थी। लाखों लोग बेघर हो गये थे। समूचा जनजीवन प्रभावित हुआ था, आजीविका के साधन नष्ट हो गये थे। इस तरह की अकल्पनीय त्रासदी वाले भयावह क्षणों में मुझे लोगों के घावों पर मलहम लगाने और पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी दी गई थी। और हमने पूरी ताकत से इस चुनौती का मुकाबला करने में अपने को झोंक दिया था।

हालांकि महज पांच महीनों के अंदर हमें एक और अप्रत्याशित झटका लगा, 2002 की अमानवीय हिंसा के तौर पर। निर्दोषों की जान गई। परिवार असहाय बने। वर्षों की मेहनत के बाद जो संपत्ति बनाई गई थी, वो नष्ट हुई। प्रकृति की तबाही के बाद अपने पांव पर खड़े होने के लिए संघर्ष कर रहे गुजरात के लिए ये एक और भयावह झटका था।

मेरी अंतरात्मा ऐसी गहन संवेदना से भर गई थी, जिसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। दुख, पीड़ा, यातना, वेदना, व्यथा- ऐसे किसी भी शब्द से उन भावों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। वो हृदय विदारक घटना थी, उस अमानवीय और दुर्भाग्यपूर्ण घटना को याद करने पर आज भी कंपकंपी छूट जाती है।

एक तरफ भूकंप पीड़ितों का दर्द था, तो दूसरी तरफ दंगा पीड़ितों का। इस परिस्थिति का पूरी ताकत से सामना करते हुए मेरे लिए ये जरूरी था कि अपनी निजी पीड़ा और व्यथा को किनारे रखते हुए, भगवान ने जितनी भी ताकत मुझे दी है, उसका इस्तेमाल करते हुए मैं शांति, न्याय और पुनर्वास के काम को कर सकूं।

उस चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में, मुझे प्राचीन ग्रंथों में लिखे हुए वो विचार अक्सर याद आते थे कि जो लोग सत्ता के शीर्ष स्थानों पर बैठे हैं, उन्हें अपनी पीड़ा और व्यथा को किसी और के साथ बांटने का अधिकार नहीं है। उन्हें अकेले ही उसे भुगतना पड़ता है। मेरे साथ भी ऐसा ही रहा, अपनी व्यथा का अनुभव करता रहा, जो काफी तीव्र थी। दरअसल, जब भी मैं उन दिनों को याद करता हूं, मैं ईश्वर से एक प्रार्थना जरुर करता हूं। वो ये कि ऐसे क्रुर और दुर्भाग्यपूर्ण दिन किसी भी दूसरे व्यक्ति, समाज, राज्य या देश को नहीं देखने पड़ें।

ये पहली बार है, जब मैं उस भयावह पीड़ा को बांट रहा हूं, जो उन दिनों में मैंने व्यक्तिगत तौर पर महसूस किया।

उन्हीं भावनाओं के साथ मैंने गोधरा ट्रेन आगजनी कांड के दिन ही गुजरात के लोगों से शांति और धैर्य की अपील की थी, ये सुनिश्चित करने के लिए कि निर्दोष लोगों की जान पर किसी किस्म का खतरा न पैदा हो। मैंने यही बात फरवरी-मार्च 2002 के उन दिनों में मीडिया के साथ अपने रोजाना मुलाकात के दौरान भी कही। मैंने जोर देकर कहा था कि सरकार की न सिर्फ राजनीतिक इच्छाशक्ति, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वो शांति बनाए रखे, लोगों को न्याय दिलाए और हिंसा के दोषियों को सजा दिलाए। यही बात मैंने हाल के सदभावना उपवासों के दौरान भी कही कि किसी भी सभ्य समाज को इस तरह के घृणित कृत्य शोभा नहीं देते और इनसे मुझे कितनी पीड़ा हुई थी।

दरअसल, बतौर मुख्यमंत्री मेरे कार्यकाल की शुरुआत से ही मेरा इस बात के लिए जोर रहा कि कैसे एकता की भावना को सुदृढ किया जाए। इसी बात को मजबूती से रखने के लिए मैंने नया शब्द प्रयोग शुरु किया – मेरे पांच करोड़ गुजराती भाइयों और बहनों।

एक तरफ जहां मैं पीड़ा को झेल रहा था, वही दूसरी तरफ मुझ पर, मेरे अपने गुजराती भाइयों और बहनों की मौत और उन्हें नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया गया। क्या आप मेरे मन के अंदर के भावों और उद्वेग का अंदाजा लगा सकते हैं, जिन घटनाओं की वजह से मुझे इतनी पीड़ा हुई, उन्हीं घटनाओं को करवाने का आरोप मेरे उपर लगाया गया।

कई वर्षों तक लगातार मेरे उपर आरोप लगाये जाते रहे, कोई मौका नहीं छोड़ा गया मुझ पर हमला बोलने का। मुझे इस बात से और अधिक पीड़ा हुई कि जिन लोगों ने अपने निजी और राजनीतिक स्वार्थ को साधने के लिए मेरे उपर हमला किया, उन्होंने मेरे राज्य और देश की छवि भी धूमिल की। जिन घावों को भरने की हम पूरी ताकत से कोशिश कर रहे थे, उन्हीं घावों को बेरहम तरीके से लगातार कुरेदने की कोशिश की जाती रही। दुर्भाग्यपूर्ण तो ये रहा कि ऐसे तत्व जिन लोगों की लड़ाई को लड़ने का नाटक कर रहे थे, उन्हीं पीड़ितों को जल्दी न्याय मिलने में इन्होंने बाधा पैदा की। इन्हें ये महसूस भी नहीं हुआ होगा कि जो लोग पहले ही दर्द को भुगत रहे हैं, उनकी परेशानी को इन्होंने और कितना बढ़ाया है।

बावजूद इसके गुजरात ने अपना रास्ता चुना। हमने हिंसा के उपर शांति को चुना, विखंडन की जगह एकता को चुना, घृणा के उपर सदभाव को चुना। ये काम आसान नहीं था, लेकिन हम लंबे मार्ग पर चलने के लिए तैयार थे। अनिश्चितता और भय के माहौल से आगे बढ़कर मेरा गुजरात शांति, एकता और सदभावना की मिसाल के तौर पर उभरा। आज मुझे इस बात का संतोष है और मैं इसके लिए हरेक गुजराती को श्रेय देता हूं।

गुजरात सरकार ने हिंसा से निबटने के लिए जिस तेजी और निर्णायक ढंग से काम किया, वैसा देश में कभी किसी दंगे के दौरान देखने को नहीं मिला था। कल का फैसला उस न्यायिक समीक्षा प्रक्रिया का पूरा होना है, जो देश की सबसे बड़ी अदालत, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुई थी। बारह वर्षों तक गुजरात ने जो अग्नि परीक्षा दी है, वो अब पूर्ण हुई है। मैं आज राहत और शांति महसूस कर रहा हूं।

मैं उन सभी लोगों का आभारी हूं, जिन्होंने इस चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में मेरा साथ दिया, जो झूठ और पैंतरेबाजी के बीच सच्चाई को समझ पाए। अब जबकि दुष्प्रचार के बादल छंट चुके हैं, मैं उम्मीद करता हूं कि जो लोग असली नरेंद्र मोदी को समझना और साथ में जुड़ना चाहते हैं, उनके हौसले और मजबूत होंगे।

जो लोग दूसरों को दर्द देकर ही संतोष हासिल करते हैं, वो मुझ पर हमला करने का सिलसिला बंद नहीं करेंगे। मैं उनसे ये उम्मीद भी नहीं करता हूं। लेकिन मैं पूरी नम्रता के साथ उनसे अपील करता हूं कि कम से कम अब वो गुजरात के छह करोड़ लोगों को गैरजिम्मेदाराना तरीके से बदनाम न करें।

दर्द और क्षोभ के इस सिलसिले से आगे बढ़ते हुए मैं भगवान से प्रार्थना करता हूं मेरे दिल में कोई कड़वाहट न आने दें। मैं इस फैसले को न तो व्यक्तिगत जीत के तौर पर देखता हूं, न ही हार के तौर पर, और मेरे सभी मित्रों और खास तौर पर विरोधियों से अपील है कि वो भी ऐसा न करें। वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के वक्त भी मेरी यही सोच थी। मैंने 37 दिनों तक सदभावना उपवास किया था और उसके जरिये सकारात्मक फैसले को रचनात्मक कार्य में तब्दील किया था, समाज में एकता और सदभावना को मजबूत करने का काम किया था।

मैं इस बात को पूरी गंभीरता से महसूस करता हूं कि किसी भी समाज, राज्य या देश की प्रगति सदभावना और भाइचारे में है। ये वो आधार है, जिस पर विकास और समृद्धि हासिल की जा सकती है। इसलिए मैं सभी लोगों से अपील करता हूं कि साथ मिलकर हम ये लक्ष्य हासिल करें, प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे पर खुशी सुनिश्चित करने का काम करें।

एक बार फिर से, सत्यमेव जयते!

वंदे मातरम!

नरेंद्र मोदी

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भारत और नेचुरल फार्मिंग...भविष्य की राह!
December 03, 2025

इस वर्ष अगस्त में, तमिलनाडु के कुछ किसानों का एक समूह मुझसे मिलने आया और उन्होंने बताया कि कैसे वे स्थिरता और उत्पादकता बढ़ाने के लिए नई कृषि तकनीकों का उपयोग कर रहे हैं। उन्होंने मुझे कोयंबटूर में आयोजित होने वाले नेचुरल फार्मिंग पर एक शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया। मैंने उनका निमंत्रण स्वीकार किया और वादा किया कि मैं कार्यक्रम के दौरान उनके बीच रहूँगा। इसलिए, कुछ सप्ताह पहले, 19 नवंबर को, मैं दक्षिण भारत प्राकृतिक कृषि शिखर सम्मेलन 2025 में भाग लेने के लिए खूबसूरत शहर कोयंबटूर में था। एमएसएमई की रीढ़ माने जाने वाले इस शहर में प्राकृतिक खेती पर एक बड़ा आयोजन हो रहा था।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, नेचुरल फार्मिंग भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों और आधुनिक पर्यावरणीय सिद्धांतों पर आधारित है, जिसमें फसलों की खेती बिना रासायनिक पदार्थों के की जाती है। यह विविध क्षेत्रों को बढ़ावा देती है, जहाँ पौधे, पेड़ और पशुधन एक साथ प्राकृतिक जैव-विविधता को मजबूत करते हैं। यह पद्धति बाहरी इनपुट की जगह खेत में उपलब्ध अवशेषों के पुनर्चक्रण, मल्चिंग और मिट्टी को हवा देने के माध्यम से मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने पर जोर देती है।

कोयंबटूर में यह शिखर सम्मेलन हमेशा मेरी स्मृति का हिस्सा रहेगा! यह मानसिकता, कल्पना और आत्मविश्वास में बदलाव का संकेत था जिसके साथ भारत के किसान और कृषि-उद्यमी कृषि के भविष्य को आकार दे रहे हैं।

कार्यक्रम में तमिलनाडु के किसानों के साथ संवाद शामिल था, जिसमें उन्होंने नेचुरल फार्मिंग में अपने प्रयास प्रस्तुत किए और मैं आश्चर्यचकित रह गया!

मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोग, जिनमें वैज्ञानिक, एफपीओ लीडर, प्रथम-पीढ़ी के स्नातक, परंपरागत किसान और खास तौर पर उच्च वेतन वाली कॉर्पोरेट करियर छोड़ने वाले लोग शामिल थे जो अपनी जड़ों की ओर लौटने और नेचुरल फार्मिंग करने का फैसला कर रहे थे।

ने ऐसे लोगों से मुलाकात की जिनकी जीवन यात्राएँ और कुछ नया करने की प्रतिबद्धता अत्यंत प्रेरणादायी थीं।

वहाँ एक किसान थे जो लगभग 10 एकड़ में केले, नारियल, पपीता, काली मिर्च और हल्दी की खेती के साथ बहुस्तरीय कृषि कर रहे थे। उनके पास 60 देसी गायें, 400 बकरियाँ और स्थानीय पोल्ट्री थीं।

एक अन्य किसान स्थानीय धान की किस्मों जैसे मपिल्लई सांबा और करुप्पु कावुनी को संरक्षित करने में जुटे थे। वे मूल्यवर्धित उत्पादों पर काम कर रहे हैं - हेल्थ मिक्स, मुरमुरा, चॉकलेट और प्रोटीन बार जैसी चीजें तैयार करते हैं।

एक पहली पीढ़ी के स्नातक थे जो 15 एकड़ का प्राकृतिक फार्म चलाते है और 3,000 से अधिक किसानों को प्रशिक्षण दे चुके हैं। वे हर महीने लगभग 30 टन सब्जियाँ की आपूर्ति करते हैं।

कुछ लोग जो अपने स्वयं के एफपीओ चला रहे थे, उन्होंने टैपिओका किसानों का समर्थन किया और टैपिओका-आधारित उत्पादों को बायोएथेनॉल और कम्प्रेस्ड बायोगैस के लिए एक टिकाऊ कच्चे माल के रूप में बढ़ावा दे रहे थे।

कृषि नवाचार करने वालों में से एक बायोटेक्नोलॉजी प्रोफेशनल थे, जिन्होंने तटीय जिलों में 600 मछुआरों को रोजगार देते हुए एक समुद्री शैवाल-आधारित बायोफर्टिलाइजर का व्यवसाय स्थापित किया, एक अन्य ने पोषक तत्वों से भरपूर बायोएक्टिव बायोचार विकसित किया जो मिट्टी के स्वास्थ्य को बढ़ाता है। दोनों ने दिखाया कि विज्ञान और स्थिरता कैसे सहज रूप से एक साथ चल सकते हैं।

वहाँ जिन लोगों से मैं मिला, वे अलग-अलग पृष्ठभूमि से थे, लेकिन एक बात समान थी: मिट्टी के स्वास्थ्य, स्थिरता, सामुदायिक उत्थान और उद्यमशीलता के प्रति पूर्ण समर्पण।

व्यापक स्तर पर, भारत ने इस क्षेत्र में सराहनीय प्रगति की है। पिछले वर्ष, भारत सरकार ने राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन शुरू किया, जिसने पहले ही लाखों किसानों को स्थायी प्रथाओं से जोड़ा है। पूरे देश में, हजारों हेक्टेयर भूमि नेचुरल फार्मिंग के अंतर्गत है। निर्यात को प्रोत्साहित करने, किसान क्रेडिट कार्ड (पशुधन और मत्स्य पालन सहित) और पीएम-किसान के माध्यम से संस्थागत ऋण का उल्लेखनीय विस्तार करने जैसे सरकार के प्रयासों ने भी किसानों को प्राकृतिक खेती करने में मदद की है।

चुरल फार्मिंग हमारे "श्री अन्न" यानी मिलेट्स को बढ़ावा देने के प्रयासों से भी घनिष्ठ रूप से जुड़ी है। यह भी सुखद है कि महिलाएँ बड़े पैमाने पर प्राकृतिक खेती अपना रही हैं।

पिछले कुछ दशकों में, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर बढ़ती निर्भरता ने मिट्टी की उर्वरता, नमी और दीर्घकालिक स्थिरता को प्रभावित किया है। इसी दौरान खेती की लागत भी लगातार बढ़ी है। नेचुरल फार्मिंग इन चुनौतियों का सीधा समाधान करती है। पंचगव्य, जीवामृत, बीजामृत और मल्चिंग के प्रयोग से मिट्टी के स्वास्थ्य की रक्षा होती है, रसायनों का प्रभाव कम होता है, तथा इनपुट लागत घटती है, साथ ही जलवायु परिवर्तन और अनियमित मौसम पैटर्न के विरुद्ध मजबूती भी मिलती है।

मैंने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे ‘एक एकड़, एक मौसम’ से शुरुआत करें। एक छोटे से भूखंड से भी मिलने वाले परिणाम आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं और बड़े पैमाने पर इसे अपनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। जब पारंपरिक ज्ञान, वैज्ञानिक मान्यता और संस्थागत समर्थन एक साथ आते हैं, तो नेचुरल फार्मिंग व्यवहार्य और परिवर्तनकारी बन सकती है।

मैं आप सभी से भी आग्रह करता हूँ कि नेचुरल फार्मिंग अपनाने पर विचार करें। आप एफपीओ से जुड़कर यह कर सकते हैं, जो सामूहिक सशक्तिकरण के मजबूत मंच बन रहे हैं। आप इस क्षेत्र से संबंधित कोई स्टार्टअप भी शुरू कर सकते हैं।

कोयंबटूर में किसानों, विज्ञान, उद्यमिता और सामूहिक प्रयास का जो संगम देखने को मिला, वह वास्तव में प्रेरणादायक था। मुझे विश्वास है कि हम सब मिलकर अपनी कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों को अधिक उत्पादक और टिकाऊ बनाते रहेंगे। यदि आप नेचुरल फार्मिंग पर काम करने वाली किसी टीम को जानते हों, तो मुझे भी अवश्य बताएं!